गुरुवार, 30 सितंबर 2010

विरासत में दंभ?

दुनिया के सबसे बड़े रईसों में से एक वॉरेन बफेट ने हाल ही में कहा- "दौलतमंद पालकों को अपने बच्चों के लिए उतना ही पैसा छोड़ना चाहिए, जिससे कि वे अपनी योग्यता का कार्य अच्छे से कर सकें, मगर इतना नहीं छोड़ना चाहिए कि वे कुछ कार्य ही न करें।" बफेट के ही नजदीकी एक अन्य अमेरिकी कॉर्पोरेट बिल गेट्स ने भी हाल ही में घोषणा की है कि वे अपनी अथाह, अकूत दौलत में से सिर्फ उतना ही अपने बच्चों को देंगे जितने से उनका जीवन सुगम रहे, बाकी राशि वे दान कार्यों में लगाएँगे। वॉरेन बफेट और बिल गेट्स की ये बातें सिर्फ बातें नहीं हैं। ये लोग स्वयं सादगी से रहकर वंचितों और बीमारों के लिए बहुत कार्य कर रहे हैं। इनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं है, अतः ये जो कह रहे हैं वे करेंगे भी इसका भरोसा है।

भारत में यह दार्शनिक कथन सदियों से चल रहा है, "पूत कपूत तो क्यों धन संचय, पूत सपूत तो क्यों धन संचय।" भारतीय परंपरा में दान की महिमा भी काफी है। कुछ भारतीय रईस भी ऐसे हैं जो थोड़ी-बहुत या काफी कुछ चैरिटी करते हैं। मगर भारतीय रईसों का मुख्य लक्षण दिखावा है। चलिए ठीक है सादगी करने का माद्दा और सादगी का आत्मविश्वास भी हरेक के पास नहीं होता सो रईस अपनी सुख-सुविधा पर खर्च करते हैं। बात यहीं तक होती तो भी ठीक था। भारतीय अमीर व्यक्ति यह दिखाने पर बहुत खर्च करते हैं कि वे अमीर हैं! भारतीय और अप्रवासी भारतीय रईसों की जीवनशैली बेहद आडंबर मंडित है और वे अपनी संततियों को न सिर्फ अपनी सारी संपत्ति वैसी की वैसी देते हैं, बल्कि वे अपने राजकुमारों को फूहड़ दिखावा, दौलत का अहंकार, प्रदर्शन भी विरासत में देते हैं। अपनी कार्पोरेट गद्दी तो देते ही देते हैं। टाटा जैसे उदाहरण कम ही हैं, हालाँकि वे विवाहित नहीं हैं, उनकी संतानें भी नहीं हैं, मगर उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के चयन के लिए एक समिति बनाई है, जिसमें वे स्वयं नहीं हैं। यानी वे अपने उत्तराधिकारी के रूप में किसी को थोपना भी नहीं चाहते। इसके ठीक उलट हाल है देश के राजनेताओं का। कहने को तो देश में प्रजातंत्र है, नेता जनता द्वारा चुने हुए जनता के सेवक हैं, मगर जैसे हाल ही में लालूप्रसाद यादव ने अपने बेटे की "ताजपोशी" की है, वैसे ही तमाम राजनेता जो चाहे किसी भी दल के हों, उत्तराधिकार में देश की गद्दियाँ अपने-अपने परिजनों को पूरी बेशर्मी से सौंप रहे हैं। अब क्या आशा करें? स्वयं की संपत्ति तो छोड़िए, वे तो देश को ही अपनी निजी संपत्ति मानकर व्यवहार कर रहे हैं।

बेतहाशा दौलत वालों को तो छोड़िए हमारे यहाँ सामान्य रईस भी अपने धन के उपयोग से भी ज्यादा उसके फूहड़ प्रदर्शन में यकीन रखता है। ऐसे ही एक अच्छे पैसे वाले के यहाँ कृष्ण-जन्म उत्सव मनाया जा रहा था। बैंडबाजे, कृष्ण की मूर्ति के लिए रेशम के वस्त्र, चाँदी की बाँसुरी, असली रत्नों के गहने तो थे ही, उन्होंने उत्सव के बाद काजू वर्षा की। गृहस्वामी ने कृष्ण रूप में सजे अपने पाँच वर्षीय पुत्र को गोद में लिया, एक बड़े बर्तन में काजू, किशमिश, मखाने लिए और गोदी में चढ़े अपने पुत्र के हाथों व स्वयं मेवे उछाले और बिखेरे। वे मेवे आने-जाने वालों के पाँव में आते रहे। एक अतिथि ने ऐतराज किया पर वे माने नहीं। इन्हीं सज्जन की सदा हीरों से लदी रहने वाली धर्मपत्नी अपने घरेलू सेवक की बच्ची को कभी काजू का एक टुकड़ा नहीं देती। यह कैसा धर्म उत्सव है जिसमें मानव धर्म ही नहीं। लोगों को खाने को नहीं और बेशकीमती खाद्य पैरों तले कुचलने को फेंका गया, सिर्फ यह दिखाने के लिए कि देखो हमारे पास इतना है कि हम खा ही नहीं फेंक भी सकते हैं। गोद में चढ़े नन्हे पुत्र ने विरासत में क्या यही पारंपरिक दंभ और दिखावा नहीं लिया होगा?

- निर्मला भुराड़िया

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

ईश्वरों की दुनिया!

सबकी प्यारी, सबकी दुलारी, खुशमिजाज 'बिटिया' एक विशिष्ट बच्ची है। वह विशिष्ट बच्चों के लिए बने स्पेशल स्कूल में जाती है, जहाँ उसे और उसके जैसे या उससे भी अल्प विकसित बच्चों को विशेष ट्रेनिंग दी जाती है, ताकि वे शिक्षित हो सकें। अपने छोटे-छोटे काम स्वयं कर सकें। आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन के अलावा इन बच्चों को स्वयं पर गर्व करने के अवसर भी दिए जाते हैं। पिछले दिनों ऐसा ही एक कार्यक्रम था ‍िबटिया के शिक्षण संस्थान में ‍िजसमें विशिष्ट बच्चों को मंच पर अपनी प्रस्तुतियाँ देना थीं। जो बच्चे मंच पर नहीं जा रहे थे, उन्हें दर्शक बनकर रंगारंग कार्यक्रम का आनंद लेना था। बिटिया बहुत खुश थी, क्योंकि उस डांस करना था। उसके मम्मी-पापा भी कार्यक्रम अटैंड करने गए थे, जहाँ वे अन्य विशिष्ट बच्चों के पालकों से भी मिले।

एक पालक ने बताया कि उनके एक नहीं बल्कि दो बच्चे अल्पविकसित रह गए। इन बच्चों में अलग-अलग दौर आते हैं, अलग-अलग मानसिक स्थिति के अनुसार। अत: कभी-कभी ऐसा भी होता है कि वे बिस्तर में ही पड़े रह जाते हैं। उन्हें नहलाना भी पालकों को ही पड़ता है। ऐसे में, अनजाने में वे मूत्र त्याग आदि भी बिस्तर में ही कर देते हैं। जब ज्यादा बीमार हो तो उन्हें बिस्तर में ही खाना भी खिलाना होता है। हो सकता है शुरू मे इस स्थिति पर पालक खीजे हों। इसे दुर्भाग्य कहकर उन्होंने कोसा हो। पर वे कहते हैं अब अपने दोनों निष्कलुष बच्चों में वे ईश्वर देखते हैं। उनकी सेवा ईश्वर की सेवा मानते हैं। एक और पिता ने बताया कि उसके दो बेटों में एक सामान्य और एक विशिष्ट है। इस धनिक पिता ने आधी संपत्ति अपने सामान्य पुत्र को दे दी, आधी विशिष्ट बेटे और उसक ट्रेनिंग संस्थान में लगाई है। यही नहीं, वे स्वयं भी एक शिक्षक के रूप में अन्य बच्चों को भी ट्रेनिंग देने नियमित नौ से पाँच प्रशिक्षण संस्थान जाते हैं। एक और विशिष्ट युवती का पूरा परिवार ही विशिष्ट बच्चों की ट्रेनिंग, शिक्षण से जुड़ गया है। ये तो वो लोग हैं, जिनके अपने परिजन इस हालात से गुजरे, मगर ऐसे भी शिक्षक, प्रशिक्षक एवं प्रबंधक हैं, जो बगैर किसी वजह स्वप्रेरणा से इस काम से जुड़े हैं।

बिटिया के पापा कहते हैं यही लोग सच्चे संत हैं, क्योंकि इनमें अपार धीरज और ‍िन:स्वार्थता है। दुनियावी फंडों को न समझ पाने वाले बच्चों को सिखाना-समझाना बेहद कठिन कार्य है। लेकिन मूक साधकों ने यह चुनौती ली है। वे यह भी कहते हैं कि और भी कई संस्थानों की आवश्यकता अभी है और इसके लिए सरकार पर निर्भरता या सिर्फ सरकार से ही अपेक्षा करना ठीक नहीं होगा। निजी तौर पर ही, समाज के लिए सचमुच कुछ करने के ‍इच्छुक लोगों को इसके लिए आगे आना होगा। वे स्वयं भी इस तरह की और संस्थाओं का अध्ययन करने गुजरात, मुंबई आदि जगहों पर जा रहे हैं, ताकि मध्यप्रदेश में भी ऐसे और उपक्रम स्थापित किए जा सकें।


यह तो संस्थान स्थापित करने जैसे बड़े प्रयासों की बात हुई। व्यक्तिगत स्तर पर भी कुछ बातें इस सन्दर्भ में गौर करने लायक हैं। जैसे-जैसे समाज में बच्चों को स्टेट सिंबल मानने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, वैसे-वैसे समाज में बच्चों को स्टेटस सिंबल मानने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, वैसे-वैसे विशिष्ट बच्चों की और फजीहत हो रही है।

कुछ माता-पिता ऐसे भी हैं, जो अपने अल्पविकसित बच्चों पर शर्माते हैं। उन्हें अपने साथ कहीं लेकर
आना-जाना तो दूर, उन्हें मेहमान आदि आने पर लगभग छुपाकर रखते हैं। उन्हें घर के दायरे में ही कैद करके रखते हैं। आखिर वे किस दोष की सजा देते हैं इन बच्चों को और स्वयं को? बच्चे का अल्पविकसित होना पालक या बच्चे की गलती तो है नहीं? बिटिया के पापा कहते हैं, 'बल्कि ये बच्चे तो ईश्वर का प्रतिरूप हैं।'


सच्ची बात है ये हमारी सामान्य दुनिया के छल, कपट, राजनीति तो जानते नहीं ना! तो फिर कुदरत की भूल के लिए हम इन निष्कलुष मानवों को सजा क्यों देते हैं?


- निर्मला भुराड़िया

सोमवार, 27 सितंबर 2010

बधाई हो बधाई!

उन्होंने अपने घर कन्या रत्न आने का समाचार दिया तो मैंने कहा- 'बधाई हो!' बधाई को टप्पे के साथ लौटाते हुए उन्होंने रूखे स्वर में कहा- 'ताना तो नहीं मार रहीं, हमको तो लड़के की आस थी।' जाहिर है सहज बधाई को उन्होंने अन्यथा लिया थ। जब आप अपने घर में नवागत के आने का समाचार दे रहे हैं तो कोई बधाई ही कहेगा, 'हाय राम ये क्या हो गया' तो न कहेगा।

अब दूसरा किस्सा। उनके यहाँ पुत्र ही हुआ था, पुत्री नहीं। अत: उत्साह भरे वे सज्जन खुद ही आए थे शुभ समाचार देने। समाचार सुनकर हमने उन्हें जैसे ही कहा, 'बधाई', तो उन्होंने अपनी उल्लासित खींसें निपोरते हुए खीसे में खुसे नोट निकालकर हमारी ओर बढ़ा दिए। 'यह क्या, नोट थोड़े ही माँगे थे, मैंने तो सिर्फ बधाई दी थी।' 'नहीं-नहीं', उन सज्जन की धर्मपत्नी यानी नवजात शिशु की दादी ने नोट वापस करते हुए मेरे खुली हथेलियों की फिर मुट्‍ठी बना दी। मेरी उँगलियों को मोड़कर उनमें नोट पुन: बंद करते हुए उन्होंने कहा, 'अरे रख भी लो, बधाई ऐसे ही दी जाती है।' ना-नुकर के बीच उन्होंने प्रथा की पूरी परिभाषा स्पष्ट की- 'इसे बधाई माँगना कहते हैं। किसी के घर बेटो हो तो अपने वाले बधाई माँगते हैं, तो उन्हें पैसे दिए जाते हैं।' अब इन्हें क्या कहें, यहाँ तो बधाई शब्द का समूचा अर्थ ही बदल गया था।
एक अन्य किस्से में वधू के लिए बरसों खोज-बीन के बाद उनके बेटे की शादी हुई थी। शादी में जाना नहीं हुआ तो घर जाकर नई-नवेली बहू के लिए बधाई दी, 'बधाई, ठीक से सब शादी-ब्याह निपट गया। आपके लड़के के लिए अच्छी लड़की मिल गई।' यहाँ भी लड़की की सास ने बधाई मानो बैरंग लौटा दी यह कहते हुए कि 'अच्छी है कि नहीं, यह तो बाद में पता चलेगा। अभी तो सब अच्छा ही अच्छा लगता है।'

एक के यहाँ बालक का जन्म हुआ। दूसरे शहर से इस शहर में आने वाले परिचित को पता चला कि उनके यहाँ नया सदस्य आया है, तो वे समय ‍िनकालकर मिलने चले गए और परिवार को बच्चे के जन्म पर बधाई दी। उनके 'बधाई' कहते ही बालक के पिता ने चुटकी ली, 'क्या मुन्ना के अंकलजी, सेंत-मेंत की ही बधाई दे रहे हो मुन्ना को।' सेंत-मेंत से नवजात बच्चे के ‍िपता का तात्पर्य था मेहमान के खाली हाथ आने से। बेचारे मेहमान अपरिचित शहर में जैसे-तैसे वाहन जुगाड़कर बधाई देने आए और पानी-पानी होकर गए।

कितनी सीधी-सादी-सी औपचारिकता है बधाई, जिसका सीधा-साधा-सा उत्तर है धन्यवाद। मगर इस सीधी-सी बात को भी हमने दुनियाभर के रूढ़िवाद, भौतिकवाद में बदलकर महज लेन-देन, दिखावा और झंझट बना लिया है। बधाई और धन्यवाद जैसी अभिव्यक्तियाँ दूसरों की खुशी में खुश होने के लिए और अपनी खुशियों में समाज को शामिल करने के लिए हैं। इनका सबंध न तानों-तस्कों से है, न तोहफों से, न ही हरे-हरे नोटों से।

- निर्मला भुराड़िया
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जैसा आए वैसा

नृत्य और संगीत भारतीय जनजीवन में हमेशा से रचा-बसा रहा है। औरतें घट्‍टी पीसतीं या धान कूटतीं तो भी गाती जाती थीं। ग्वाला सुबह दूध देने निकलता तो गाता। फकीर खंजरी बजाते, बहुरूपिए सिर पर बड़ की डाल रखकर नाचते और भिक्षाटन करते। शादी-ब्याह हो या ‍िशशु जन्मोत्सव या फिर प्रभु कीर्तन ही हो, बगैर ढोल-मंजीरे या थिरकन के हमारे यहाँ कुछ भी पूरा नहीं होता और कल क्यों आज भी पूरा नहीं होता। लेकिन नृत्य-गीत के आनंद में मन की मौज के ऊपर हाल ही के वर्षों में कृत्रिमता हावी हो गई है।

एक मालवी ग्रामीण स्त्री जो अकसर कहा करती थीं, 'बाई ढोलकी बजे तो म्हारा पाँव, रुकी नी सके।' यह स्त्री आज के माहौल में ‍िनर्मुक्त हो नाचने के लिए तरस जाती है। क्योंकि शादी-ब्याह तक में बँधी-बँधाई औपचारिक मंच प्रस्तुतियों के बीच उसे उल्लासित हो नाचने का मौका ही नहीं मिलता। यहाँ तक कि अपने पोते की शादी में ही व नहीं नाच पाई! वजह? इन दिनों शादी-ब्याह का उल्लासित नृत्य-गान भी ‍िकसने कैसे नाचा, किसने कैसी तैयारी की, किसने रिहर्सल पर ‍िकतना वक्त ‍िदया, किसने क्या परिधान पहना, किसने कैसा मंच सजाया, किसने ‍िकतने हजार का घाघरा-चुन्नी पहना जैसी प्रतिस्पर्धाओं में बदल दिया गया है। परफॉरमेंस का तनाव और अपेक्षा शादी से जुड़े नृत्य-गान के उल्लास पर इतनी हावी हो गई है कि उसने नाचने की झक सफेद उमंग को मलिन कर ‍िदया है, एक किस्म की प्रतिस्पर्धा में बदल दिया है।

लेकिन उपरोक्त परिदृश्य के विपरीत अभी एक नजदीक की शादी में बदलाव की मीठी बयार का एक झोंका महसूस किया। उन लोगों ने गीत-संगीत की एक शाम रखी थी लेकिन वह निमंत्रण-पत्र की औपचारिक सूची में नहीं थी। जाहिर है, नाच-गान और उल्लास से भरी यह शाम आमंत्रितों के लिए नहीं बेहद अपने वालों के लिए थी। मंच पर मन का उल्लास प्रकट करने के लिए भी रिश्तेदारों में से चुनकर सधे हुए, गुणवान कलाकारों की ‍िनयुक्ति नाचने-गाने के लिए नहीं की गई थी, बल्कि उन लोगों ने जैसा भी आया वैसा नाचा-गाया, जो दोस्त थे, भावनात्मकता से भरे हुए थे। सारा माहौल 'इमोशनली चार्ज्ड' हो गया। भावनाओं की बाढ़ ने नाचने-गाने का आनंद द्विगुणित कर दिया। तालियों में अश्रुकण भी शामिल हो गए। सारा माहौल उल्लास और अपनत्व से सराबोर हो गया। है न यह आज के जमाने के महिला-संगीत कार्यक्रमों के 'कठपुतली नाचों' से बेहतर! आखिर मंगल उत्सवों का नाच-गान उमंग, उल्लास और गहरी भावनात्मकता की सहज अभिव्यक्ति के लिए है। इसे हम 'तेरी कमीज, मेरी कमीज से उजली क्यों?' में क्यों बदलें?

- निर्मला भुराड़िया

रविवार, 26 सितंबर 2010

'हम दो, हमारे नौ!'

एक मंदिर के सामने एक बच्ची एक पात्र में तेल में भीगी शनिदेव की मूर्ति लेकर खड़ी थी। हर आने-जाने वाले दर्शनार्थी के आगे वह अपना पात्र कर देती थी। जय शनि महाराज, जय शनि भगवान के उद्‍घोष के साथ ही 'पैसा चढ़ाओं' शनि भगवान सब अच्छा करेंगे, जैसा कोई रटा-रटाया वाक्य बोलती थी। मगर कोई पैसा दे तो पात्र वाला हाथ पीछे करके उल्टे हाथ की हथेली आगे कर देती।... लड़की की फ्रॉक फटी और मैली-कुचैली थी, पाँव में चप्पल नहीं थी। तेल प्रेमी ईश्वर के पात्र की उस वाहिका की त्वचा और सिर के बाल इतने रुखे थे ‍िक उन्हें वह लगातार खुजाती थी...! देखकर ऐसा लगा ‍िक इससे पूछा जाए ‍िक तुम कौन हो, कहाँ रहती हो, तुम्हारे माँ-बाप कौन हैं? उससे पूछा- क्यों बच्ची तुम पढ़ने नहीं जाती? उसने कहा, 'ऐं हेंऽऽ मास्टरनी रूपे भोत माँगती हैं।' बच्ची का आशय फीस से था। अच्छा तुम ये शनि महाराज लेकर चलती हो, तुम्हारी माँ क्या करती है? 'अंडे बेचती है' बच्ची ने सपाट सहजात से जवाब ‍िदया। उसे क्या पता कि अंडे बेचने और शनि महाराज को तेल चढ़ाने में कोई विरोधाभास है। उन्हें तो जो मिल जाए वही उनके लिए काम है। अगला प्रश्न, तुम्हारे पिताजी क्या करते हैं...? खीं-खीं... वह खिसिया कर हँसती है कुछ कहती नहीं। जवाब शायद उसकी ‍िखसियानी हँसी में ही छुपा हैं- ‍िपताजी दारू पीकर घर में दंगा मचाते, धौंस जमाते होंगे और क्या? अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं क्योंकि यह आम ‍िकस्सा है। मगर अगले प्रश्न का जवाब थोड़ा अनुमानित होने के वाबजूद आसमान से धरती पर ‍िगराने वाला है। उससे पूछा- तुम कितने भाई-बहन हो तो उसने बेहिचक बताया 'नौ'। बाप रे! पूरे नौ! अब इस अज्ञान को क्या कहा जाए जिसका ‍िशकार हमारी जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा है और हम उन्हें अपनी जनसंख्या मानते भी कहाँ हैं। सिनेमा और प्रचार माध्यमों को सूट-टाई वाले महानगरीय लोगों और लंदन, न्यूयॉर्क में बसे अप्रवासी भारतीयों की ‍िववाहेत्तर संबंधों आदि से उपजी समस्याओं की चिंता है। यह देश, उसके लोग, उनके सुख-दु:ख उनकी योजना में नहीं हैं।



याद ‍कीजिए फिल्म चोरी-चोरी का वह गीत, 'छोटी-सी ये अल्टन-पल्टन फौज है मेरे घर की, साथ हमारे तोप का गोला बात है फिर क्या डर की-ऑल लाइन क्लीयर...' यह ज्यादा बच्चे वाले एक माँ-बाप का मखौल उड़ाने वाला गीत था। माँ-बाप के रूप में जॉनी वॉकर और टुनटुन जैसे समर्थ कलाकारों ने उपहास को बिल्कुल गाढ़ा बनाकर प्रस्तुत किया था। इस तरह और भी ‍िफल्मों में साठ-सत्तर के दशक के आसपास मनोरंज में गूँथकर परिवार नियोजन के संदेश दिए जाते थे। जब तक टी.वी. सिर्फ सरकारी था वहाँ भी परिवार-नियोजन कार्यक्रम योजनाओं का ‍िहस्सा हुआ करता था। प्रचार-माध्यमों के ‍िनजीकरण के बाद भारतवर्ष के लोग उनकी जनता नहीं, उपभोक्ता की श्रेणी में आ गए। अत: परिवार नियोजन संबंधी चेतना के ‍िलए वहाँ कोई जगह नहीं रह गई। जबकि सिनेमा और टेलीविजन गहरा प्रभाव छोड़ने वाले सशक्त माध्यम हैं। लगो इनका जल्दी अनुसरण करते हैं। दृश्य-श्रव्य माध्यम बगैर पढ़ी-लिखी जनता में भी चेतना जगा सकते हैं। पोलियो के ‍निराकरण के ‍िलए जब अमिताभ बच्चन और ऐश्वर्या राय निवेदन करते हैं तो आम जनता पर इसका असर पड़ता है। यह उन लोगों के ग्लैमर का सकारात्मक उपयोग है। हाल ही में बालिका भ्रूण हत्या के ‍िवरोध में भी ‍अमिताभ की छवि का उपयोग किया गया है। परिवार-नियोजन के लिए भी ऐसा ही कुछ किया जाना चाहिए। यह भारतीय समाज की प्राथमिकता है। क्योंकि अज्ञान और जनसंख्या वृद्धि एक-दूसरे के आरी-बारी आते हैं। एक के साथ दूसरा आता है और अधिक जनसंख्या और गरीबी भी एक ही चक्र में गुँथे हैं। एक के साथ दूसरा है। इस दुष्चक्र को तोड़ना हमारी प्राथमिकता होना चाहिए। प्रचार माध्यम यह गुहार सुनेंगे तब सुनेंगे। फिलहाल आम मध्यमवर्गीय गृहिणियों को यह जिम्मेदारी लेना चाहिए कि वे अपने संपर्कों में आने वाली निम्न आय वर्ग की बेपढ़ स्त्रियों में चेतना जगाने का प्रयास करें।



-निर्मला भुराड़िया

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गुरुवार, 23 सितंबर 2010

पिता का अँगूठा!

एक इतालवी फिल्म है 'लाइफ इज ब्यूटीफुल'। फिल्म एक पिता के महान त्याग और बलिदान की कहानी है। नाजी यातना शिविर में एक ‍िपता अपने बच्चे के भोले मन को लगातार दु:ख से कैसे बचाता है और कैसे अंतत: उसकी प्राण रक्षा में स्वयं के प्राणों का उत्सर्ग भी कर देता है। दरअसल पिता के वात्सल्य की कहानियाँ बहुत कम बनती हैं। खासकर जब बात पिता और पुत्र के संबंध की हो तो। शायद इसीलिए ‍िक पिता और पुत्र के बीच का रिश्ता स्नेह संरक्षण के साथ ही अपेक्षा अौर उपेक्षा का भी होता है। पिता अपेक्षा करता है, पुत्र उपेक्षा करता है। इससे एक किस्म का महीन तनाव दोनों के बीच हमेशा बना रहता है। हालाँकि ‍िजंदगी के यातना शिविर से इतालवी फिल्म की तरह ही हर पिता अपने बेटे को बचाए रखने की जुगाड़ हर वक्त करता है। पर कई बार उसका बलिदान बेटे बहुत देर से पहचान पाता है। अक्सर तब, जब वह भी ‍िपता के रूप में अपने पुत्र के समक्ष उपस्थित होता है। ‍िपता का स्नेह कई बार इसलिए भी ‍िदखाई नहीं पड़ता कि जीवन की व्यावहारिकताओं से पुत्र को रूबरू करवाने की जिम्मेदारी भी उसकी होती है। पुत्र इसे पिता की कठोरता के रूप में देखता है। नारियल के खोल के भीतर छुपे नरम वात्सल्य को कई बार वह महसूस नहीं कर पाता।

पिता और पुत्र के बीच वात्सल्य आदि जैसे रस ही नहीं बहते, एक और केमिकल वहाँ स्रावित होने लगता है। वह होता है अहं का कटुरस। हालाँकि संबंधी होने से यह अहं बढ़कर अहंकार के दंभ में परिवर्तित नहीं होता, परन्तु वे एक-दूसरे में प्रतिस्पर्धी को देखने लग सकते हैं। यह कटुता अक्सर जीवन के साथ समाप्त हो जाती है। अकबर और उनके पुत्र जहाँगीर के बारे में कुछ प्रसंग पिछले ‍दिनों पढ़ने में आए। जहाँगीर जिन्हें सलीम के ‍नाम से जाना जाता था। सलीम अकबर के प्रति विद्रोही हो गए थे। वे आगरा पर अधिकार चाहते थे। इलाहाबाद जाकर उन्होंने अपने को सम्राट घोषित कर ‍िदया और अपने नाम के सोने-चाँदी के ‍िसक्के चला ‍िदए। अकबर ने उनसे मिलना चाहा तो सलीम ने कहा- इस शर्त मिलेंगे कि साथ में सलीम की सत्तर हजार की सेना भी हो। अकबर ने इस शर्त से इंकार कर दिया। बाद में किसी वक्त सलीम अकबर के दरबार में आए तो अकबर ने व्यंग्य ‍िकया ‍िक तुम्हारे पास सत्तर हजार की सेना भी थी तो तुम अकेले क्यों आए? फिर उन्होंने सलीम के प्रति वात्सल्य दिखाया, मगर सलीम दंडवत करने को हुए तो थप्पड़ लगा ‍दिया! मगर अकबर की मृत्यु के बहुत बाद लिखी अपनी आत्मकथा में जहाँगीर ने अकबर की बेहद तारीफ की। जहाँगीर ने ‍िलखा, 'अपनी चाल-ढाल में अब्बा साधारण नहीं जान पड़ते थे, ऐसा लगता था खुदा का नूर ही सामने है।' यही नहीं रोजमर्रा के जीवन में भी जहाँगीर अकबर को अक्सर याद करता था। इतिहासकार लिखते हैं, एक बार जहाँगीर के पास काबुल से अनार और बदख्शां से खरबूज आए। फल बहुत ही उत्कृष्ट थे। उन्हें खाते हुए जहाँगीर ने पिता को याद ‍िकया 'उन्हें फलों का बहुत शौक था। ऐसे फल देखकर वे ‍िकतने खुश होते?'

एक और ‍िदलचस्प-सी बात होती है। मध्यवय का होते-होते अक्सर व्यक्ति चाहे-अनचाहे अपने ‍िपता की तरह होने लगता है। पिता की अच्छाइयाँ तो ठीक कई बार उसमें ऐसे गुण भी परिलक्षित होने लगते हैं, जिन्हें वह अपने पिता में नापसंद करता रहा हो। उसके हाव-भाव, आदतें, शरीर की मुद्रा आदि भी जानने वालों को उसके ‍िपता की याद ‍िदलाने लगती है। प्रकृति की क्लोनिंग अद्‍भुत है। पिता तो व्यक्ति के भीतर है। हमेशा जीवित, मौजूदा है। पिता तो व्यक्ति के भीतर है। हमेशा जीवित, मौजूद। शायर निदा फाजली बताते हैं कि उन्हें आराम कुर्सी पर बैठे-बैठे पैर का अंगूठा हिलाने की आदत पड़ गई। उन्होंने एक ‍िदन गौर से सोचा ‍िक ऐसा कौन करता था? उन्हें याद आया ‍िक उनके ‍िपता भी फुरसत के क्षणों में आरामे कुर्सी पर बैठकर अँगूठा हिलाया करते थे! इस बारे में निदा की एक बड़ी अच्छी कविता भी है।

तुम्हारी कब्र पर मैं फातेहा पढ़ने नहीं आया,
मुझे मालूम था तुम मर नहीं सकते,
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर जिसने उड़ाई थी
वो झूठा था।
वो तुम कब थे
कोई सूखा हुआ पत्ता हवा से ‍िहल के टूटा था।
मेरी आँखें तुम्हारे मंजरों में कैद हैं अब तक
मैं जो भी देखता हूँ, सोचता हूँ वो वही है
जो तुम्हारी नेकनामी और बदनामी की दुनिया थी।
कहीं कुछ भी नहीं बदला
तुम्हारे हाथ मेरी उँगलियों में साँस लेते हैं
मैं ‍िलखने के लिए जब भी कलम-कागज उठाता हूँ
तुम्हें बैठा हुआ मैं अपनी ही कुर्सी में पाता हूँ
बदन में मेरे ‍िजतना भी लहू है
वो तुम्हारी लग्जिशों, नाकामियों के साथ बहता है
मेरी आवाज में छुपकर तुम्हारा जहाँ रहता है
मेरी बीमारियों में तुम, मेरी लाचारियों में तुम
तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है
वो झूठा है
तुम्हारी कब्र में मैं दफन हूँ
तुम मुझमें ‍िजंदा हो,
कभी फुरसत मिले तो फातेहा पढ़ने चले आना।

- निर्मला भुराड़िया
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बुधवार, 22 सितंबर 2010

स्कूल बीमार हैं!

एक नामी-गिरामी अस्पताल से संबंधित एक बात कोई भुक्तभोगी बता रहा था ‍िक वहाँ मरणासन्न मरीजों और ठीक होने की उम्मीद न होने वाली बीमारियों के मरीजों को अधिकांशत: भर्ती नहीं ‍किया जाता! उनकी भर्ती को बहाने बनाकर टाल ‍िदया जाता है। कारण? कारण यह कि इससे अस्पताल का मोरटलिटी रेट अथवा मृत्युदर बढ़ जाती है और प्रतिष्ठा को धब्बा लगता है! है न आश्चर्य की बात। अस्पताल ही गंभीर बीमारों का इलाज न करेगा तो कौन करेगा? और प्रतिष्ठा की यह कौनसी परिभाषा है? गुडविल तो उस अस्पताल की होना चाहिए, जहाँ अच्छे से इलाज किया जाता हो। आँकड़ों पर गुडविल तौलने के परिणाम यही होते हैं।

अस्पताल ही क्यों, हमारे यहाँ के स्कूल भी इस बीमारी से ग्रस्त हैं। वे कागजती गुडविल चाहते हैं जो ‍िसर्फ सर्टिफिकेटों और आँकड़ों पर ‍िनर्भर हो। ठीक अस्पताल की ही तरह कई स्कूलों में पूर्व की कक्षाओं में सामान्य अंक प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को आगे की कक्षाओं में प्रवेश देने पर आनाकानी की जाती है। कारण यह कि अच्छे-अच्छे विद्यार्थियों को ही प्रवेश देंगे तो ‍िरजल्ट अच्छा-अच्छा ही आएगा। हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा! सवाल यह है ‍िक क्या ‍िशक्षा और ‍िशक्षक का यह कार्य नहीं है ‍िक वह कमजोर का भी भविष्य सँवारे। बल्कि कमजोर का भविष्य सँवारने पर तो अौर भी अधिक ध्यान दें। मगर यह नहीं होता। कई स्कूलों में यह भी देखा जाता है ‍िक भर्ती की अर्जी देने वाले बच्चे के माँ-बाप ‍िकतने पढ़े हैं? उन्हें कितना आता है। तो क्या जो शिक्षा से वंचित रह गए हैं उनके बच्चे भी ‍िशक्षा से वंचित रहें? यह कौन सी नैतिकता है? लेकिन शिक्षा इन नैतिक दायित्वों से काफी दूर हो गई है। एक आदर्श ध्‍येय से अधिक व्यवसाय हो गई है। अत: आधुनिक विद्यालयीन परिदृश्य में शिक्षा शुद्ध व्यवसायियों के हाथ में खेल रही है। स्कूलों के प्रबंधक सिर्फ व्यवस्था ही नहीं देखते बल्कि स्कूलों के उन दैनंदिन व्यवहारों में भी दखल करते हैं, जो ‍िशक्षकों के हाथ में होना चाहिए। बच्चों के एडमिशन, शिक्षकों आदि की नियुक्ति में भी स्कूल प्रबंधन का एकमेव निर्णय चलता है। यदि ऐसा करने से गुणवत्ता बढ़ती होती तो बात अलग थी। मगर आज परिदृश्य यह है कि ‍नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद, सस्ती राजनीति आदि चलती है। स्कूल परिसरों में छुटभैया नेता घुस आए हैं। जिनकी अर्जियों पर एडमिशन ही नहीं होते, स्कॉलरशिप्स भी मिल जाती है! अन्य फायदे भी उन बच्चों को (प्रकारांतर से उनके माँ-बाप को) दिलवा ‍िदए जाते हैं, जिनकी नेताओं तक पहुँच होती है। वंचित वर्ग के सुपात्र रह जाते हैं, क्योंकि उनका कोई राजनीतिक आका नहीं होता। बेचारे शिक्षक मुँह फाड़े देखते रह जाते हैं, क्योंकि उन्हीं के क्षेत्र में उनकी कोई 'से' नहीं होती। और बच्चे पहला पाठ पढ़ते हैं ‍िक गुरु ब्रह्मा नहीं गुरु बेचारा है! पॉवर और मनी के दबदबे का खेल बच्चा यहीं से देखना शुरू कर देता है और नोटबुक में दर्ज कर लेता है 'स्कूल सरस्वती का मंदिर नहीं है।' दरअसल सरस्वती का मंदिर तो कहीं नहीं है!

गुडविल और आँकड़ों वाली बात पर पुन: लौटें तो प्रबंधकों का शिक्षकों पर यह दबाव भी रहता है कि स्कूल से ज्यादा से ज्यादा बच्चों की मेरिट आना चाहिए। प्रथम श्रेणी पास बच्चों का प्रतिशत फलाँ-फलाँ होना चाहिए। नहीं तो शिक्षकों से तलब किया जाएगा कि ऐसा कैसे हुआ? 'हमने तो आपको सब छूट दे रखी थी।' आशय यह कि टिपाओ चाहे परीक्षा पूर्व पेपर कबाड़ लाओ। येन-केन-प्रकारेण स्कूल का रिजल्ट चमकाओ। स्कूल की पढ़ाई का तरीका, व्यवस्था, अनुशासन, नैतिक शिक्षा, बच्चे का संपूर्ण विकास इसका कोई मतलब नहीं, न ही यह तलब ‍िकया गया है। यहाँ से बच्चे को एक और पाठ ‍िमलता है। बोर्ड परीक्षा में नकल करना बुरी बात नहीं, 'अपने स्कूल' के रिजल्ट का सवाल जो है! (अपनी बारी आए तो गुरुजी खुद यही करते हैं)।

गाँव-कस्बों के स्कूलों में तो 'मास टीपण' अभियान चलता है। गुरुजी ब्लैक बोर्ड पर लिखकर भी ‍िटपा सकते हैं। स्कूलों में बच्चों के सर्वांगीण विकास और नैतिक विकास पर तरह-तरह से कुल्हाड़ियाँ चलती हैं। जैसे झूठी उपस्थिति देना। शिक्षका का कक्षा में जैसे-तैसे कोई-सा भी पाठ निपटाकर बच्चों को अपना मोबाइल नंबर दे देना, ताकि वे उसके प्राइवेट कोचिंग में आकर 'ठीक से' पढ़ें! यानी मक्कारी का लेसन मुफ्त में। ठीक है कि अकादमिक उपलब्धियों का भी महत्व है। मगर क्या इस कीमत पर कि ‍िवद्यार्थी भाषा, गणित, विज्ञान, तर्क में प्रावीण्य को ताक पर रखकर सिर्फ ‍िडग्री और अंक जुटाने में लग जाए? उसके पास किसी कला, ‍िकसी खेल से संबंधित कोई गुण हो तो वह दबा ‍िदया जाए? संस्कृति का रौब मारने वाले भारतवर्ष में ऐसा सांस्कृतिक दमन क्यों? कई देशों में खेल व अन्य गतिविधियों के भी अंक होते हैं। फिर हमारे यहाँ एक विद्यार्थी को संपूर्ण व्यक्ति बनने देने में ये बाधाएँ क्यों? इस बारे में माता-पिता, शिक्षक, प्रबंधक, समाज सभी को विचार करना चाहिए।

- निर्मला भुराड़िया
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सोमवार, 20 सितंबर 2010

राजा भिखारी...!

बचपन में एक चूहे की कविता पढ़ी थी, ‍िजसमें चूहा राजा को ताना मारता है 'राजा भिखारी मेरी टोपी छीन ली।' मगर नए जमाने के कुछ राजा तो ‍िभखारी बनने पर आमादा है, क्योंकि उन्हें ‍िभखारी बनने का शौक चर्राया है। शौकिया भिखारी बनने के वे ‍प्रतिदिन तीन हजार डॉलर यानी तकरीबन सवा लाख रुपए खर्च करते हैं। 'डीलक्स डेप्रिवेशन' यानी विलासी वंचन की कोई एजेंसी पैसे लेकर उनके लिए फटे-टूटे कपड़ों, भिक्षापात्र की व्यवस्था करती है और हाँ उनके लिए किसी गली-कूचे में जगह भी बुक करती है, जहाँ वे कृत्रिम भिखारी बनकर 'देने वाला सिरी भगवान' जैसा ही कुछ गाते हुए घूम सकें। रूस के कई अरबपति मास्को के गली-कूचों में इन दिनों भिखारीपन का आनंद लेते हुए सहर्ष घूम रहे हैं।

यह तो हुई रूस की बात, दुनिया के कई हिस्सों में, खासकर विकसित देशों में 'डीलक्स डेप्रिवेशन स्पा' खुल गए हैं, जहाँ लोग पैसा चुकाकर अपने आपको कष्ट देते हैं। इसमें बर्फ के होटल में ठहरकर ठिठुरने से लेकर स्लम एरिया में ‍िकसी झोपड़पट्‍टी में रात गुजारने तक की बातें शामिल हैं। बॉडी एंड सोल स्पा में रईस लोग तथाकथित फिटनेस वेकेशन पर जाते हैं, जहाँ वे पुराने समय की तरह पड़े रहकर मसाज या फेशियल नहीं करवाते अपितु नए ट्रेंड के अनुसार, नंगे पाँव चलते हैं; इतना कि पैर में छाले पड़ जाएँ, पहाड़ चढ़ते हैं, अलूना खाते हैं। अतिविलासी जीवन जीकर, चक माल खाकर और रोज-रोज पार्टियाँ ले-देकर ये लोग अघा चुके हैं। अति सुख-सुविधा में बोरियत पाकर अब वे आत्म-प्रताड़ना की विधाओं में पैसा डाल रहे हैं। विलासी जीवन और अति तृप्ति के तोड़ के रूप में आत्म-प्रताड़ना व आत्म-वंचन चुन रहे हैं। इसीलिए ये स्पेशल बॉडी एंड सोल स्पा अस्तित्व में आए हैं। सिर्फ शरीर के ‍िलए ‍िफटनेस की बात होती तो वे डाइटिंग और व्यायाम पर ही रुक जाते, पर वे तो अनजाने में ही 'स्वेद-कण' में स्वर्ण ढूँढ रहे हैं।

इन रईसों का मानना है कि ये संघर्षमय छुट्‍टियाँ उन्हें अस्तित्व रक्षा के ‍िलए निरंतर जद्दोजहद करने वाली इंसानी फितरत की याद दिलाती हैं, वो जद्दोजहद जो ‍िक उन्हें यूँ तो करना नहीं पड़ती और अंतत: उनका मखमल ऊब के काँटों से भर जाता है और चुभने लगता है। कुछ डीलक्स डेप्रिवेशन प्रेमी रईसों का यह मानना होता है अपने आपको थोड़ी तकलीफ देने से वे पक्के हो जाते हैं अौर उनका आत्मविश्वास बढ़ता है। कुछ मानते हैं ‍िक यह सब करके वे अपने भीतर की यात्रा करते हैं। कुछ रईस ऐसे भी होते हैं, जिन्हें 'कुछ' चाहिए होता है, मगर वह 'कुछ' क्या है यह उन्हें जीवन में 'सब-कुछ' पाकर भी नहीं मिलता तो वे 'गँवाने' के कृत्रिम क्षण निर्मित करते हैं, ताकि पुन: ‍िवला‍सिता में लौटने पर उसका भरपूर आनंद ले सकें। कुछ सिर्फ परिवर्तन की खातिर भी यह सब करते हैं।

जो भी हो इससे यह तो स्थापित होता ही है ‍िक जीवन का आनंद अंतत: परिश्रम, संघर्ष और चुनौतियों में है। ‍िजस वक्त दुनिया की सब सुख-सुविधाएँ आपके कदमों में आ जाती हैं, आपको हाथ-पैर हिलाने की भी जरूरत नहीं रह जाती, उस वक्त नींद चली जाती है। अर्थात चुनौतियाँ खत्म और बोरियत शुरू। मगर ये रईस आत्मा की रिक्ती का जो उपचार अभी ढ़ूँढ रहे हैं वह कृत्रिम है, वह आत्मा तक नहीं पहुँच सकता, क्योंकि हमारी सोल सिंथेटिक नहीं है। बजाय इसके यदि ये सचमुच के वंचितों का सामीप प्राप्त करने की कोशिश करें और जनकल्याण की योजनाओं पर अपना समय लगाए तो शायद इन्हें सच्चा सुकून मिले। दुनिया के कई धनी-मानी लोग इस तरह के फाउंडेशन चला रहे हैं। उनकी मिसाल ली जा सकती है।

- निर्मला भुराड़िया
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शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

सच कह दो और सुखी रहो!

मेरे व्यक्तिगत मेल पर एक युवती का पत्र आया है, जिसके माध्यम से उसने अपनी एक उलझन व्यक्त की है और उलझन का समाधान भी चाहा है। उसके पत्र का सार यह है कि उसकी सगाई हो चुकी है, वह एपिलेप्सी यानी मिर्गी की मरीज है। मिर्गी बिलकुल नियंत्रण में है, बस नियमित दवा लेनी होती है। मगर उसे कोई बीमारी है, यह बात भावी पति व उनके परिवार को पता नहीं है। लड़की के परिवारजनों, परिचितों, मित्रों का कहना है कि शादी तक बीमारी की बात छुपाए रखना चाहिए नहीं तो सगाई टूट जाएगी! शादी के बाद बता दें कि माइग्रेन की दवा चल रही है या पूरी बात भी पता चल जाए तो ‍िफर क्या शादी के बाद तो वो लोग समझौता कर ही लेंगे!

लड़की रिश्तेदारों के इस सुझाव से सहमत नहीं है, मगर शादी करने की इच्छा है अत: थोड़ी डगमग भी है। जहाँ तक सलाह का प्रश्न है तो उसे यही सलाह दी जा सकती है कि वह अपनी आत्मा की आवाज सुने, लालची मन की नहीं और नासमझ रिश्तेदारों की तो बिलकुल भी नहीं, क्योंकि शादी की बुनियाद ही विश्वास पर बनती है, सही तथ्य छुपाकर किसी से जीवनभर का गठबंधन करना छल की श्रेणी में आएगा। यदि वह लड़का सच जानकर भी शादी करना चाहता है तभी वह उपयुक्त पात्र है अन्यथा नहीं। नहीं तो जीवन की राह में कोई और आएगा जो आपको आप जो भी है उसके सहित प्रेम करेगा। क्योंकि प्यार में शर्त, समझौता, सौदा या धोखा कुछ भी ठीक नहीं। जहाँ तक मिर्गी का सवाल है, कोई भी समझदार आदमी समझता है कि अब यह बीमारी कोई कलंक नहीं मानी जाती, बस यह जीवन के समांतर चलने वाली एक उलझन भर है जिससे जू्झते हुए बड़े-बड़े खिलाड़ी तक सफल जीवन जी रहे हैं और खेल जैसी शारीरिक गतिविधि में करियर भी बना रहे हैं। खैर हम मिर्गी की बात एक ओर रखकर इस लड़की के पत्र के बहाने एक अन्य प्रवृत्ति पर चर्चा करें। भारतीयों का एक बड़ा प्रतिशत अरेन्ज्ड शादियाँ करता है। उसमें कुछ मामलों में आय गलत बताने, बीमारी छुपाने जैसी बातों के अलावा अनगिनत छोटे-मोटे छल ‍िकए जाते हैं, जैसे हाइट एक इंच ज्यादा बता देना (कोई इंच टेप से थोड़े नापने वाले हैं!) लड़की की डिग्री गलत बता देना (बस ग्रेजुएशन का फाइनल ही तो नहीं किया है!), दूसरे का बनाया व्यंजन लड़की ने बनाया बता देना (अपने घर जाकर रोटी जलाएगी तब देखेंगे, बता देंगे किचन में पाँव नहीं धरा!), छोटी को दिखाया बड़ी की शादी कर दी (सगाई पश्चात मिलने-जुलने के प्रोग्राम ने इस पर थोड़ी रोक लगाई है)।


ठीक है व्यक्ति उस दिन अपने सर्वश्रेष्ठ का प्रदर्शन करना चाहता है, मगर श्रेष्ठ दिखने के लिए झूठ और उधार का सहारा लेना लिजलिजेपन को जन्म देता है। विवाहरूपी कांट्रेक्ट के सील हो जाने तक हर जानकारी गलत बताना या जानबूझकर अपने जीवन की महत्वपूर्ण घटनाएँ छुपाना रिश्ते की बुनियाद ही झूठ पर रखना होगा। सच न बताना छल की श्रेणी में भी आएगा, जिसका पता चलने पर कड़ुवाहट स्वाभाविक है, जबकि सच बताने पर ऐसे ही दरियादिल व्यक्ति से रिश्ता बनने की संभावना होती है साफगोई जिसके दिल को छू जाती हो, जो सच बता देने की हिम्मत की कद्र करना जानता हो। प्रेम भी वही कर सकता है, जो आपको आपकी कमियों सहित चाहता हो, वर्ना.... कम्प्रोमाइज तो है ही पर उसमें क्या दम है? रिश्ता घसीटने के लिए रिश्ता जोड़ने का क्या मतलब?



सच कह देने में व्यक्ति की आजादी भी है। स्वतंत्र किस्म के व्यक्ति अपने सही-गलत दोनों का उत्तरदायित्व खुद लेते हैं। झूठ गुलामी है, जिसे आपने किसी अन्य को प्रसन्न करने के लिए बोला। झूठ में हर वक्त का भय है, पोल खुलने का भय, मीठी परत के कभी भी सरक जाने का भय। आप साफगो हैं तो आप आजाद और मुक्त हैं। परिणाम आप उसी वक्त भुगतने को तैयार हैं, तो परिणाम का भय
पाले रखने का तनाव नहीं। अत: बता देने में मुक्ति है, छुपाने में बोझ। पारदर्शिता इसीलिए अच्छी है।

- निर्मला भुराड़िया
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सोमवार, 13 सितंबर 2010

थर्ड जेंडर!

आम चुनाव की ‍िरपोर्टिंग का समय था। जिस वार्ड का कवरेज करना था, वहाँ किन्नरों की भी बस्ती है। जी हाँ, ये वे इंसान हैं, जो न पूरी तरह स्त्री न ही पुरुष में विकसित हो पाए। लेकिन प्रकृति के इस दोष की सजा समाज ने इन्हें दी ‍िनष्कासित करके। उस दिन उनके संसार में तनिक झाँकने का मौका मिला तो कुछ किन्नरों से बातचीत की, कुछ उनका जीवन भी देखा। वहाँ एकदम आगे के कमरे में उनकी गुरु बैठी थीं। वे चारपाई पर बैठकर माला फेर रही थीं। एक अन्य कमरे में सिर पर मेहँदी लगाए कुछ किन्नर गपशप कर रहे थे। एक अँधेरा रास्ता ऊपर जाता था, जिसके बीच में एकमजार थी। किन्हीं पूर्व गुरु की। ऊपर पहुँचकर मंदिर जैसा कोई कमरा था, जहाँ कुछ तस्वीरें और मूर्तियाँ रखी थीं। अगरबत्ती जलकर रहस्मयमय वातावरण पैदा कर रही थी। वहाँ किन्नर मालती ने बताया ‍िक उन लोगों में गुरु परंपरा होती है। गुरु ही उनकी सबकुछ होती हैं। उनका आदेश सर्वोपरि होता है। उनका घर देखकर लौटते में ओटले पर किन्नर रेखा और उषा बैठी पैर हिलाती मिलीं। रेखा से जब पूछा ‍िक वह कहाँ की है और यहाँ कैसे आ गई तो उसने कहा- वह राजस्थान के ‍िकसी गाँव की है। तीन महीने की थी तब माँ-बाप ही छोड़ गए। 'आखिर मैं उनके ‍िकस काम की थी?' रेखा शायद आगे की कहानी भी बताना चाहती थी पर पास बैठी ‍िकन्नर उषा ने कोहनी का टरका ‍िदया और फुसफुसाई- 'अखबार वाली है....' यह सुनकर रेखा चुप हो गई और जैसे अपनी ‍िजंदगी की कैफियत-सी देती हुई बोली- 'मैं बहुत खुश हूँ, हम यहाँ मजे से रहते हैं।' पर रेखा के शब्दों के पीछे से छलकती पीड़ा उसके चेहरे पर साफ देखी जा सकती थीं। उसके शब्द बाद में भी ‍िदमाग में गूँजते रहे कि मैं माँ-बाफ के ‍किसी काम की नहीं थी?

'किसी काम की नहीं थी' का क्या मतलब। पहली बात माँ-बाप को वही बच्चे प्यारे होते हैं, जो उनके ‍िकसी काम के होते हैं। दूसरी बात निर्धारित ‍िलंग का न होना मतलब यह नहीं ‍िक व्यक्ति मुख्यधारा का कोई और कार्य नहीं कर सकता। यदि रेखा या कोई और ‍िकन्नर सबके जैसे पढ़ती-लिखती या कोई सामान्य हुनर सीखती तो वह दुनिया का कोई भी सामान्य कार्य कर सकती थी। उसे नाच-गाकर और द्वार-द्वार जाकर लगभग भिक्षा की तरह शगुन माँगने की जरूरत नहीं थी। न ही अपने गाँव और परिवार से बिछुड़ने की यह कोई वजह थी ‍िक वह लड़का या लड़की नहीं है। अत: वह समाज की मुख्यधारा में आखिर क्यों नहीं रह सकती थी? इस सदी में भी हमारे ये नागरिक कबीला बनाकर रहने को ‍िववश होते हैं, क्योंकि बाहरी दुनिया उन्हें अपमान और वंचना ही देती है। उन्हें हँसी और दुत्कार का पात्र बनाती है। वही उनकी जीवन व्यवस्था है अत: वे भी कमाई के लिए कभी-कभार शगुन माँगते-माँगते रुपए ऐंठने या ध्‍यानाकर्षण के लिए फूहड़ हरकत करने पर उतर आते हैं। आखिर अपनी ही तरह के इंसानों को अपने ही समाज में बहिष्कृत, ‍िनष्कासित, अलग-थलग कर देने वाली कुप्रथा कब तक चलेगी। क्यों नहीं वे मुख्यधारा में आ सकते? क्यों नहीं वे समाज में इस तरह घुल-मिल सकते हैं ‍िक उनका व्यक्तिगत शरीर दोष उनका निजी सीक्रेट ही रहे। फिर आज तो इस तरह के ऑपरेशन और हरमोन ट्रीटमेंट भी होने लगे हैं, ‍िजनके जरिए अनिश्चित लिंग को किसी एक ‍िनश्‍चित लिंग तथा स्त्री या पुरुष में बदला जा सकता है। और ये ऑपरेशन सिर्फ विदेशों में ही नहीं होते, भारत में भी होते हैं। यहाँ भी सिर्फ मेट्रोज में नहीं, सामान्य शहरों में भी होते हैं। इस मामले में जानकारी, जागरूकता और जनचेतना का प्रसार होना निहायत जरूरी है।

स्वयं के ही लाभ की बात का विरोध निकन्नरों की बस्ती से आ सकता है। कई बार कुप्रथाओं का शिकार व्यक्ति भी परिवर्तन का ‍िवरोध करता है, क्योंकि चेतना की रोशनी ही उस तक नहीं पहुँची। नतीजतन अँधेरा उसे रास आने लगता है, बल्कि कहें वही अँधेरा गड्‍ढा उसका कम्फर्ट जोन बन जाता है। व्यक्ति पुरानी व्यवस्था की सुविधा का अभ्यस्त हो जाता है और उस व्यवस्था को भंग करने से डरता है। पुरानी व्यवस्था में उसके 'आका' बन चुके लोग भी उस तक रोशनी की किरण नहीं आने देना चाहते, क्योंकि रोशनी पहुँचने के बाद वह उनका गुलाम नहीं रह जाएगा यह डर उन्हें सताता है। जैसा ‍िक देवदासी प्रथा के सन्दर्भ में भी अक्सर होता आया है। किसी निर्धन, अशिक्षित परिवार द्वारा स्वयं ही अपनी कन्या दान में दे दी जाती है, क्योंकि स्वार्थी पुजारी व देह व्यापारी उन्हें समझाकर रखते हैं ‍िक ऐसा करना मंगलमय है। देवदासी बनने की पात्र लड़की शादी करने से रुक जाती है, क्योंकि उनके ‍िदमाग में यह अंधविश्वास कूट-कूटकर भरा गया होता है कि शादी कर लेने से उसके परिवार का अनिष्ट होगा।

दुनिया की अन्य जगहों पर ट्रांसजेंडर लोगों के ड्रेग शो वगैरह होते हैं, छिटपुट घटनाओं की तरह, पर यूँ भारत की तरह अनिश्चित लिंग वाले व्यक्ति समाज से छिटका कर नहीं रखे जाते। नई, मॉडर्न सदी में ठेठ पुरानी इन अमानवीय परंपराओं से पार पाने के बारे में कुछ सोचा जाना चाहिए। मगर इस बारे में कुछ सोचने, समझने, करने की सामाजिक इच्छाशक्ति कहाँ है? समाज और राजनीति ऐसे मुद्दों में उलझी हुई है ‍िक जिसका इंसान के तात्कालिक जीवन से कोई वास्ता ही वहीं है।

- निर्मला भुराड़िया
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रविवार, 12 सितंबर 2010

भोपाल-गंध

दुर्योग से दो और तीन दिसंबर 1984 की दरमियानी रात को हम लोग भोपाल में थे। बंगलोर जाने के लिए सुबह पाँच बजे जीटी एक्सप्रेस पकड़ना थी। पहले स्टेशन के वेटिंग रूम में ही समय काटने का सोचा, फिर लगा कुछ घंटों ही सही ठीक से नींद हो जाए तो अच्छा, अतः होटल पेगोड़ा आ गए। देर रात समय की बात होगी, महसूस हुआ रोशनदान से कोई तीखी गंध कमरे में आ रही है। लगा एक-दो मिनट में सेटल हो जाएगी। लेकिन नहीं हुई। तब सोचा दूसरी दिशा की खिड़की खोलकर साँस लें, शायद इस तरफ तो कुछ जल रहा है। मगर गंध तो उस दिशा में भी थी। धीरे-धीरे साँस लेना मुश्किल होने लगा तो दरवाजा खोला जो सीधे बालकनी में खुलता था। मगर राहत नहीं मिली, दम घोटने वाली हवा तो पूरी फिजाँ में थी। बुरी तरह दम घुट रहा था, साँस लेना मुश्किल था। हम लोगों ने एक अटकल यह लगाई शायद दंगा हो गया हो और पुलिस ने अश्रुगैस छोड़ी हो। पति को अस्थमा की शिकायत है तो एंटी हिस्टेमेनिक दवाएँ साथ रहती हैं। तो हम लोगों ने बाथरूम में जाकर नल के पानी से ही एक-एक एंटी एलर्जिक निगल ली थी ताकि एलर्जिक रिएक्शन से बच सकें। इसके अलावा पानी से खूब मुँह धोया और गीला रुमाल नाक-मुँह पर लपेटा इस तर्क के साथ कि गैस कोई भी हो पानी में घुलनशील होगी। मगर दम घुटना बढ़ता गया तो हमने सामान होटल में ही छोड़ दिया और कमरे का ताला लगाए बगैर ही होटल से निकल आए। यूँ कह सकते हैं कि जान बचाने के लिए भागे। सड़क पर आए तो पता चला कि हम अकेले ही नहीं हैं, चारों तरफ अफरातफरी मची हुई थी। सभी लोग जान बचाने के लिए भाग रहे थे। कोई पैदल, कोई स्कूटर पर, बस, कार जिसको जो भी मिला। बूढ़े, बच्चे, स्त्री, पुरुष, जवान सभी रात के आधे-अधूरे कपड़ों में। कोई दौड़ते-दौड़ते पटरियों पर ही मर गया था, कोई खाँस रहा था, कोई रो रहा था, चिल्ला रहा था। पता नहीं था कि यह गैस क्या है? कहाँ से आ रही है? तो कई बेचारे तो यूनियन कार्बाइड की दिशा में ही भाग रहे थे, मौत के मुँह में जाने के लिए। हम लोगों के पास भी अपना कोई वाहन तो वहाँ नहीं था अतः हम पैदल ही बस स्टैंड पहुँचे। वहाँ भी सभी बसें ड्रायवर सहित भाग चुकी थीं। सौभाग्य से एक बस बच गई थी जिसका ड्रायवर सिख था। उसकी बस स्टार्ट नहीं हो रही थी। हम पाँच-सात लोग थे, उन्होंने धक्का लगाया और जाने कैसे बस स्टार्ट हो गई, हम सब बैठ गए फिर बस ने सीहोर पहुँचकर ही दम लिया। उस बस में भी एक यात्री ने हमारे देखते ही देखते दम तोड़ दिया था। दूसरे दिन मेरी आँखें सूजकर बंद हो गई थीं, रोड भी हाथ पकड़कर क्रास करवाना पड़ा था। छाती में भी दर्द था, महीनों तक जिसका इलाज करवाना पड़ा। पता चला स्टेशन पर तो ताँगे के घोड़े तक मर गए थे, मनुष्य तो मनुष्य यानी हम वेटिंग रूम में रुके होते तो नहीं बचते। सो जान तो बच गई, मगर दिमाग में एक चीज रह गई वह थी "भोपाल की गंध"। उस घटना का यह असर हुआ कि अक्सर फैक्टरियों के प्रदूषकों, सड़क पर पड़े कचरे के ढेर आदि में से ऐसा एहसास होता है गंध आ रही है, वही दमघोंटू, जानलेवा गंध, मन ने जिसका नाम भोपाल-गंध रख दिया है।

भोपाल के यूनियन कार्बाइड के कचरे के निपटान की बात इंदौर के समीप पीथमपुर में करने की चल रही है। पीथमपुर के आसपास के रहवासी, ग्रामीण, इंदौर के शहरी स्वयंसेवी संगठन आदि इसके खिलाफ उठ खड़े हुए हैं। नागरिकों की यह जागरूकता और जनकल्याण संघों की यह सकारात्मक आक्रामकता और सक्रियता प्रशंसनीय है। यदि हम जागृत हैं तो हम पर कोई बुरी चीज ऐसे ही नहीं लादी जा सकती। मगर पीथमपुर के भस्मक से उठने वाले संभावित जहरीले धुएँ की तरह और भी चीजें हैं जिनका हम सबको सक्रिय विरोध करना चाहिए। वह है हमारे सभी छोटे-बड़े शहरों में फैला गंदगी का ढेर, जो दिन-रात हमारे आसपास "भोपाल-गंध" उगलता रहता है। हमको बीमार करता रहता है। सभी नागरिकों, नागरिक संघों, रहवासी संघों आदि को यह कचरा, गंदगी न फैलाने, नगरपालिकाओं को कचरा उठवाने, सफाई करवाने में इतनी ही सक्रियता और आक्रामकता दिखाना चाहिए जितनी पीथमपुर में यूनियन कार्बाइड का कचरा नष्ट करने वाले मामले में दिखाई जा रही है। रोजमर्रा की जिंदगी में हम लोगों द्वारा स्वयं फैलाई जाने वाली और न उठवाई जाने वाली गंदगी कितने बैक्टेरिया, कितनी बीमारियाँ, कितनी जहरीली गैसें धीरे-धीरे, न मालूम तरीके से उगल रही हैं यह मालूम रखना भी जरूरी है। नागरिक कल्याण संघों, गृहिणियों, कॉलोनियों के रहवासियों की सकारात्मक आक्रामक सक्रियता से यह भी संभव है।

- निर्मला भुराड़िया

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

जिओ जिंदगी 'लाइव'!

दुनिया शेर दिल लोगों को पसंद करती है। घिघियाहट तात्कालिक दया जरूर उत्पन्न कर सकती है, लेकिन लोगों का आपके प्रति विश्वास नहीं पैदा कर सकती, न ही आपका खुद के प्रति विश्वास। शायद इसीलिए शेर की प्रवृत्ति में से इस बात को हाईलाइट किया गया है कि 'शेर ‍िकसी और का किया हुआ शिकार नहीं खाता!' यानी जंगल का राजा शेर सिर्फ सत्ता का ही नहीं साहस, स्वाभिमान और स्वावलंबन का भी प्रतीक है। मन ही मन में हर व्यक्ति चाहता है कि वह 'सिंह' हो।

सुनहरे अयालों वाले सिंह और बाघ को भी अमूमन आम आदमी शेर के नाम से ही पुकारता है। वह शेर बन नहीं पाता तो उसको बहुधा प्रतीक के रूप में चुनता है। आप दुनिया के ‍िकसी भी हिस्से में रहते हों इंसानी मनोविज्ञान लगभग एक-सा ही होता है। शायद यही वजह है कि सांस्कृतिक या धार्मिक उत्सवों, जुलूसों, नाटको में 'शेर बनना' या शेर के मुखौटे प्रयुक्त करना पूरी रचनात्मकता के साथ शामिल है।

अमेरिका के फिलाडल्फिया में हर वर्ष 1 जनवरी को 'ममर्स परेड' निकाली जाती है, जिसमें शेर के बड़े-बड़े मुखौटे धारण ‍िकए लोग सड़कों पर नाचते-गाते निकलते हैं। फिलाडल्फिया में यह प्रथा अप्रवासियों के साथ योरप से आई। भारत में भी नृसिंह जयंती जैसे उत्सव होते हैं जिसमें 'आधा सिंह-आधा मनुष्य' रूप वाले 'नृसिंह' ईश्वर के रूप में उपस्थित होते हैं और हिरणाकश्यप नामक राक्षस-राजा से अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा करते हैं। इंदौर के नृसिंह बाजार के नृसिंह मंदिर के ओटले पर हर वर्ष नृसिंह जयंती को इस कथा का नाट्‍यरूप बाकायदा मंचित ‍िकया जाता है। जय नृसिंह के उद्‍घोष के साथ भगवान नृसिंह का जुलूस भी निकाला जाता है। इसी प्रकार मोहर्रम का शेर बनाने की मन्नत भी लेते हैं। लोग अपने बच्चे को मोहर्रम का शेर बनाने की मन्नत भी लेते हैं। उत्तरप्रदेश के बहुरूपिए शरीर पर पीली-काली धारियाँ पेंट करके शेर का रूप धारण करते हैं, फिर कुश्ती भी लड़ते हैं।

दरअसल इन सब बहानों से मनुष्य अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करता है। फिर ऐस उत्सव, त्योहारों से उमंग और जोश भी तो बढ़ता है। मिलना-जुलना, सामूहिक रूप से नाचना-गाना भी तो होता है। ऐसे उत्सवों की तैयारी की भी अपनी रचनात्मक सक्रियता होती है। जैसे कि ममर्स परेड के लिए फिलाडल्फिया में लोग महीनों पहले पोशाकें तैयार करना, नृत्य के स्टेप्स सीखना, बैंड के साथ संगीत तैयार करना शुरू कर देते हैं। यही नहीं ऐसी तैयारियों में मानव रिश्तों की ऊष्मा भी होती है। टी.वी., इंटरनेट के जमाने में तो ऐसे सांस्कृतिक उत्सवों का महत्व और बढ़ जाना चाहिए ताकि लोग मशीनों से चिपके रहने के बजाए निकलें, रेडीमेड दृश्य देखने के बजाए दृश्य रचने का आनंद लें और जीवन का 'लाइव' मजा उठाएँ।

- निर्मला भुराड़िया

बुधवार, 8 सितंबर 2010

कॉस्मिक न्यूट्रीशन

एक सज्जन कई साल अमेरिका रहे। अब कुछ समय से भारत के एक महानगर में रह रहे हैं। वहाँ वे किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्य करते हैं। सूट-टाई या ब्रांडेड कपड़े पहने जाना एक तरह से उनके आसपास के माहौल का अलिखित ‍िनयम है। पिछले ‍िदनों वे मध्यप्रदेश में अपने गृहनगर आए थे। बातों ही बातों में कहे लगे- 'मुझे तो मोटे ऊन का स्वेटर पहनने की बहुत इच्छा होती है।' इस पर उन्हें सुझाव दिया गया- 'तो वह आप खरीद सकते हैं, बाजार में मिल जाएगा।' इस पर उन सज्जन ने कहा- 'मैं जो चाहता हूँ वह बाजार में कहाँ मिलेगा। मुझे तो वैसा स्वेटर चाहिए जैसा बचपन में होता था माँ के हाथ का थोड़ा ढीला, थोड़ा आड़ा-तेढ़ा बुना हुआ। जिस पर से स्कूल की प्रार्थना सभा में से साथी ऊन खींच-खींचकर कॉपियों में इकट्‍ठा करते थे, एक-दूसरे की स्वेटर पर काँटे वाले बीज फेंका करते थे जो स्वेटर पर चिपक जाते थे...'

खैर यह सज्जन जो कह रहे थे, वह एक भूली हुई मिठास को याद करने से अधिक कुछ नहीं था। मगर एक बात महसूस हुई कि इन ‍िदनों 'मोटा खाओ-मोटा पहनो' जैसी बातें ‍िफर होने लगी हैं। हालाँकि ये बातें सादगी के दृष्टिकोण से न होती हों पर इस दृष्टिकोण से जरूर होने लगी हैं कि लोग अपरिष्कृत चीजों में स्वास्थ्य खोजने लगे हैं। लोग यह महसूस करने लगे हैं, जो कुछ प्रकृति से जुड़ा है वह जीवन को सौंधापन देता है।

इन ‍िदनों ग्लॉसी पत्रिकाओं के स्वास्थ्य स्तंभ ऐसे सुझावों से भरे पड़े हैं, जिनमें लोगों से पॉलिश किया हुआ चावल खाने के बजाए मोटा चावल खाने, परिष्कृत शकर न खाने, मैदे के सफेद ब्रेड के बजाए ब्राउन ब्रेड खाने की अपील की जाती है। जूस और कोल्ड ड्रिंक्स को नकारकर साबुत फलों को अपनाने पर जोर दिया जा रहा है। इन्हें 'मूड फूड' बताकर आधुनिक लोगों को बताया जा रहा है, छिलके और लुदगी सहित खाए जाने वाले फल उनके पेट और उनके 'मूड' के लिए ‍िकतने अच्छे हैं। इसी तरह, बाजरा, मक्का, गेहूँ आदि अन्न और दालें आधुनिक पोषण आहारियों की सुझाई 'फूड डायरियों' में सबसे ऊपर हैं। चोकर का 'विटामिन ई' फिल्मी सितारे चेहरे पर भी लगा रहे हैं और खा भी रहे हैं। इसी तरह की एक आधुनिक सौंदर्य-स्वास्थ्य सलाहकार ने तो धूप, हवा, रात्रिकालीन निद्रा को 'कॉस्मिक न्यूट्रीशन' की संज्ञा दी है। बाजार में ऐसे उपकरण भी बहुत आ गए हैं, जिससे व्यायाम करने के लिए कभी आपको घट्‍टी पीसने की एक्टिंग करना होती है, कभी दही बिलौने की तो कभी साइकल चलाने की।

तात्पर्य यही कि 'मोटा खाओ, मोटा पहनो और धमककर काम करो' वाली कहावत किसी भी युग में महत्वपूर्ण रहेगी। भले ही उसे कहने का ढंग और शब्दावली बदल जाए। अति कृत्रिमता और यांत्रिक जीवन की अधिकता अंतत: इंसान को रास नहीं आती। वह फिर अपने ढंग से प्रकृति की नजदीकी में आनंद के तत्व ढ़ूंढने लगता है। भले फिर वह सौंधी मिट्‍टी के खुशबू से बना सेंट खरीदना हो या तारों भरी रात में अलाव के आस-पास नाचना-गाना, कैंपफायर आयोजित करना।

- निर्मला भुराड़िया

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

न ‍िजयो गपागप

भोजन और स्वास्थ्य संबंधी एक किताब में एक दिलचस्प विश्लेषण पढ़ने में आया। इस विश्लेषण के अनुसार मूँगफली के ‍िनकले हुए दाने आपको वह संतुष्टि नहीं देंगे जो संतुष्टि आप मूँगफलियाँ फोड़-फोड़कर दाने निकालकर खाने में पाएँगे। यह सच है, भोजन सिर्फ स्वाद ही नहीं देता मनुष्य की ‍िरक्तता भी भरने का काम करता है। इसीलिए कभी-कभी भूख हो न हो, तब भी खालीपन भरने के लिए लोग आलू चिप्स और सेंव-मिक्स्चर के पैकेट के पैकेट साफ कर जाते हैं। मगर यह भोजन पौष्टिकता नहीं देता ‍िसर्फ कैलरी, मोटापा और बीमारियाँ देता है।

आधुनिक अनुसंधानकर्ताओं का कहना है, जब भोजन के साथ प्रयास जुड़ जाएँ, तो वह भोजन ज्यादा स्वास्थ्यकारी, ज्यादा आनंदकारी हो जाता है। मसलन, वे कहते हैं- गपागप खाई जाने वाली ‍िकसी चीज के बजाए आप संतरा छीलकर खाएँगे तो यह भोजन स्वाद और पौष्टिकता के साथ ही 'स्ट्रेस बस्टर' का भी काम करेगा, क्योंकि यहाँ आपने ‍िदमाग के स्वाद केन्द्र के साथ ही अपने हाथ और मुँह को भी काम में जुटा ‍िलया है। यानी सीधी सी बात यह है कि किसी चीज में हम प्रयास जोड़ लें तो वह रिक्तता भरेगी। बगैर प्रयत्न के ‍िमलने वाली चीजों का कई बार हमारी खुद की ही नजर में कोई महत्व नहीं होता।


अमेरिका के अतिसंपन्न रॉकफेलर परिवार का एक उदाहरण है। इस परिवार के पास अनंत धन-संपत्ति-यश रहा है, लेकिन इस परिवार का एक पुत्र आलीशन जिंदगी के सब ऐशो आराम तजकर एक लातीन अमेरिकी देश के एक पिछड़े कबीले में रहने चला गया था। जहाँ वह कामकाज से भरी दिनचर्या में आनंद पाता था। परिवार ने बहुत समझाया पर वह नहीं माना, क्योंकि उसे उस ऐशो आराम में बहुत ऊब और रिक्तता महसूस हुई जो उसने नहीं कमाया था, क्योंकि अर्जित करने का आनंद तभी आता है, जब आप उसे अपने प्रयास से प्राप्त करते हैं। यदि यह लड़का कबीले की तरफ नहीं जाता तो शायद कोकीन की तरफ जाता, क्योंकि उसके पास कर्म का आनंद और एचीवमेंट का नशा नहीं होता। अत: अतिसुविधामय जीवन की ऊब भरने के लिए कोकीन लगती।


दरअसल, जैसे गपागप खाने वाली चीजों में आधा मजा है, उसी तरह पकापकाया, रेडीमेड जीवन जीने में भी आधा ही मजा है। जीवन का असली मजा है लगे रहने में। कर्मशील व्यक्ति को जिंदगी धूप में बैठकर 'छोड़' खाने की तरह आनंदमयी लगती है।


- निर्मला भुराड़िया

बुधवार, 1 सितंबर 2010

माँ


ब्रह्मांड सुंदरी प्रतियोगिता में भारतीय सुंदरी सुष्मिता सेन से एक सवाल ‍िकया गया था- जीवन का सार क्या है? उन्होंने कहा 'मातृत्व'। और इस जवाब ने उन्हें ताज पहनवा ‍िदया। क्योंकि जवाब सचमुच बहुत सटीक था। हालाँकि मातृत्व का संबंध ऐसे किसी भी तात्कालिक स्वार्थ से नहीं है। मातृत्व नि:स्वार्थता का चरम है। इसीलिए किसी भी इंसान के ‍िलए माँ का प्यार जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपहार है, तो मातृत्व स्वयं स्त्री के ‍िलए भी ईश्वरीय वरदान है, जिसमें वह प्रेम के आध्यात्मिक चरम को पा लेती है। माँ के ‍िलए बच्चा क्या है, अपने ही ‍िजस्म का ‍िहस्सा जो उसे सामने चलते-फिरते ‍िदखता है। अपने ही अस्तित्व का अंश जो उसके सामने है। बच्चे की भूख माँ को लगती है, बच्चे की व्यथा माँ को शूल बनकर चुभती है... यह स्थिति है दूसरे में स्वयं को समझने की। वृहद अर्थों में लागू होने पर यह मानसिकता समस्त इंसानियत को नया आयाम देती है। तब जगत करुणा से ओतप्रोत हो, स्त्री जगत-जननी हो जाती है। ओशो ने एक जगह कहा भी है- 'मातृत्व का कोई संबंध शारीरिक, जैविक उत्पत्ति से नहीं है वरन एक आध्यात्मिक प्रेम से है, एक भाव से है। जिस क्षण तुम किसी दूसरे को अपने जैसा अपना लो, जैसे तुमने उसे जन्म ‍िदया हो...।' सच तो यह है ‍िक ममता का यह बीज पुरुष में भी है। यह है ‍िपतृत्व में मातृत्व की भावना। संसार के असंख्य बच्चों ने अपने ‍िपता में भी यह निश्‍चित ही महसूस किया होगा।

फिलवक्त दुनियावी माँ पर लौटें तो माँ दुनिया का सबसे ‍िन:स्वार्थ रिश्ता है और सर्वाधिक बेतकल्लुफ भी। वह अपने बच्चों से प्रेम की उम्मीद जरूर रखती है लेकिन प्रतिदान की अपेक्षा कभी नहीं। बच्चे जो चाहे करें वह तो उनके ‍िलए करती चलती है। बच्चे भी इस तथ्य को जानते हैं ‍िक माँ के समक्ष उनके समस्त दोष क्षम्य हैं, वे जो भी करें माँ उनकी ही रहेगी। बच्चों की इस बात में माँ की उपेक्षा नहीं प्रेम की पराकाष्ठा है, सर्वाधिक सुरक्षित प्रेम का एहसास है। यह प्रेम प्रियत्व के खो जाने के भय से मुक्त है। इसी में इसकी अलौकिकता है। प्रस्तुत है चंद पंक्तियाँ माँ के बारे में क्योंकि इस ‍िवषय का अंत किसी भी ‍िनष्कर्ष पर नहीं हो सकता है। यह ‍िवषय अनंत है। शब्दों और अभिव्यक्ति की सीमाएँ इसके समक्ष छोटी हैं।

'वह तिल-तिल कर जलती रही
देने को मुझे प्रकाश,
चलती रही सलाइयों सी
बुनने को मेरा अस्तित्व।
तूफानों में डगमगाती कश्ती सम्हालकर
अजेय इच्छाशक्ति की पतवार बनाकर
मुझे पार लगाती रही,
स्वयं ‍िशथिल होकर भी चप्पू चलाती रही।
प्यार का दीपक जलाकर
रातों में जगती रही
देकर के छाँव मुझे
खुद धूप में चलती रही।
काँटों भरी राहों में भी, अँधेरे की बाँहों में भी
ढूँढकर लाती रही वह, मेरे लिए सूरज की ‍िकरण।

- निर्मला भुराड़िया