शनिवार, 28 अगस्त 2010

कुड़ियों का जमाना?


भई अब तो "औरतों का जमाना है, उन्हीं की चलती-हलती है' एक सज्जन कुछ शिकायती स्वर में फरियाद कर रहे थे। दरअसल उनके एक मित्र की बहू ने दहेज उत्पीड़न का मुकदमा ठोक रखा था, जो कि मित्र का कहना था झूठा आरोप है। इन सज्जन की बात में कुछ खास गलत नहीं है, कुछ स्त्रियों और उन्हें मोहरा बनाकर खेलने वालों ने नए जमाने के स्त्री समर्थक कानूनों का गलत इस्तेमाल करना शुरू किया है, मगर ये स्त्रियॉं स्त्रियों के उस बड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं, जिन्हें सचमुच कानून और समाज का सुरक्षा कवच चाहिए। दरअसल इन चंद स्त्रियों की कारस्तानी का रोना रोने से ज्यादा जरूरी है भोली-भाली और आम स्त्री की चेतना, उसकी जागरूकता बढ़ाना, ताकि कानूनों का इस्तेमाल सही बात पर, सही जगह और सही लोगों द्वारा किया जा सके। सिर्फ कानून बन जाने से आम स्त्री सशक्त नहीं होगी।


इसी तरह एक अन्य सज्जन यह शिकायत कर रहे थे "अब तो हर काम में लड़कियॉं आ गई हैं, यदि आप लड़की हों तो आपको काम मिल जाता है। वे लड़कों का रोजगार छीन रही हैं।' सर्वप्रथम तो इन सज्जन से यह पूछा जाना चाहिए कि यह किसने कहा कि रोजगार पर सिर्फ पुरुषों का ही हक है। दूसरी बात यह गणित जितना सीधा दिखाई पड़ता है, उतना है नहीं। मामूली से कामों में भले शक्ल चल जाए, मगर जहॉं योग्यता चाहिए वहॉं योग्यता ही चाहिए, बल्कि इसमें पेंच तो खालिस पुरानी उस पुरुष मानसिकता से है, जो अब भी सामंतवादी है। मुकाबला स्त्री और पुरुष के बीच हो तो अक्सर स्त्री की योग्यता पर संदेह किया जाता है। क्या इनसे होगा, क्या यह कर पाएँगी, का सवाल लोगों को परेशान करता है। स्त्री की पीठ यदि थपथपाई जाती है तो तब जब वह कद में छोटी हो और पुरुष को यह गुमान रहे कि पीठ थपथपाकर वह स्त्री के प्रोत्साहक, उन्नायक, उद्धारक की भूमिका में आ गया है। जब तक स्वयं की महानता का यह बोध कामय रहे तभी तक की शाबासियॉं हैं। स्त्री का कद निकला कि सामंतवादी सोच रखने वाले थ्रेट महसूस करते हैं, ईर्ष्या भी महसूस करते हैं। यानी स्त्रियॉं तो घर से बाहर आई हैं, पर बहुत से पुरुष अभी इस सोच से बाहर नहीं आए हैं कि स्त्री महज अनुगामिनी है। हालांकि जमाना सचमुच बदला है। स्त्री-पुरुषों को साथ घूमने-फिरने की स्वतंत्रता है, वेशभूषा में भी काफी ढील मिली है, वे स्वयं वाहन चलाती हैं और कई ऐसे काम करती हैं, जो पहले की स्त्रियॉं सोच भी नहीं सकती थीं। शादी-ब्याह इत्यादि में भी उनकी पसंद पूछी जाती है, घर-गृहस्थी और समाज के कई कार्यों में उनसे सलाह ली जाती है। फिर भी बड़े तौर पर उनके हाथ में निर्णय के अधिकार नहीं होते। भारतीय स्त्री में अंधी आज्ञाकारिता आज भी बड़ा गुण माना जाता है।


एक कस्बाई लड़की है पंद्रह बरस की। वह घर का काम करती है, छोटे भाई-बहनों को संभालती है, बड़े भाइयों को खाना खिलाती है, ढेर से काम उसके कंधों पर हैं। इसी चक्कर में उसे स्कूल नहीं भेजा गया, वह निरक्षर है, घर के बाहर की दुनिया से उसका कोई वास्ता नहीं है। उस पर कई प्रकार की रोक-टोक लागू है और सब करते-करते भी कई मामूली गलतियों के लिए वह झिड़की भी जाती है। वह भी हमारे भारत की ही लड़की है और वह सिर्फ एक नमूना भर है। उसके जैसी अनगिनत लड़कियॉं अभी हमारे हिन्दुस्तान में ही हैं, जिन्हें यह पता नहीं है कि "औरतों का जमाना' आ गया है! इस लड़की से जब यूँ ही पूछा गया कि अगले जनम में लड़का बनना चाहोगी या लड़की? तो लगा था या तो यह कहेगी लड़की ही ठीक हूँ या कहेगी अगले जनम में लड़का बनूँगी तो पढ़ने जा सकूँगी (क्योंकि उसके भाई पढ़ते हैं), मगर इस लड़की ने तीसरा ही जवाब दिया। उसने कहा- "आप कहोगे वही बन जाऊँगी!' यह जवाब सचमुच स्तब्ध करने वाला था। एक रबर की पुतली की तरह की आज्ञाकारिता उसमें ठूँस-ठूँस कर भरी गई है। उसने अपने माहौल से यही ताकीद मिली है। कहना मानो, सवाल मत करो, खूब काम करो। वह शिक्षा और चेतना के उजाले से वंचित है। वह निर्णय क्षमता और आत्मसम्मान की भावना से रहित है। जब तक यह बारीक बात नहीं बदली जा सकती, तब तक परिवर्तन का कार्य पूरा नहीं होता। नतीजतन अभी खुलकर यह घोषणा नहीं की जा सकती कि स्त्रियों का जमाना आ गया है। यह बदलाव हो रहा है, मगर अभी यह यात्रा है, मुकाम नहीं। अभी तो सुधिजनों का काफी सहयोग लगेगा।


- निर्मला भुराड़िया

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

खुद को चूना लगाते हम लोग!

इस देश में यदि आप वीआईपी नहीं हैं तो आपका कोई काम नहीं होता। आप वीआईपी हैं तो आपके लिए कतार, सिग्नल, इंतजार, क्रमबद्धता, अनुशासन किसी की भी बाध्यता नहीं। आपको हर चीज बगैर बारी आए मिलेगी, कभी-कभी तो दूसरों के जायज हक की। मगर आम आदमी तो इतना अभिशप्त है यहाँ कि कतार में लगकर भी कभी-कभी उसकी बारी नहीं आती। कैसे? देखें एक उदाहरण। एक युवक को तत्काल वाले कोटे में उत्तर भारत के एक शहर से रिजर्वेशन करवाना था। वह तीन दिन तक रोज चार बजे उठकर टिकट खिड़की की लाइन में लगने गया। मगर नंबर नहीं आया। बाद में उसे पता चला कि यहाँ भी कोई एजेंट (?) है, जिसकी कर्मचारियों से मिलीभगत है, जो कुछ 'भेंट-पत्ती' प्राप्त करके 'आउट ऑफ टर्न' लोगों के ‍िटकट करवाता है और टर्न वाले रह जाते हैं। अपने देश के अन हालात पर हम बहुत खीझते हैं। नेताओं आदि के भ्रष्ट आचरण की निंदा भी करते हैं। और क्यों न करें, आज के नेताओं का आचरण निंदा के लायक ही है, स्तुति के लायक कहाँ। पर इन पॉवरफुल लोगों के खिलाफ हम कुछ नहीं कर पाते। 'रंग दे बसंती' स्टाइल में नेताओं को मारकर खत्म करना समस्या का इलाज नहीं है। न ही उसमें बताया यह सुझाव काफी है ‍िक युवाओं को आईएएस आदि बनना चाहिए। ऐसे आईएएस युवा भी काफी देखे, दहेज के लिए जिनकी लाखों की बोली लगती है। अत: जो कुछ हम कर सकते हैं उसकी शुरुआत समाज के स्तर पर ही करना चाहिए क्योंकि आज के भारतीय समाज का दु:खद पहलू तो यह है कि ताकतवर ही आम आदमी के दुश्मन नहीं हैं, आम आदमी ही आम आदमी का दुश्मन है। पैसे लेकर लाइन से परे टिकट देना आम आदमी का आम आदमी के प्रति भ्रष्टाचार है।
चाहे व्यवस्था से तंग आकर हुआ हो लेकिन इस युग में आम आदमी इतना अधिक मतलबी हो गया है ‍िक उसकी अपने मतलब के सिवा किसी से दोस्ती नहीं है। आम लोग एक-दूसरे को ही चूना लगाकर खुश होते हैं। दूसर के टेलीफोन से चुपचाप टेलीफोन कर लेना, दूसरे का माल हड़पकर 'स्मार्ट' होने की पदवी पाना, दूसरे के हिस्से का सामान छल से डकारकर खुश होना, हर छोटे-मोटे काम के लिए मुट्‍ठी गरम करना-करवाना आज हमारे यहाँ आम बात है। सामाजिकताओं में भी 'पहले आप' का लखनवी मिजाज, गरिमा और बड़प्पन लुप्त होता सा लगता है। 'कैसे भी पहले मैं' वाले टुच्चेपन से न किसी को परहेज है न हया। आम आदमी आम आदमी के गुणों का सम्मान नहीं करता मगर गुणरहित दौलत या सत्ताधारियों के आगे आराम से खींसे निपोरता है, हालाँकि ऐसे चमचत्व से उसे मिलता-विलता कुछ नहीं।
पॉवरफुल लोग आम आदमी को कुछ नहीं देते, खुद को फिर-फिर रेवड़ी देते हैं, खुद के ही गले में खुद हार पहनाते हैं, खुद की ही मूर्तियाँ और पोस्टर बनाते हैं, खुद के ही बाल-बच्चों को ठेके और पदवियाँ देते हैं। और आम आदमी रीढ़ बेचकर भी रीढ़ की कीमत नहीं पाता। अत: शुरुआत समाज और परिवार से ही करना होगी। समाज में अच्छे मूल्यों की पुनर्स्थापना कोरा आदर्श नहीं, बल्कि आदर्शवाद तो समय की माँग है, ताकि अन्याय और भ्रष्टाचार रहित शांत और खुशहाल समाज की स्थापना हो सके।

- निर्मला भुराड़िया

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

तावीज

श्रीमद्‍ भगवतगीता एक ऐसा ग्रंथ है, जो पलायन के बजाए कर्म की सीख देता है। एक ऐसा दा‍र्शनिक ग्रंथ ‍िजसे पढ़कर ग्रहण करने और चिंतन-मनन करने से जीवन को देखने के लिए नई आँख मिलती है। जब जीवन-दृष्टि बदलती है तो निश्चित ही जीवन के छोटे-मोटे सुख-दुख, चिंताएँ और तुच्छ अहं व्यर्थ नजर आते हैं। अत: इससे जो समभाव की प्राप्ति होती है, वही मनुष्य को शांति की ओर ले जाती है। यानी गीता से प्राप्त आत्मशांति गहन पठन-पाठन मनन की प्रक्रिया से जुड़ी है।

श्रीमद्‍ भगवतगीता कोई टोटका नहीं, जिसका तावीज पहनकर आत्मशांति को प्राप्त कर लिया जाए। लेकिन ऐसा भी होता है! पिछले ‍दिनों अखबारों में छपे ऐसे ही एक मसौदे पर नजर गई, जिसमें आत्मशांति के लिए श्रीमद्‍ भगवतगीता के अठारह अध्‍यायों और सात सौ श्लोकों का बना तावीज प्रदान किए जाने की सूचना है! हमारी यह पुरानी मानसिकता है। बगैर अर्थ समझे श्लोक रटने वाला भी अपने आपको गीता-ज्ञानी कहने में संकोच नहीं करता। पोथियों में पड़े ज्ञान को ग्रहण करने के बजाए हम 'पोथी-पूजा' नामक कर्मकांड को अंजाम देते हैं। पोथियों पर कूंकू, फूल, पैसा चढ़ाकर घर लौट आते हैं या पोथी घर में हो तो लाल कपड़ा लपेट कर उसे पूजा-घर में रखकर उसके सामने अगरबत्ती जला देते हैं! फल की इच्छा न रखने वाले निष्काम कर्मयोग की ‍िशक्षा देने वाली गीता को सुख, समृद्धि, स्वास्थ्‍य आदि फलों की इच्छा में (बगैर कर्म ‍िकए) तावीज बनाकर गले में डालना सचमुच स्तब्धकारी है। इंटरनेट पर गीता कई वेबसाइट्‍स पर उपलब्ध है यानी दुनिया गीता पढ़ेगी और हम उसका तावीज बनाकर पहनेंगे!

ज्ञान कोई घोलकर पी जाने की चीज नहीं ‍िक ‍िदमाग के दरवाजे बंद किए और हलक में उतार लिया। मगर कुछ हमारी पुरानी चली आ रही मानसिकता और कुछ आज की नकल संस्कृति हमें डिग्रियों के भी तावीज ही तो दे रही है, जो सिर्फ गले में लटकाए घूमने के लिए हैं। ऐसे खरीदी और जुगाड़ी गई डिग्रियों का योग्यता और ज्ञान से क्या वास्ता?

- निर्मला भुराड़िया

सोमवार, 23 अगस्त 2010

आजाद सुंदरी

'लड़कियों के दुबलेपन का एक आवश्यक सामाजिक आग्रह होना न सिर्फ एक सामाजिक सनक है, बल्कि एक बंधन है, क्योंकि इसमें सुंदर होना भी समाज की आज्ञाकारिता की तरह है, स्त्री की चाहत के ‍िलए नहीं'- यह कहना है नाओमी वूल्फ का। सच कहती हैं वूल्फ। पिछली सदियों में तो अधिकांश देशों में स्त्री को सुंदर बनना पड़ेगा यह अलिखित सामाजिक आदेश रहा है। और इस आदेश की पूर्ति के लिए स्त्रियों को तरह-तरह की यातनाएँ भी सहना पड़ी हैं। चीनी लेखिका युंग-चांग लिखती हैं ‍िक उनकी दादी के काल तक भी चीनी लेखिका युंग-चाग लिखती हैं कि उनकी दादी के काल तक भी चीन में ‍िस्त्रयों के छोटे-तीन इंच के पैरों को खूबसूरत माना जाता था। बच्ची दो साल की हुई ‍िक अँगूठे के अलावा उसके पैर की सब उँगलियों को मोड़कर बीस फुट लंबे सफेद कपड़े से बाँध दिया जाता था। एक बड़ा पत्थर उभरे हुए हिस्से को कुचलने के लिए पैर पर रखा जाता था। हड्‍डियाँ कुचलने के बाद भी मोटे कपड़े से तो पाँव को ‍िदन-रात बाँध रखा जाता था, क्योंकि कपड़ा खोलते ही पैर बढ़ने लगते.... और यह प्रक्रिया बार-बार दोहराई जाती थी ताकि पैर तीन इंच रहें। लड़की की शादी होने के लिए ये तीन इंच के पाँव जरूरी थे, क्योंकि यह माना जाता था ‍िक तीन इंच के ये सोने के फूल (यानी पाँव) पुरुषों पर उत्तेजक प्रभाव डालते थे। माँ-बाप भी रोती-चिल्लाती बच्चियों को यह मानकर यातना देते रहते कि यह वे लड़की के भविष्य के लिए उसके भले के लिए ही कर रहे हैं।

विक्टोरियन काल के योरप में लड़कियों का नाजुक और दुबली ‍िदखना आवश्यक था। इसके ‍िलए वे फ्रॉक के भीतर कॉरसेट पहनती थीं, जो भारी कैनवस और व्हेल की हड्‍डियों का बना होता था, जिससे महिलाओं का जिस्म एक तरह के ‍िपंजर में ही सीमित रहता था और उसी में विकसित होता था। तीन-चार साल की बच्चियों को ही कॉरसेट पहनाना शुरू कर ‍िदया जाता था, ताकि उनकी कमर 17 इंच की ही रहे! उस काल में यह माना जाता था ‍िक बड़े घर की औरत की नजाकत यह है कि वह बगैर सहायक के चल भी न पाए! और कॉरसेट इस बात को शब्दश: सत्य कर देता था। क्योंकि इन्हें पहनने वाली महिलाएँ नाजुक तो क्या कहें इतनी कमजोर और भुरभुरी हो जाती थीं ‍िक वे कॉरसेट के सहारे के बगैर ठीक से खड़ी भी नहीं हो पाती थीं। पुराने रोम और ग्रीस में भी कॉरसेट चलते थे, ‍िजन्हें पहनना स्त्रियों की एक तरह की सामाजिक आज्ञा थी। इन कॉरसेटों से उन्हें पुरुष की मुट्‍ठियों में आ जाने वाली कमर तो मिलती थी पर साथ में मिलती थी बीमारियाँ भी इससे उनके फेफड़े, लीवर, आमाशय, आँतें और ब्लैडर पिचक जाता था और शरीर का तंत्र ठीक से काम नहीं करता था। और भी कई जनजातियों यहाँ तक कि सभ्य समाजों में स्त्री को सुंदर बनाने के ‍िलए निचले होंठ को छेदकर उनमें बालियाँ लटकाना, गर्दन में नलीदार पाइप पहनाए रखना, पाँवों में भारी-भरकम कड़े डालना सामाजिक रस्म की तरह ‍िकया जाता रहा है।

समय के साथ इनमें से अधिकांश परंपराएँ समेट भी ली गई हैं। लेकिन यह अदृश्य कॉरसेट अब भी है, ‍िजसमें कैद स्त्री सोचती है कि उसकी कमर 26 इंच की नहीं तो वह सुंदर स्त्री नहीं है, क्योंकि वैश्विक समाज ने यह तय कर दिया है कि 36-24-36 के साथ 45 किलो वजन और पाँच फुट दस इंच हाइट वाली स्त्री ही सुंदर स्त्री कहलाने की कहदार है। आज की स्त्री को चाहिए कि इस अदृश्य कॉरसेट को ठुकरा दे और उतनी ही दुबली हो जितनी वह नस्लगत और स्वाभाविक तौर पर हो सकती है। ‍िजतना ‍िक उसका स्वास्थ्य गवारा करे। उतनी ही पतली कमर अच्छी होगी ‍िजतनी कि ‍िकसी भी लड़की के व्यक्तिगत स्वाभाविक फ्रेम के अनुकूल होगी। अपने शरीर के अनुपात से ‍िकतने इंच की कमर में आप सुंदर लगेंगी, यह आप तय कीजिए, समाज को मत करने दीजिए। तभी आप वह सुंदरी होंगी, जो एक आजाद सुंदरी है।

- निर्मला भुराड़िया

शनिवार, 14 अगस्त 2010

ओछी बोली, छोटा सोच

हिन्दी साहित्य में इस वक्त एक शब्द को लेकर बेहद हंगामा मचा हुआ है। महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति और साहित्यकार विभूति नारायण ने ज्ञानपीठ से निकलने वाली पत्रिका नया ज्ञानोदय को दिए एक इंटरव्यू में कहा है कि हिन्दी की महिला लेखिकाएँ अपने लेखन में खुद को एक-दूसरे से बड़ी छिनाल साबित करने में लगी हैं! यहाँ महिला के लिए ऐसे विशेषण को किसी और के उदाहरण से उद्धृत करने में हाथ काँप रहे हैं, पता नहीं बोलने वाले की ऐसी हिम्मत कैसे हुई। शायद इसलिए कि कतिपय लोगों को महिलाओं को ऐसे विशेषणों से नवाजने की आदत है। इसके लिए न उनको दोबारा सोचना पड़ता है, न ही उनकी जुबान काँपती है। छिनाल, रखैल, कुलटा, कुलबैरन, कर्कशा, डायन, कलंकिनी, सौतन जैसे विशेषणों की रोजमर्रा की बोली में भरमार है। रखैल और सौतन का पुलिंग आपको कहीं नहीं मिलेगा।

भाषा में यह लैंगिक पूर्वाग्रह दरअसल उस पूर्वाग्रह युक्त सामाजिक प्रवृत्ति की ओर ही इशारा करता है, जहाँ पुरुष के सौ खून माफ हैं और कुछ भी गलत होने पर ठीकरा स्त्री के सिर फोड़ने का रिवाज है। पश्चिमी संदर्भों में भी देखें तो यह माना जाता है कि आदम नर्क में इसलिए गिरा कि हव्वा ने उसको उकसाया। यानी आदम की हवस का दोष नहीं, दोष हव्वा के उकसाने का है। लेकिन पश्चिम में नारी हित समर्थकों और नारीवादियों की लगातार पहल के बाद जेंडर न्यूट्रल भाषा के प्रयोग पर जोर दिया जाने लगा है और जेंडर न्यूट्रल व्यवहार को भी बढ़ावा दिया जा रहा है, ताकि लिंग भेद व्यवहार से उत्पन्ना होकर भाषा में न झलके। गैर बराबरी को दूर करने के लिए चेयरमैन, फायरमैन, स्टेवार्डेस, स्पोर्ट्‌समैन की जगह चेयरपर्सन, फायरफाइटर, फ्लाइट एटेंडेंट, एथलीट जैसे शब्द वापरे जा रहे हैं। एक्टर, डॉक्टर जैसे शब्द दोनों जेंडर के लिए हैं। अब कोई एक्ट्रेस नहीं कहता।

स्टेट्समैन को पॉलिटिकल लीडर कहा जा रहा है। मार्च २०१० में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने अपनी कार्रवाई से "चेयरमैन" शब्द बाहर कर दिया। उसकी जगह संबोधन हेतु "चेयर" शब्द का उपयोग होगा। ऐसा कॉमन्स लीडर हैरियट हरमन के प्रस्ताव पर किया गया, जिनका कहना था चेयरमैन शब्द पुरुषवादी है। ९० के मुकाबले २०६ मतों से यह प्रस्ताव पारित किया गया! हालाँकि हमारे पास राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के लिए कोई विकल्प नहीं है, जब यह शब्द अवतरित हुए तब शायद यह नहीं सोचा गया कि कोई महिला भी कभी ऐसे पद को सुशोभित करेगी। जो भी हो अब इसी को जेंडर न्यूट्रल शब्द की तरह चलाया जा सकता है और चलाया जा भी रहा है। लेकिन, एक चीज है जो अब चलाई नहीं जा सकती या चलने नहीं दी जाना चाहिए। वह है महिला के लिए विशेष तौर पर गढ़े गए आपत्तिजनक, पूर्वाग्रहयुक्त विशेषण। आप जेंडर न्यूट्रल हों यह तो बाद की बात है। पहले इतने सभ्य और सुसंस्कृत तो हों कि भाषा में शालीनता की सीमा न लाँघें, स्त्री को कमतर, बदतर समझना छोड़ें। औरत को कुछ भी कह लो, क्या कर लेगी यह सोचने वालों को सही सबक देने का समय अब आ गया है।

- निर्मला भुराड़िया

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

चश्मे वाली!

'चश्मा?'
जैसे ही लड़की चाय की ट्रे केसाथ कमरे में प्रवेश करती है, उसे देखने आए लड़के वाले चौंकते हैं उसकी आँखों पर चश्मा देखकर! जाहिर है वे चश्मा देखकर लड़की को रिजेक्ट करने के मूड में हैं। लड़की की आँख पर चश्मा उनकी नजर में भारी अवगुण है!

मगर लड़की बेहद स्वाभिमानी, स्वावलंबी और आत्मविश्वासी है। चूँकि उसके नकली अवगुण पर लड़के वाले इसलिए खुलकर अपमानजनक ढंग से आपेक्ष कर रहे हैं कि वे लड़के वाले हैं और इस नाते खुद को बड़ा मान रहे हैं अत: वह इस झूठे आक्षेप को गर्दन झुकाकर स्वीकार नहीं करती। वह तड़ातड़ लड़के की पोल खोलनी शुरू कर देती है कि कैसे बह परीक्षा में नकल करता था, लड़कियों को छेड़ता था। और होस्टल के चक्कर काटते हुए पिटा भी था।

लड़की की बातें इतनी सत्य थीं कि चारित्रिक रूप से ढुलमुल मगर दब्बू लड़का इसके अलावा और कुछ बोल ही नहीं पा रहा था ‍िक 'बाबूजी घर चलिए', 'बाबूजी घर चलिए।' इस नाटक में लड़का बने पात्र की पीठ थोड़ी झुकी हुई भी बताई गई थी यानी लड़का सीधा तनकर नहीं बैठा था। उसका यह झुककर बैठना बड़ा प्रतीकात्मक था। प्रतीक यह कि लड़का स्वभाव व गुणों से रीढ़वाला नहीं था और लड़की चश्माधारिणी थी तो क्या हुआ बुद्धिमान और साहसी थी।

स्कूल में 'रीढ़ की हड्‍डी' एकांकी हमें कोर्स में चलता था। मगर हमारी शिक्षिकाएँ हमसे इन तरह के कोर्स के नाटक व स्कूल की लाइब्रेरी से अन्य कई कहानियों पर आधारित नाटक तैयार करवाती थीं, हर शनिवार प्रार्थना हॉल में होने वाली बालसभा में मंचित करने के लिए। यह नाटक मैडम श्रीमती उषा चौकसे ने तैयार करवाया था। उषाजी हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकार हरिकृष्ण प्रेमी की सुपुत्री तो हैं ही साथ ही उन्होंने अँगरेजी साहित्य में भी मास्टर्स डिग्री ली है। अत: वे हमें हिन्दी और अँगरेजी दोनों ही पढ़ाती थीं और पाठ्‍येतर गतिविधियों में भाग लेने को भी प्रोत्साहित करती थीं। नाटक में झुककर बैठने वाले लड़के का रोल मेरी मौसेरी बहन शीला दीदी ने किया था। लड़के का रोल करने के लिए उन्होंने अपनी लंबी चोटी गर्दन की तरफ से कोट में डालकर छुपाई थी, जिससे रीढ़ के झुके होने का आभास और भी प्रबल होता था।

हम लोग दीदी को इस बात के लिए अब भी कभी-कभी चिढ़ा देते हैं। खैर! यह नाटक और भी बातों के लिए याद आता है, जैसे 'चश्मा?' लड़की के चेहरे पर चश्मा देखकर विवाहाकांक्षियों का वैसे ही चौंकना। चाहे वे मन ही मन चौंकें या ऊपर से।

समझ नहीं आता लड़के और लड़की के बीच होने वाले भेदभावों की अनंत कड़ियों में यह मुआ चश्मा अब तक क्यों शामिल है। लड़के के चेहरे पर चश्मा हो तो खास गौर नहीं किया जाना और लड़की के चेहरे पर चश्मे को बदसूरती में गिना जाना निश्चित ही लैंगिक भेदभाव की श्रेणी में आता है। आज भी खूबसूरत मॉडल मोना को बदसूरत लड़की से खूबसूरत लड़की में तब्दील किया गया था तो चश्मा उतारकर ही किया गया था! इस चश्मापुराण का नतीजा यह होता है कि आज भी चश्मा पहनने वाली किशोरी जब शादी की उम्र में कदम रखती है तो माँ-बाप को चिंता सताने लगती है कि अरे! हमारी बेटी तो चश्मे वाली है। कुछ माँ-बाप यह भी सोचने लगते हैं- लड़की को कांटेक्ट लैंस लगवा देंगे। यह सोचे बगैर कि यह एक ऐसा विकल्प है जो जरूरी नहीं कि सबको सूट करे। और सूट न करे तो ‍िफर यह फैशन नहीं मजबूरी हो जाती है। हमारा समाज अपनी बच्चियों को 'लड़की होने' की इन मजबूरियों से कब मुक्त करेगा?

दरअसल विकल्प है सोच का बदलना। चश्मा कोई हौवा नहीं है, न ही बदसूरती का प्रतीक। बस इतना अवश्य किया जा सकता है कि अपने एस्थेटिक सेंस, अपने सौंदर्यबोध का उपयोग करते हुए कोई प्यारी सी फ्रेम सिलेक्ट कर ली जाए, जो आपके व्यक्तित्व पर फबती है। फिर वैसे ही आत्मविश्वास से उसे पहना जाए जैसे आप घड़ी पहनती हैं या अपना पसंदीदा पर्स डुलाती पार्टियों में ‍िशरकत करती हैं। और सच कहें तो अपनी बच्चियों को भी यह बताएँ कि आत्मविश्वास से सुंदर कोई गहना दुनिया में नहीं है।

- निर्मला भुराड़िया

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

जात-पॉंत पूछे सब कोई!

'मीना का अपहरण हो गया है.... वो देखो वो सफेद मारुति कार वाले उसे जबर्दस्ती बिठा ले गए...' उनके ऑफिस का वह लड़का अपनी कार में से ही चिल्लाया। उसके चिल्लाने पर ऑफिस से दो लोग और उनकी कार में सवार हुए... और आगे वाली कार के पीछे लग गए। इस बीच एक ने अपने सेल्यूलर का इस्तेमाल करते हुए पुलिस को फोन कर दिया...।

अपहरणकर्ता पकड़े गए। पर इस फिल्मी किस्से की सनसनी तो किसी सनसनीखेज फिल्म से भी बढ़कर निकली। दरअसल मीना का अपहरण तो उसके पिता ने ही करवाया था! मीना के चचेरे भाई और उसके दोस्तों ने मीना के पिता द्वारा नियोजित योजना के तहत ऑफिस आ रही मीना को अपहृत कर लिया था। यह सारा कांड इसलिए किया गया था कि ठाकुर मीना ने अग्रवाल समुदाय के एक लड़के सुनील को जीवनसाथी चुनने का फैसला लिया था। वह तो बीच में पुलिस आ गई वरना मीना के पिता की इससे आगे की योजना सुनील पर जानलेवा हमला करवाने की थी! इतना गहरा पैठा है जात-पॉंत का विचार हिन्दुस्तान में। बाहरी लोग समझते हैं कि हमारा सम्प्रदायवाद हिन्दू-मुस्लिम जैसे दो बड़े खेमों में बॅंटा है। अब सोचिए क्या कोई बाहर वाला समझ पाएगा कि जब मीना और सुनील दोनों ही हिन्दू थे तो उनके विवाह में क्या अड़चन थी?हिन्दुस्तान में जातियों का यह गणित और भी कई जटिल खेल खेलता है। एक निर्धन व्यक्ति को हृदय का ऑपरेशन करवाना था। कुछ सहृदय लोगों ने इस हेतु मदद के लिए एक सेवाभावी संस्थान से सम्पर्क किया। पर "सेवाभावी' संस्थान ने इस बिना पर मदद से इंकार कर दिया कि वह निर्धन व्यक्ति उनकी जात का नहीं था!

इसी तरह घर में पुरखे का श्राद्ध है और किसी भूखे को भोजन की तृपित देकर पुरखे की आत्मा तृप्त करनी है तो उसके लिए "भूखा' आदमी नहीं ढ़ूँढा जाएगा! घरेलू सेवक दोपहर तक भूखा ही काम करता रहेगा और श्राद्धपक्ष होने की वजह से दो जगह और जीमकर आया ब्राह्मण सबसे पहले जिमाया जाएगा। और यह बात इतनी सामान्य बनकर हमारी परंपराओं में घुल-मिल गई है कि ऐसी विडम्बनाओं पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता। ध्यान चला भी जाए तो वह ध्यान दिलाने का दुस्साहस नहीं कर पाएगा, क्योंकि ऐसी रूढ़ियों पर उँगली उठाना ब्लास्फेमी कुफ्र या ईश-निंदा की श्रेणी में रख दिया जाता है। और हमें नई समय-काल परिस्थिति के अनुसार अपने को बदलने की कोई चिंता नहीं है, भले फिर हमें उसके राजनीतिक खामियाजे ही क्यों न भुगतना पड़ें। जी हॉं, राजनीतिक खामियाजे! जातियॉं हमारे दिमाग में इस तरह ठसी हैं कि हिन्दुस्तान में बहुत बड़ा तबका जातियों के आधार पर वोट देता है। जातियों को ध्यान में रखकर उम्मीदवार तय किए जाते हैं। व्यक्ति के कार्य के आधार पर और देश के विकास की बुनियाद पर वोट पड़ने में जातियों का यह गणित भी यदि सबसे बड़ी नहीं तो बहुत बड़ी अड़चन तो है ही। अतः जब तक समाज नहीं बदलेगा देश कैसे बदलेगा?

जब हम धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं तो सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम की बात ही नहीं होना चाहिए। हमारे फैसले समुदाय निरपेक्ष होने चाहिए। ब्राह्मण, कुर्मी, जाट बिरादरी की बात करने वाले नेता लोग धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देते हुए बड़े अजीब लगते हैं। और जब हम धार्मिक होते हैं, तब भी "हिन्दू हित' या "मुस्लिम हित' की बात क्यों करते हैं? "मानवहित' की बात क्यों नहीं करते? क्या सच्चा धर्म मानव धर्म नहीं है? क्या किसी के भी "अवतार' या "पैगम्बर' या "प्रोफेट' यही कुछ बताकर नहीं गए होंगे? केवल अपने "जात' के आदमी की ही मदद करना ऐसा शायद किसी ईश्वर ने नहीं कहा होगा। वैसे कहा यह गया है, "जात-पॉंत पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि को होई।' मगर अब तो आलम यह है "जात-पॉंत पूछे सब कोई, होय आम जन या नेता होई।'

- निर्मला भुराड़िया

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

खीर का कटोरा!

पंडितजी की खीर का कटोरा उस परिवार में पहले अलग ही रखा जाता था, क्योंकि छोटी कटोरी से पंडितजी का काम नहीं चलता था। अत: वह बड़ा कटोरा उन्हीं के लिए रखा गया था, जो श्राद्ध-पक्ष में ‍िनकाला जाता था। इस बड़े कटोरे में खीर प्राप्त कर लेने के बावजूद यदि थोड़ा आग्रह-मनुहार किया जाए- जो कि परंपरा के अनुसार किया ही जाता था- तो पंडितजी थोड़ी और खीर ग्रहण कर ही लेते थे। मगर जब पिछली बार पंडितजी उस परिवार में आए तो उन्होंने 'थोड़ा-और' का आग्रह नहीं स्वीकारा। कहने लगे, 'जजमान अब हमारी अवस्था हो गई है। अब हम उस तरह नहीं खा-पी सकते।' जजमान ने अब पंडितजी के साथ आए उनके पुत्र की ओर मनुहारपूर्वक रुख किया। उसने कुछ कहा नहीं, बस संकोचपूर्वक अपनी हथेली खीर की कटोरी पर रख दी ताकि अब और न परोसी जाए। उसे मौन देख पंडितजी ने ही कहा- 'भई, हम तो साइकल पर आते थे तो सब पचा लेते थे पर अब इसके पास तो मोपेड है.... फिर यह शर्माता भी है। हम बड़ी मुश्किल से इसे यहाँ लाए हैं....।' असल बात भी पंडितजी ने साइकल वाली बात के पीछे-पीछ बता ही दी थी। सच ही है, वर्ण व्यवस्था के हिसाब से जब कर्म विभाजन नहीं है, जब व्यक्ति आधुनिक शिक्षा प्राप्त है और अनी रोटी (या खीर-पूरी) खुद कमा सकता है, तो यह अब पूरी तौर पर संभव है कि जजमान के यहाँ सिर्फ किसी एक खास जाति का होने की वजह से श्राद्ध-जीमने जाना उसे सहज न लगे। एक तो किसी के यहाँ भोजन पर जाना फिर 'ब्राह्मण: भोजन: प्रिया:' या भोजन-भट्‍ट जैसी उपाधि पाना किसे रुचेगा? जाहिर है श्राद्ध में 'जीमने' के लिए इस खास जाति के उम्मीदवार अब कम हो गए हैं। लेकिन कर्मकांडों के पूर्ववत चलने की वजह से श्राद्ध-पक्ष में उनकी डिमांड अब भी काफी है। नतीजा? अखबारों में इस तरह के विज्ञापन देखने को मिल रहे हैं कि 'श्राद्ध-पक्ष में ‍िजमाने को 'इतने-इतने' बटुक उपलब्ध हैं- भोजन कराना है तो फलाँ-फलाँ नम्बर पर, फलाँ-फलाँ संस्था से सम्पर्क करें।'

कितने लोग हैं जिन्होंने ऐसी सूचनाओं में छुपी विडम्बना और हास्यास्पदता को पकड़ लिया होगा? अगर पकड़ लिया है तो फिर इसका इलाज भी जरूरी है। अब समय बदल गया है। अब 'एक साहूकार के सात बेटे थे' और 'एक गाँव में एक दरिद्र ब्राह्मण रहता था' जैसी कहानियाँ अति-प्राचीनकाल के घेरे में आती हैं। अब न साहूकार के सात बेटे हैं न ब्राह्मण के साथ दारिद्रय शब्द पूँछ की तरह लगा है या जोंक की तरह ‍िचपटा है। क्योंकि अब यह नहीं है कि ब्राह्मण आदमी केवल ज्ञानार्जन ही करेगा या रीति-रिवाज ही सम्पन्न कराएगा। वह अपने नैसर्गिक रुझान के अनुसार कोई अन्य व्यवसाय भी चुन सकता है। फिर समाज द्वारा अपने पुरखों की स्मृति में ‍िजमाने के लिए 'ब्राह्मण' को ही ढूँढ निकालने और जिमाने की जिद क्यों? ऐसे और भी वंचित हमारे वर्तमान सामाजिक परिवेश में हो सकते हैं, जिन्हें प्रेमपूर्वक भोजन उपलब्ध कराने पर आपके पुरखों की आत्मा के साथ ही साथ उस वंचित की स्वयं की आत्मा भी तृप्त होगी!

-निर्मला भुराड़िया

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

'उपवास का नया पैटर्न'

पुण्य के निमित्त उपवास करने वाले यह कहते नहीं अघाते कि उपवास धार्मिक ही नहीं एक वैज्ञानिक प्रविधी भी है, जिसे हमारे पूर्वजों और ऋषि-मुनियोंने अच्छे स्वास्थ्य के लिए ही निर्मित किया था। लोगों का ऐसा समझना 'कुछ हद तक' सही ही है। मगर कुछ हद तक ही क्यों? इसलिए कि सैकड़ों-हजारों साल पहले चलन में आई कोई भी चीज जरूरी नहीं कि आज के हालात में भी अक्षरश: सही बैठे। योरप, एशिया, ऑस्ट्रेलिया,अरब देशों आदि के ट्रेडिशनल विस्डम यानी पारम्परिक ज्ञान पर गहरा अनुसंधान करने वाले अनुसंधानकर्ता एवं लेखक स्टेन गूश कहते हैं कि कुछ चीजों में पारम्परिक ज्ञान की गहरी वैज्ञानिकता देखकर सचमुच चमत्कृत हो जाना पड़ता है, जैसे मध्ययुगीन योरप के कुछ इलाकों में एक खून पीने वाली चुड़ैल का अस्तित्व माना जाता था,जो कि लहसुन से डरती थी! यानी मान्यता थी कि लहसुन घर में रखो (यानी भोजन में इस्तेमाल करो) तो चुड़ैल नहीं आएगी! गूश कहते हैं आगे की वैज्ञानिक सदियों में पता चला लहसुन का प्रयोग दिल के मरीजों के लिए अच्छा है। लेकिन गूश आगे यह भी कहते हैं कि सारे के सारे पारम्परिक ज्ञान पर यह बात लागू नहीं होती। क्योंकि प्रथम तो पारम्परिक ज्ञान स्मृति की भी स्मृति है (ए मेमोरी ऑफ ए मेमोरी)। फिर कुछ पारम्परिक रूपों को समय-काल के साथ बदला जाना चाहिए, ज्यों का त्यों नहीं अपनाना चाहिए। क्योंकि कुछ भी अपरिवर्तनीय नहीं है।

खयाल आया कि स्टेन शूग के विचारों को हम अपनी उपवास संबंधी पद्धतियों पर लागू क्यों न करें? सच तो यह है कि किसी तिथि, त्योहार पर उपवास करने से बेहतर है व्यक्ति अपनी उम्र, अपनी बीमारी, अपनी दैहिक संरचना के हिसाब से यह तय करे कि उसे क्या खाना है, क्या नहीं खाना है? कब खाना है, कितनी मात्रा में खाना है। और कुछ बीमारियों में तो व्यक्तियों को चिकित्सक द्वारा सुझाई किन्हीं चीजों का 'सदा का उपवास' भी करना पड़ सकता है। उपवास शब्द का सही अर्थ और सही परिभाषा भी यही है। किसी खास दिन साबूदाना खाकर दिन निकाल देना उपवास नहीं है। न ही किसी खास त्योहार पर अन्न को छूना भी मना है जैसे पाप बोध से ग्रसित होना उपवास है। उपवास का अर्थ है संयम। अपनी देह को स्वस्थ रखने के लिए अति आहार, असमय आहार और अखाद्य आहार पर संयम।

तो चलिए, सोचें क्या नए जमाने का व्रत कुछ इस तरह डिजाइन हो सकता है कि मधुमेह वाले लोग जलेबी, गुलाब जामुन आदि मिठाइयों का संयम करें, ब्लडप्रेशर वाले नमक,अचार,पापड़, सेंव का। माइग्रेन वाले गरम कॉफी, पनीर,चॉकलेट का संयम करें,बढ़े कोलेस्ट्रॉल वाले घी, तेल, मक्खन आदि फैट का। बढ़ते बच्चे को; खासकर किशोरियों को माँ-बाप धार्मिक उपवास करने का दबाव डालने के बचाए बताएँ कि वे कभी-कभार पित्जा, बर्गर, कोला आदि 'एम्टी कैलोरी' चीजों का संयम करें। पर इसलिए नहीं कि ये विदेशी हैं, इसलिए कि इनमें विटामिन, प्रोटीन आदि की पौष्टिकता नहीं,सिर्फ कैलोरी है; वह भी मोटापा बढ़ाने वाली। बच्चों को इन चीजों से दूर रखने के लिए 'संस्कृति' की रट न लगाएँ, क्योंकि आगे हमारी भी कुछ चीजें हैं जिनके 'उपवासी' आपको कभी-कभी रहना है। या कहें इन्हें आपको कभी-कभी ही खाना है। यानी माँ-बाप स्वयं पूरी,कचोरी,पकौड़ी, अति घी-तेल, मिर्च-मसाले वाले व्यंजनों के अक्सर उपवासी रहें तो अच्छा ही है। यह नहीं कि उपवास किया और कुटू की पकौड़ी खा ली। माफ कीजिए, नए समय की अवधारणाओं के अनुसार आपका उपवास इन चीजों से टूटेगा,दलिया खाने से नहीं! और आपका उपवास पौष्टिक चीजें खाने से होगा भूखे रहने से नहीं! जी हाँ, हाल ही में एक फैशन पत्रिका ने युवतियों के लिए बगैर मेकअप सुंदर लगने के लिए एक 'मिरेकल डाइट' प्रोग्राम दिया है, जिसमें गेहूँ, जुवार, बाजरा, दालें, हरी सब्जियाँ, दही, स्कीम्ड मिल्क, उगे हुए मूँग शामिल हैं। और हाँ, मुँह मीठा करने के लिए तिल की चक्की भी। अत: उपवास कर-करके अपने आपको डायटिंग पर समझने वाली महिलाओं को बाजरिए इन न्यूट्रीशनिस्ट बताया जा सकता है कि आप सिर्फ ककड़ी खा-खाकर उपवास करेंगी तो ककड़ी ही जाएँगी, उल्टे सौंदर्य खो देंगी और जिस मोटापे के लिए आप यह कर रही हैं वह और बढ़ सकता है, क्योंकि इस तरह के उपवास करने से आपका मेटाबोल्जिम बदल जाएगा। शरीर को लगेगा यह खाती नहीं तो वह फैट्‍स स्टोर करेगा और आपकी मोटापे की टेंडेंसी हो जाएगी। यानी खाइए पर सही समय पर,सही चीजें खाइए। यह उचित नहीं कि एकासना किया और एक वक्त तो गले तक गरिष्ठ भोजन किया और दूसरे वक्त खाली पेट रहे। उपवास करना ही है तो एक ही बार में ठूँस-ठूँसकर न खाने का व्रत लीजिए। नाश्ता व सादा भोजन नियत समय पर अवश्य कीजिए ताकि बार-बार छुट-पुट चीजों की ओर हाथ न बढ़े। मैदा और शक्कर जैसी चीजें कम खाइए,फाइबर डाइट बढ़ाइए।

कुछ लोग यह भी सोच रहे होंगे उपवास का संबंध तो अध्यात्म से भी है। नई पद्धति अपना ली तो अध्यात्म का क्या होगा। घबराइए मत, उसके लिए भी जगह है। इन दिनों वैज्ञानिकों द्वारा 'मूड फूड्‍स' की पूरी लिस्ट जारी कर दी गई है, जो यह बताती है कि कौन-कौन से खाद्य पदार्थ आपका मूड अच्छा करते हैं, कौन-कौन से खराब। कौन-सा भोजन आपको उत्साहित करता है और कौन-सा सुस्त बनाता है। पारम्परिक ज्ञान के प्रेमियों के लिए खुशखबरी यह है कि यहाँ नए जमाने का मूड फूड विभाजन ठीक वैसा ही है,जो हमारे यहाँ सात्विक, राजसी और तामसिक भोजन का हुआ करता था।

- निर्मला भुराड़िया