शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

असोका तो फैसन है!

एक श्रीमान हैं। उम्र लगभग पचास के आसपास। वैसे तो साधारण आदमी हैं पर अपने उच्चारण और अटपटे वाक्य विन्यास के लिए (कु) ख्यात हैं। बेचारे गाहे-बाहे अपने ही बच्चों की हँसी के पात्र भी बनते हैं। क्योंकि बोलते हुए वे सारे 'श' को 'स' बना डालते हैं। शशि उनके लिए 'ससि' है। सुशीला, श्यामा क्रमश: सुसीला, स्यामा! उनके घर में एक स्वीटी भी है, जिसे श्रीमानजी भरसक प्रयास करने के बाद भी 'सीटी' ही उच्चार पाते हैं। श्रीमानजी को हर बात का हिन्दी-अँगरेजी साथ बोलने की आदत है। मसलन वे 'सुबह मार्निंग वॉक' पर जाते हैं। उनके सिर में हेडेक होता है! बात के अंत में वे कहते हैं 'खैर, एनी वे'। मेहमान की आवभगत में वे पूछते हैं, 'आपके लिए फल-फ्रूट लाऊँ?'

सच में इन श्रीमानजी को किसी अच्छी वाग्मिता कक्षा की सख्त जरूरत है। या चाहें तो वे अपने बाल-बच्चों के सुझावों पर ध्यान देकर ही अपनी बोली की फूहड़ता सुधार सकते हैं। वैसे ये श्रीमानजी अपने किस्म के अकेले नहीं हैं। इस तरह के श्रीमानजी और श्रीमतीजी हमारे आसपास और भी हैं, जिनकी अटपटी बोली पर कटाक्ष करने में मालवा, निमाड़ के कई व्यंग्यकार हाथ साफ कर चुके हैं। व्यंग्य लेखक तो व्यंग्य लेखक, आम आदमी भी इनके शब्दों और वाक्यों को पकड़कर हँसने से नहीं चूकता। क्योंकि इनकी मजेदार भूलें स्पष्ट नजर आती हैं। मगर आप मानें या न मानें, श्रीमानजी वाली बीमारी ग्राम्य और कस्बाई परिवेश से आगे बढ़कर महानगरीय, फैशनपरस्त लोगों में भी मौजूद है। आजकल फिल्मकारों में एक नया ट्रेंड चला है। फिल्म के हिन्दी नाम के साथ उस नाम के अँगरेजी अनुवाद का पुछल्ला लगाने का। जाल-द-ट्रेप, धुंध-द फॉग, सन्नाटा-द सायलेंस, तलाश-द हंट, बाज-ए बर्ड इन डेंजर।

है न मजेदार बात। गोया अनुवाद न किया तो दर्शक को समझ ही नहीं आएगा कि ये 'जाल' क्या बला है। और यह परंपरा लगभग रू‍ढ़ि का रूप धारण कर चुकी है। इसके अतिरिक्त फिल्म वालों ने अशोक को 'असोका' बना ‍िदया। इनके भाई-बंध, जोड़ीदारों, बिरादरों यानी अन्य फैशनपरस्त शहरियों ने वात, पित्त, कफ को 'वाटा, पिटा, कफा' बना ‍िदया है। बुद्ध को बुद्धा, राम को रामा, महावीर को महावीरा तो ये वीर कभी के बना चुके हैं। मगर श्रीमानजी पर जैसे हम हँसते हैं, इन पर हँसने का साहस हममें नहीं है। जब उसी बात के लिए श्रीमानजी हँसी के पात्र हैं, तो ये 'श्रीमंत' क्यों नहीं? सच तो यह है कि हमारी गुलाम मानसिकता हमें चमकते लोगों की फूहड़ताओं पर सवाल उठाने से रोकती है।

जिन लोगों में तर्क, मौलिकता और कल्पना शक्ति का जर्बदस्त अभाव है, वे भौड़ें, नकलची और भेड़ वृत्ति अपनाने वाले रू‍ढ़िवादी सुरुचि संपन्नों को जमात में क्यों माने जाएँ? मगर यह भी हो रहा है। हम किसी और की भाषा का इस्तेमाल करें और उसका गलत उच्चारण करें तो गँवार माने जाएँगे। जाहिर है हम जॉन को जान नहीं कहेंगे। मगर हमारी भाषा का गलत उच्चारण करने वाले उल्टे आधुनिक माने जाते हैं। 'बुद्ध' को 'बुद्धा' कहने वाला अपने आप को आधुनिक समझता है।

- निर्मला भुराड़िया

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर और प्रासंगिक आलेख...
    नि:संदेह ये बेहद शर्मनाक है ..न तो हम अपनी मातृभाषा के साथ न्याय कर पा रहे है और न ही अंग्रेजी भाषा को पूरा सीख़ पा रहे है, और हिग्लिश ने तो दोनों ही भाषओं की दुर्गति कर दी है ..

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  2. बहुत सटीक ...ऐसे ही रविन्द्र नाथ ठाकुर को टैगोर कहना ...

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