बुधवार, 29 दिसंबर 2010

कब दूर होंगे ये अंधेरे?

दक्षिण भारत के कुक्के सुब्रह्मण्यम मंदिर में तकरीबन चार सौ सालों से भी ज्यादा समय से हर साल एक घिनौनी और अमानवीय रस्म अदा की जा रही है- "ऊरुलू-सेवे।" इस रस्म के तहत सवर्ण जातियों द्वारा खाना खाकर छोड़ी गई जूठी पत्तलों पर दलित समुदाय के लोग लोट लगाते हैं। इस मान्यता के तहत कि ऐसा करने से उनके त्वचा रोग ठीक हो जाएँगे। समझा जा सकता है कि ऐसी मान्यता क्यों विकसित हुई होगी। सवर्णों के जातिवादी दंभ और दलितों में अपने भी एक मनुष्य होने के सत्य से अपरिचय के कारण। ताज्जुब तो यह है कि आज भी यह रस्म जीवित है। उसके कई कारण हैं। पहला तो यह कि आजादी के इतने सालों बाद और संविधान में समानता के बावजूद वर्णभेद किसी न किसी रूप में मौजूद है। दूसरा कारण यह है कि समय के साथ भारतीय समाज में अंधविश्वास और रूढ़िवाद बढ़ा ही है, घटा नहीं। फिर व्यक्ति किसी भी वर्ण का हो, शिक्षित हो, अशिक्षित हो, अमीर हो, गरीब हो यहाँ अधिक से अधिक लोग रूढ़ियों में जकड़े हैं। कुप्रथाओं में लिप्त हैं।

पहले तो आज भी मौजूद वर्ण भेद की बात करें। बेंगलुरू की एक ब्राण्ड स्ट्रेटजी और मार्केटिंग कंसल्टेंसी फर्म ने किस उपभोक्ता के पास कितनी क्रय शक्ति है। कौन कितनी अच्छी चीजखरीदने की कूवत रखता है या कितनी साधारण चीज खरीदता है, इसका विभाजन ब्राह्मण, क्षत्रिय, दलित के आधार पर किया है। इसमें जन्म के आधार पर नहीं, बल्कि ऊँची खरीद या हलकी खरीद के कारण व्यक्ति को "जात" बाँटी गई है। इस सवर्णवादी मानसिकता में ब्राह्मण वह कहा जाता है, जो ऊँचे ब्राण्ड खरीदता है! क्षत्रिय वह जो दिखावे पर खर्च कर सकता है। और... कहना नहीं चाहिए! दलितों के पास भले ही वोट बैंक होने की राजनीतिक ताकत आ गई है, मगर हिन्दुस्तान के गाँव-कस्बों से आज भी अस्पृश्यता गई नहीं है। मध्यप्रदेश में मुरैना के एक गाँव में पिछले दिनों सुनीता नामक दलित महिला अपने पति को खाना परोस रही थी। एक रोटी बच गई, जो उसने एक कुत्ते को खिला दी। कुत्ता रामपाल नामक राजपूत का था। रामपाल दलित महिला पर सरे आम चिल्लाया कि उसने अपने हाथ से रोटी खिलाकर उसके कुत्ते को अछूत कर दिया है। यही नहीं, पंचायत बुलाई गई, जिसने यह फैसला दिया कि कुत्ता अब अस्पृश्य हो गया है और अब से दलित बस्ती में ही रहेगा। वर्णभेद के रंग में रंगी और भी बातें होती हैं, जैसे वरुण गाँधी की मँगनी की खबर पर एक अखबार ने लिखा कि वरुण जवाहरलाल नेहरू के बाद नेहरू परिवार के पहले ऐसे व्यक्ति होंगे, जो एक ब्राह्मण से शादी कर रहे हैं। ऐसे ही फिल्म दबंग में सलमान खान प्रेमिका के पिता से विवाह में अपनी कन्या देने के आग्रह स्वरूप अपने गुण गिनाता है "मैं" ये हूँ, मैं वो हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ। आज भी लोग दान करते हैं तो वे यह नहीं देखते कि सामने वाला जरूरत मंद है या नहीं? वे यह देखते हैं कि सामने वाला ब्राह्मण हो। ब्राह्मण भी निर्धन और जरूरतमंद हो सकता है, यह अलग बात है।

जूठी पत्तलों पर लोट लगाने वाले आयोजन में अब दलितों के साथ ही अन्य लोग भी आने लगे हैं। वजह यह है कि वर्णवाद तो पूरी तरह गया नहीं, रूढ़िवाद जुड़ गया सो ऊपर से। जूठी पत्तलों पर लोट लगाने से त्वचा रोग ठीक हो जाएँगे, जैसे कई अंधविश्वास विज्ञान चेतना से दूरी और तर्क को तिलांजलि देने की वजह से हैं। कई लोग ऐसे मिल जाएँगे, जो रोगों की सही चिकित्सा करवाने की बजाय उल-जलूल टोटकों में उलझ जाते हैं। इक्कीसवीं सदी तकनीकी, विज्ञान और चिकित्सा का युग है। इस युग में भी हम भारतीय आधुनिक ज्ञान को नहीं अपनाते तो यह चेतना की कमी ही है।

- निर्मला भुराड़िया

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

जात बाहर की ‍िकस्सागोई

वाशिंगटन डीसी, होटल लिंकन स्यूट। मैं यहाँ हफ्ते भर के लिए ठहरी हूँ। वैसे ही अमेरिका कई राष्ट्रीयताओं वाला देश है। जगह-जगह के अप्रवासियों से ही मिलकर यह देश बना है, किन्तु वाशिंगटन डीसी चूँकि राजधानी है, यहाँ ‍िभन्न-विभिन्न लोगों की आमदरफ्त अधिक ही है। इस होटल लिंकन स्यूट में एक विशेष व्यवस्था है। यहँ रोज शाम को ठंडा दूध और चॉकलेट-क्रीम कुकीज लॉबी में एक काउंटर पर रख दिए जाते हैं, बगैर दाम चुकाए सेवन के लिए। पास ही रखी होती है थप्पी वाशिंगटन पोस्ट एवं अन्य अखबारों की। उसके साथ ही कुछ लोग लॉबी में बैठकर गपियाते भी हैं। अत: होटल में ठहरने वाले अपने कमरों से निकलकर अपनी शाम लॉबी में ही बिताना पसंद करते हैं। पेमेंट काउंटर पर शाम को जिन तीन व्यक्तियों की ड्‍यूटी होती है, उसमें से एक युवक मोरक्को का है। वह जैसे ही खाली होता है झपटता हुआ आता है। बातें करने की कोशिश करता है। भारत के बारे में मुझसे पूछता है, मोरक्को के हालात के बारे में बताता है। इधर-उधर की पूछते-सुनते हुए भावनात्मक मूड में पहुँच जाता है तो यह कहकर अपना बोझ भी हल्का कर लेता है कि होम ‍िसक फील करता है।

एक और व्यक्ति से मुलाकात होती है, वह रास्ताफेरियन है। रास्ताफेरियन अफ्रीकी अश्वेत समुदाय का एक धड़ा है। इस अफ्रीकी-अमेरिकन व्यक्ति की हेयरस्टाइल कुछ विशेष तरह की है। पहले ही घुँघराले, कंधे तक के बालों की टें भी उसने मोड़-मोड़कर रस्सी की तरह बटी हुई है। जब उससे उसके बालों के बारे में पूछा तो उसने बताया ‍यह दिखावट के ‍िलए नहीं है। इस हेयर स्टाइल का आध्यात्मिक महत्व है। उसने बताया, यह हमारा ध्यान करने का एक तरीका है। रोजाना बालों की ढेर सारी लटें एकाग्रता से बटने में हमें कम से कम आधा-पौन घंटा तो लगता है! वे लोग कर्लर लगाकर यह स्टाइल नहीं बनाते क्योंकि फिर यह स्टाइल रखना ‍िसर्फ प्रतीकात्मक होगा। इसका असली उद्देश्य यानी 'ध्यान' पूरा नहीं होगा। है न दुनिया रंग-बिरंगी! ऐसी-ऐसी जीवन पद्धतियाँ हैं दुनिया भर में अलग-अलग लोगों की कि जानकारी प्राप्त करने का भी अपना मजा है। ऐसे में लोग जानकारी देते ही नहीं लेते भी हैं। एक मैक्सिकन महिला ने मुझसे मिर्ची-धनिए की चटनी बनाने की विधि पूछी और गंभीरता से बाकायदा उसे अपनी जेबी डायरी में नोट भी की। जब मैंने मालवी नाम कोथमीर की चटनी बताया तो उसने प्रसन्नतापूर्वक दोहराया 'कॉट्‍म्यीर वाऊ'।

भूटानी लड़की कर्मा के देश में तो बहुत से लोग हिन्दुस्तान के सास-बहू सीरियल भी देखते हैं। कर्मा ने आश्चर्य से पूछा था ‍िक क्या हिन्दुस्तान के परिवार ऐसे ही होते हैं? 'अरे नहीं बढ़ा-चढ़ाकर कहानी ‍िदखाते हैं,' मैंने तुरंत कहा क्योंकि यह कैफियत देने का अच्छा मौका ‍िमल गया था। देश की छबि का सवाल जो था। युद्धग्रस्त बोस्निया से अमेरिका आकर सेटल हुआ टूर गाइड था तो लंदन से अमेरिका आकर बस गई महिला भी थी, जिसे अजनबियों को भी 'हाऊ आर यू टूडे' पूछने की प्रवृत्ति अखरती थी। तात्पर्य यही कि आप यात्राओं पर जाते हैं, तो दुनिया के और लोगों का ‍िमजाज और संस्कृति भी जानते हैं। कुछ अपनी कहते हैं, कुछ उनकी सुनते हैं।

दरअसल यह सब बात इसलिए ‍िनकली है कि पिछले ‍िदनों एक टूर एंड ट्रेवल कंपनी के ‍िवज्ञापन में एक अजीब बात देखी। उसमें यह प्रावधान था ‍िक आप फलाँ जाति-समुदाय के हैं तो ऐसा टूर अरेंज किया जाएगा ‍िक आपकी जाति के लोग ही आपके सहयात्री हों, मैनेजर, प्रबंधक आदि भी आपकी जाति के लोग हों। बाहर की यात्रा में भी अपनी ही जाति के लोगों का साथ करेंगे यह कूपमंडूकत्व के साथ ही कट्‍टरपन का भी प्रतीक है। यह ठीक है कि सुपरिचित लोगों के साथ होने की बेतकल्लुफी अलग ही होती है। पर उसका आधार मित्रता भी तो हो सकती है जाति-समुदाय ही क्यों? इस वक्त देश में जातिवाद को लेकर जो राजनीतिक, सामाजिक हालात हैं उनके चलते तो आम जनता को और अधिक उदार और लचीला होने की जरूरत है। फिर क्या घर से बाहर निकलकर भी हम परिचय का दायरा न बढ़ाएँ, उसी घेरे में घूमते रहें? हम कहीं जाते हैं तो पत्थर-चूने की इमारतें देखने ही नहीं जाते वहाँ के इतिहास, संस्कृति और रहन-सहन से भी रूबरू होते हैं। दूसरों की गलतियों से सबक भी लेते हैं।

लंदन में ‍िनर्वासित अफगानों के समुदाय में एक अफगान जब दूसरे अफगान से मिलता है तो पराए देश भी वह 'अपना अफगान भाई' नहीं होता। वहाँ भी उनमें यह भेदभाव और नफरत का नजरिया बरकरार रहता है कि फलाँ तो पश्तून है, फलाँ हाजरा है, फलाँ ताजिक है... वगैरह। इतनी मुश्किलों के बीच भी वे एक नहीं हो पाते। बाहरी ताकतें उनके इसी जातिगत विद्वेष को उनके पतन का हथियार बना देती हैं। हम भारतीयों को भी यह बात समझना होगी। बात-बात में जात का हवाला देना छोड़ना होगा। यह समझ भारतीय घरों से ही विकसित हो सकेगी।

- निर्मला भुराड़िया

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

क्या आपको भिंडी भाती है?

कहने को तो हम सबके पास एक-से माँस-मज्जा, एक-से हड्‍डी जोड़ हैं, मगर हम सब बेजोड़ हैं। यानी हमारा कोई जोड़ नहीं। हममें से हर व्यक्ति यूनीक और अनूठा है। एक-दूसरे से ‍िभन्न है, गुण में भी और दोषों में भी। हथेलियों की छाप में भी, आवाज और सुर और शक्लो-सूरत में भी। हर एक की अपनी अभिरुचियाँ, स्वभाव और मनोविज्ञान भी होता है। शायद इसीलिए दार्शनिकों से लेकर आधुनिक मैनेजमेंट गुरुओं तक सभी कहते आए हैं- दुनिया से तालमेल बैठाना है तो खुद को पहचानो।

इन दार्शनिक बातों को छोड़ भी ‍िदया जाए तो भी पहले स्वयं को पहचानो वाली बात व्यावहारिक सत्य भी है, जो जिंदगी की बेहद आम रोजमर्रा की भौतिक बातों से भी जुड़ सकती है। ये ख्याल आया हाल ही में एक ब्यूटी पार्लर उपकरण का विज्ञापन देखकर, जिसके जरिए अलग-अलग प्रकार की त्वचाओं की प्रकृति पहचानी जाती है। ‍िफर त्वचा की प्रकृति के ‍िहसाब से ब्यूटीशियन या त्वचा विशेषज्ञ द्वारा आपको वे प्रोडक्ट सुझाए जाते हैं, जो आपको अपनी त्वचा पर इस्तेमाल करने हैं ताकि त्वचा की प्रकृति से ‍िभन्न प्रोडक्ट इस्तेमाल करने से आपकी त्वचा को नुकसान न हो। खैर, यह वर्गीकरण ऊँगलियों की छाप, जितना वृहद नहीं होता, थोड़ा मोटे तौर पर किया हुआ वर्गीकरण होता है, मगर जो भी हो खुद को पहचानने वाले मुहावरे में तो फिट बैठता है!

हममें से कइयों ने अपनी दादी माँओं को कहते सुना होगा ‍िक फलाँ चीज तो मैं खाती नहीं क्योंकि फलाँ चीज मुझे 'सदती' नहीं। हममें से कइयों ने ही इस बात पर दादी माँ की खिल्ली भी उड़ाई होगी कि दादी माँ बड़ी वनस्पतिशास्त्री बनती हैं, तो कइयों पर दादी माँ ने पंजा भी कसा होगा कि फलाँ चीज मत खाओ इससे सर्दी हो जाती है, पेट खराब हो जाता है वगैरह। दोनों ही की बातें गलत थीं। यानी यह कि ट्रेडिशनल विस्डम से दादी माँ ने स्वयं की प्रकृति समझ ली थी कि फलाँ खाद पदार्थ उन्हें सूट नहीं करता, इस पर उनकी चुटकी लेना गलत था। मगर वे अपने पर आजमाई बात यदि दूसरे पर थोपना चाहतीं तो वह भी गलत था। और आधुनिक विज्ञान भी अपनी-अपनी प्रकृति के हिसाब से भोजन चुनने और न चुनने की ताकीद करता है। यदि छींक चलती है तो चिकित्सक कहेंगे- आप पता कीजिए आपको किस पदार्थ से एलर्जी है। और यह काम आपसे स्वयं से बेहतर कोई नहीं कर सकता, डॉक्टर भी नहीं। क्योंकि अपनी प्रकृति पहचानने का काम आप ही कर सकते हैं, चिकित्सक तो उसमें मदद भर कर सकता है। अपनी-अपनी शारीरिक-प्रकृति का यह अनूठापन सर्दी-गर्मी इत्यादि में भी चलता है। कहते हैं हरेक की अपनी तासीर होती है। किसी को ठंड ज्यादा लगती है, किसी को गर्मी ज्यादा लगती है। ‍िकसी को भिंडी बेहद पसंद होती है तो ‍िकसी को भिंडी से इतनी चिढ़ होती है ‍िक वह उसे थाली में भी नहीं लेना चाहता। मगर हम लोग अक्सर देखा-देखी करते हैं या फिर कोई दूसरा हम पर फोर्स करता है अपनी पसंद को। आजकल कॉकटेल पार्टियाँ बहुत चलती हैं। कई लोग देखा-देखी हार्डड्रिंक ले लेते हैं, कुछ इस डर के मारे ‍िक कहीं उन्हें पिछड़ा न समझ लिया जाए तो कुछ दोस्तों के अति आग्रह में। मगर ये 'पीलो यार!' के चक्कर में पीने वाले कभी उल्टियाँ करते नजर आते हैं तो कभी दूसरे दिन हैंगओवर के चलते सिर पकड़े बैठे होते हैं। फिर सोचते हैं (यदि सोचने वाले हुए तो) कि काश अपनी प्रकृति पहचानी होती। इसी तरह नींद इत्यादि के साइकल भी व्यक्ति-व्यक्ति के ‍िभन्न होते हैं। गहरी नींद का दौर सबका अलग-अलग समय का हो सकता है। नींद के घंटे ‍िकतने हों, यह भी व्यक्ति-व्यक्ति में बदल सकता है। किसी व्यक्ति को माइग्रेन हो तो उसे पता होना चाहिए कि उसे चॉकलेट, पनीर, कॉफी इत्यादि से परहेज करना है। यानी आप स्वस्थ जीवन चाहते हैं, तो आपका 'कॉन्स्टीट्‍यूशन' या संरचना क्या है, इसको आपको खुद को जानना बेहद जरूरी है। इसके ‍िलए चिकित्सा ‍िवज्ञान की डिग्री की जरूरत नहीं, बस थोड़ा-सा ऑब्जर्वेशन ही आपको बता देगा कि आपकी प्रकृति क्या है और इस ‍िहसाब से आप अपने जीवन को ‍िनयमित कर सकेंगे। यानी 'पहले खुद को पहचानो' पूरी तरह दार्शनिक वाक्या ही नहीं, भौतिक और व्यावहारिक सत्य भी है। न देखा-देखी न दबाव, आपको पता होना चाहिए आप क्या चाहते हैं।

- ‍िनर्मला भुराड़िया

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

पहली फिल्म 'माय फैमिली'

एक किशोर वय का लड़का है; जिज्ञासु, उत्सुक एवं बुद्धिमान। वह दुनिया का अच्छे से अच्छा साहित्य पढ़ता है, साथ ही अपने आसपास के समाज को, संसार को जानने-समझने की कोशिश करता है। उसने नया-नया वीडियो कैमरा खरीदा है और शौकिया डॉक्यूमेंट्री बनाना चाहता है। उसने सोचा क्यों न पहली डॉक्यूमेंट्री बनाई जाए 'माय फैमिली'। उसने लिए वह ऐसे किसी त्योहार का इंतजार कर रहा है, ‍िजस ‍िदन पूरा परिवार इकट्‍ठा हो; चाचा-चाची, ताऊ-ताई, बुआ, मौसी उन लोगों के बच्चे आदि। दादी तो घर पर साथ ही रहती है। अत: उसने सोचा क्यों न दादी के शॉट्‍स तो लेकर ही रख लिए जाएँ। लड़के की माँ उसके इस आइडिया से सहमत हैं, बल्कि इससे आगे का सुझाव भी दे देती है, 'तुम बनाओ दादा-दादी की प्रेम कहानी, आखिर हम सब उसी कहानी का ‍विस्तार हैं। दादा-दादी का शाश्वत और अमर प्रेम ही है तुम्हारी 'माय फैमिली।'

लड़का दादी के पास पहुँचता है। दादी हारसिंगार के फूलों की माला बना रही है। लड़के ने दादी को कई बार सुबह फूल चुनते और माला बनाते देखा है, पर शायद अपनी व्यस्तताओं के चलते कभी ध्‍यान नहीं दिया। इस बारे में पूछा तो कभी नहीं। आज पूछा तो दादी माँ पहले तो थोड़ा तुनकी और वो ताना भी दिया जो वे घर में सभी को देती हैं, 'अच्छा तो आज तुझे फुरसत ‍िमल गई दादी से बात करने की।' पोते ने हँसकर टाल ‍िदया, 'छोड़ो भी दादी...' और सुलह हो गई। दरअसल दादी वह हार दादाजी की तस्वीर के लिए बनाती हैं। रोज फूल चुनकर ताजा, अपने हाथों का बना हार वे पति की तस्वीर को पहनाती हैं, वे नहीं चाहतीं कि एक बार चंदन हार लटकाकर काम खतम कर दिया जाए। दरअसल दादी हार नहीं प्यार गूँथती हैं। और तो और, दादी कभी-कभी गुजर चुके दादाजी की तस्वीर से बात करते भी नजर आती हैं। एक बार तो वह तस्वीर में बैठे दादाजी पर नाराज भी हो रही थीं कि मुझे छोड़कर पहले क्यों चले गए। उन्होंने पोते को बताया ‍िक जब दादाजी जीवित थे तब वे दोनों झगड़ा भी बहुत करते थे, पर शाम तक फिर हेल-मेल हो जाता था, क्योंकि ऊपरी झगड़ा होता था मनमुटाव नहीं। दादी ने और भी ढेर सारी बातें बताई और पोते को गेब्रियल गार्सिया मरक्वेज के उपन्यास 'लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा' की याद आ गई, जिसमें प्रेम को दो प्रेमियों की बड़ी उम्र भी बाधित नहीं करती। यह कहानी तो उससे भी आगे थी। इस प्रेम कहानी को तो मृत्यु ने भी बाधित नहीं किया था। ... और पोता इससे बहुत प्रभावित हुआ, उसने उत्सुक होकर दादी से पूछा, 'मुझे आपकी जैसी लड़की मिलेगी, जो मुझे हमेशा चाहे...। दादी ने टके-सा जवाब दिया, 'हाँ जरूर मिलेगी, यदि तू अपने दादाजी जैसा लड़का साबित हुआ तो... तुझे पता है यदि में पहले जाती तो वो मेरे लिए माला बनाते मिलते...' और दादी ने नम हो आई आँखें पोंछी।

'ओ हो दादी तो ये पतिव्रता होने की बात नहीं है, आपसी प्रेम की बात है' पोते ने कहा। 'बिलकुल यही है,' दादी ने जवाब दिया।

पोते के पास अगले सवाल भी थे, 'पर दादी पहले तो सभी अरेंज मैरेज होती थी, अब लव मैरेज होती है। तुम क्या सोचती हो दोनों में से कौन सी वाली में प्यार पक्का रहता है।' दादी अब हँसने लगी थी, 'लोग यूँ ही झगड़ते हैं कोई कहता है अरेंज मैरेज ठीक होती है, कोई कहता है लव मैरेज ठीक होती है। दोनों में से कोई भी तरीका हो, खास बात तो है आपसी समझ। पर, इसका मतलब यह भी नहीं ‍िक तुम ऐसी लड़की चाहो जो ‍िक बस तुम्हारी तुक में तुक मिलाए। आपसी समझ का मतलब आपसी समझ से ही है। सिर्फ लड़की द्वारा हाथियार डालने से नहीं है।' 'पर, दादी विज्ञापन में तो लड़की के लिए लिखते हैं, 'सुंदर, सुशील, वगैरह...।'

दादी ने जवाब दिया, 'मगर असल में तो तुम्हारे दादाजी सुंदर, सुशील, वगैरह... पुरुष थे, जिसने मेरे जैसी अपनी बातों पर लड़ने वाली स्त्री से भी प्रेम किया।' अब हार पूरा बन चुका था। दादी ने उठकर तस्वीर पर हार डाल दिया। पोते ने शॉट ले लिया था और जिंदगी के बारे में एक विचार भी। ताली एक हाथ से नहीं बजती। सुलझे हुए दाम्पत्य में पुरुष के अवदान को नहीं नकारा जा सकता।

- निर्मला भुराड़िया

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

एक गाथा

जिंदगी के पर्दे पर की

संजय भंसाली की फिल्म गुजारिश औंधे मुँह गिरी। खैर बॉक्स ऑफिस फिल्म के सफल या असफल होने का फैसला करता है, मगर अच्छा या बुरा होने का फैसला कई बार नहीं कर पाता। लिहाजा कुछ लोगों ने इस फिल्म को पसंद किया है, क्योंकि कुछ दृश्य इस फिल्म में बेहद कलात्मकता के साथ फिल्माए गए हैं, कुछ लोगों ने ऋतिक-ऐश्वर्या की जोड़ी पर फिल्माए दृश्यों में प्रेम की तीव्रता को भी देखा है। कतिपय लोग बिस्तर पर सीमित रोगी की घुटन को लेकर भी भावुकता में बह गए हैं, मगर कुल मिलाकर फिल्म असफल ही रही है। सिर्फ बॉक्स ऑफिस के लिहाज से ही असफल नहीं, बल्कि सही संदेश देने और फिल्म में उठाए गए उद्देश्यों को प्रतिपादित करने में भी। यह फिल्म उस समय, काल, परिस्थिति में बनी है, जब वृद्ध, दुःखी और रोगी तो छोड़िए सामान्य युवा जिसके सामने भविष्य खुला है, वह तक आत्महत्या की प्रवृत्ति अपनाने पर आमादा है। ऐसे समय में जीवन से घबराकर जीवन को त्यागने की फिल्म बनाना घोर नकारात्मकता है। सामान्य युवाओं के परिजन शायद ही चाहेंगे कि उनके बच्चे इस फिल्म को देखें। वैसे भी इस समय यूथनेशिया, दया-मृत्यु अथवा मर्सी कीलिंग की अनुमति भारत की ऐसी कोई ज्वलंत समस्या नहीं है कि इसके लिए लोग तख्तियाँ हाथ में लेकर जुलूस निकालें और रोगी जनमत बनाए, जैसा कि फिल्म में बताया गया है।

डिप्रेशन, एंक्जाइटी और तनाव के इस बढ़ते दौर में तो उत्साह, प्रयास और प्रबल जिजीविषा की जरूरत है। फिल्म इसलिए भी प्रेरित नहीं करती कि नायक के चेहरे पर रोग की कोई बेबसी, कोई झुर्री, कोई ऊब या विषाद नहीं है। नायक को ऐसा बुजुर्ग बताने की हिम्मत भंसाली नहीं कर पाए हैं, जिसके लिए जीवन में कोई मकसद नहीं बचा, जो असुंदर है, जिसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। यहाँ तो नायक तथा कथित रूप से जिंदादिल आदमी है, मगर दया मृत्यु चाहता है! उसके पास एक अदद सदा सजी-सँवरी शाश्वत युवा प्रेमिका भी है। माँ, मित्र मंडली, रेडियो जॉकी का जॉब, प्रशंसक वर्ग सब है। कुल मिलाकर वह बेबस होकर मरना नहीं चाहता, बिस्तर में पड़े-पड़े बोर होकर मरना चाहता है। बस इसीलिए उसकी अपील मार्मिक नहीं बन पाती। न दिल को छू पाती है। कुल मिलाकर लिजलिजी भावुकता की चाशनी और नकली रूमानियत का घोल बनकर रह जाती है। कोई भी किसी बीमार या अपंग व्यक्ति को यह फिल्म देखने की सलाह नहीं देगा, क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में पड़े व्यक्ति को नकारात्मकता नहीं प्रेरणा की जरूरत होती है। तो चलिए फिल्मी पर्दे को छोड़कर एक नायक की गाथा असल जिंदगी से ली जाए।

श्री राकेश वर्मा का पिछले हफ्ते निधन हो गया। राकेशजी की गाथा जमीं से उठकर आसमान छूने की गाथा है। मिलियन डॉलर वर्थ वाली अमेरिका की सॉफ्टवेयर कंपनी एजटेक के सीईओ व संस्थापक राकेशजी ने बहुत सामान्य परिस्थितियों में जीवन की शुरुआत की। अंग्रेजी मुहावरे का प्रयोग करें तो इसे हम्बल बिगनिंग कहा जा सकता है। पारिवारिक परिस्थितियों की वजह से अपनी पढ़ाई के लिए उन्होंने किशोरावस्था में ही कपड़े सिलना, किताब की बाइंडिंग करना जैसे कामों में भी दक्षता हासिल कर ली थी। रात में किताबों की बाइंडिंग का काम करके अतिरिक्त आय जुटाते थे। वे सामान्य स्कूलों में शिक्षित हुए, मगर एक बार राह बनाई तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। राकेशजी स्कूल में होनहार छात्र थे। उन्होंने समझ लिया था कि आगे बढ़ना है तो पढ़ना जरूरी है। वे भविष्यदृष्टि से भी सोचते थे, जैसे कि बीई इलेक्ट्रॉनिक्स में करने के बाद उन्होंने सोचा कि आगे कम्प्यूटर का ही जमाना आएगा और उन्होंने आईआईटी मुंबई में एमटेक के दौरान विषय बदलकर कम्प्यूटर साइंस कर लिया। फिर उन्होंने इंदौर में जीएसआईटीएस व कुछ प्रायवेट संस्थाओं में शिक्षण भी किया। उस दौरान मैंने भी उनकी कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर की क्लास अटेंड की, जहाँ उन्होंने उस वक्त चलने वाली कम्प्यूटर की भाषा "बेसिक" पढ़ाई थी। इसके बाद राकेशजी स्टील ट्यूब्स ऑफ इंडिया से जुड़े तो उन्होंने अपने काम के अलावा बिजनेस, फायनेंस आदि भी समझा। हमेशा नया करने, नया सोचने वाले राकेशजी यहीं नहीं रुके। इसके बाद उन्होंने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च जॉइन किया। यहाँ उन्होंने गाँव के टेलीफोन एक्सचेंज के लिए सॉफ्टवेयर लिखा। वे इंजीनियर, वैज्ञानिक एवं लेखक भी थे। अंग्रेजी के अलावा मातृभाषा हिन्दी में भी लिखते थे। सत्तर के दशक में धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं में भी उनके लेख प्रकाशित हुए थे। सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में भी वे कुछ मौलिक और क्रांतिकारी करने में यकीन करते थे, ऐसा कुछ जो सुखद परिवर्तन लाए। बनी बनाई लीक पर चलने वाले प्रोग्राम्स का गुणन करके बाजार के लिए कंपनी खड़ी कर लेना ही उनका लक्ष्य नहीं था। लिहाजा उन्होंने अपने नाम पर चार पेटेंट भी कराए। बदकिस्मती से कुछ साल पहले उनके साथ एक हादसा हो गया था, तब से वे व्हील चेयर पर थे। वे स्वयं कुछ भी नहीं कर पाते थे, मगर उनकी पत्नी प्रेरणाजी निरंतर उनके साथ लगी रहती थीं। भंसाली साहब को प्रेम की तीव्रता और जोड़े के एक-दूसरे के प्रति समर्पण के लिए इधर देखना चाहिए था। खैर वर्माजी पत्नी के प्रेम से बेहद अभिभूत व आभारी थे और हिन्दी में आत्मकथा लिखने (बोलकर लिखवाने) की योजना भी बना रहे थे, जिसमें वे पत्नी के प्रति अपनी भावनाएँ भी अभिव्यक्त करना चाहते थे। वे नए क्रांतिकारी सॉफ्टवेयर लिखने (बोलकर लिखने) की योजना भी बना रहे थे। ऐसी शारीरिक परिस्थितियों के बावजूद वे कंपनी तो चला ही रहे थे, क्योंकि वे अदम्य जिजीविषा के स्वामी थे। दुर्भाग्य से पिछले दिनों उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और वे बच नहीं सके, मगर अंत तक भी उन्होंने कुछ अच्छा और परिवर्तनकारी करने की इच्छा को नहीं त्यागा। वे उसी जोश से कहते थे एक नया और क्रांतिकारी सॉफ्टवेयर लिखूँगा। असल मिसाल तो ऐसा जोश और ऐसा जज्बा है जो जमीं से हाथ बढाकर आसमान छूने की प्रेरणा दे।

- निर्मला भुराड़िया

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

गणित तू एक कविता है!

जब दो जानकार अपने विषय के बारे में बात कर रहे होते हैं या ज्ञान का आदान-प्रदान कर रहे होते हैं, तब उन्हें एक-दूसरे को बहुत अधिक समझाकर कहने की आवश्यकता नहीं होती। मगर यदि जानकार गुरु है और सामने वाला शिष्य, तब जानकार को यह बात जेहन में रखना जरूरी होती है कि बिलकुल बुनियादी बातें भी बताना पड़ेंगी। कठिन बातें सरल और रोचक ढंग से समझाना होंगी।

गुरु का बात कहने का रसपूर्ण तरीका और छोटी-छोटी बातें भी समझाने का धीरज जरूरी होगा। अक्सर सिखाने वाला यह बात भूल जाता है और सीखने वाले पर झल्लाने लगता है कि अरे इतनी छोटी-सी बात भी समझ नहीं आ रही! मूर्ख, भोट आदि की पदवी भी जल्दबाज शिक्षक अपने शिष्य को दे डालता है। वस्तुतः नासमझ तो वह खुद होता है जो यह नहीं जानता कि डंडे से सिर फोड़कर उसमें ज्ञान नहीं भरा जा सकता। कई विषय पढ़ने वालों को रुखे-सूखे भी लगते हैं इसलिए भी विद्यार्थी उन्हें ग्रहण करने में रुचि नहीं रखता। गणित जैसे विषय भी होते हैं जिनका इतना भय विद्यार्थी के मन में भर दिया जाता है कि वे सीखने के पहले ही विषय से आतंकित होते हैं। लिहाजा गणित-ग्रंथि की वजह से गणित नहीं सीख पाते। इन्हें यदि भास्कराचार्य द्वितीय जैसे गुरु मिल गए होते तो गणित इनके लिए इतना बड़जब दो जानकार अपने विषय के बारे में बात कर रहे होते हैं या ज्ञान का आदान-प्रदान कर रहे होते हैं, तब उन्हें एक-दूसरे को बहुत अधिक समझाकर कहने की आवश्यकता नहीं होती। मगर यदि जानकार गुरु है और सामने वाला शिष्य, तब जानकार को यह बात जेहन में रखना जरूरी होती है कि बिलकुल बुनियादी बातें भी बताना पड़ेंगी। कठिन बातें सरल और रोचक ढंग से समझाना होंगी। गुरु का बात कहने का रसपूर्ण तरीका और छोटी-छोटी बातें भी समझाने का धीरज जरूरी होगा। अक्सर सिखाने वाला यह बात भूल जाता है और सीखने वाले पर झल्लाने लगता है कि अरे इतनी छोटी-सी बात भी समझ नहीं आ रही! मूर्ख, भोट आदि की पदवी भी जल्दबाज शिक्षक अपने शिष्य को दे डालता है। वस्तुतः नासमझ तो वह खुद होता है जो यह नहीं जानता कि डंडे से सिर फोड़कर उसमें ज्ञान नहीं भरा जा सकता। कई विषय पढ़ने वालों को रुखे-सूखे भी लगते हैं इसलिए भी विद्यार्थी उन्हें ग्रहण करने में रुचि नहीं रखता। गणित जैसे विषय भी होते हैं जिनका इतना भय विद्यार्थी के मन में भर दिया जाता है कि वे सीखने के पहले ही विषय से आतंकित होते हैं। लिहाजा गणित-ग्रंथि की वजह से गणित नहीं सीख पाते। इन्हें यदि भास्कराचार्य द्वितीय जैसे गुरु मिल गए होते तो गणित इनके लिए इतना बड़ा हौवा नहीं होता। गणित लड़कियों का विषय नहीं, लड़के और लड़की के दिमाग को भी वीनस और मार्स में बाँटने वाले समाज ने यही बताया। पर यह भी सच नहीं। यह भास्कराचार्य के बारें में जानने से पता चल जाएगा।

ईस्वीं सन्‌ ग्यारह सौ चौदह में जन्मे भास्कराचार्य को संसार के एक महान गणितज्ञ के रूप में जाना जाता है। भास्कराचार्य ने अपनी बेटी लीलावती को गणित सिखाने के लिए गणित के ऐसे सूत्र निकाले थे जो पद्य में होते थे। वे सूत्र कंठस्थ करना होते थे। उसके बाद उन सूत्रों का उपयोग करके गणित के प्रश्न हल करवाए जाते थे। कंठस्थ करने के पहले भास्कराचार्य लीलावती को सरल भाषा में, धीरे-धीरे समझा देते थे। वे बच्ची को प्यार से संबोधित करते चलते थे, "हिरन जैसे नयनों वाली प्यारी बिटिया लीलावती, ये जो सूत्र हैं...।" बेटी को पढ़ाने की इसी शैली का उपयोग करके भास्कराचार्य ने गणित का एक महान ग्रंथ लिखा, उस ग्रंथ का नाम ही उन्होंने "लीलावती" रख दिया। बादशाह अकबर के दरबार के विद्वान फैजी ने सन्‌ १५८७ में "लीलावती" का फारसी भाषा में अनुवाद किया। अंग्रेजी में "लीलावती" का पहला अनुवाद जे. वेलर ने सन्‌ १७१६ में किया। कुछ समय पहले तक भी भारत में कई शिक्षक गणित को दोहों में पढ़ाते थे। जैसे कि पन्द्रह का पहाड़ा ...तिया पैंतालीस, चौके साठ, छक्के नब्बे... अट्ठबीसा, नौ पैंतीसा...। इसी तरह कैलेंडर याद करवाने का तरीका भी पद्यमय सूत्र में था, "सि अप जूनो तीस के, बाकी के इकतीस, अट्ठाईस की फरवरी चौथे सन्‌ उनतीस!"

अर्थशास्त्र जैसा विषय भी कइयों को रुखा-सूखा और कठिन लगता है। इसे भी कुछ लोग कॉमिक्स के जरिए समझाने का प्रयास कर रहे हैं। रॉयल सोसायटी फॉर द एनकरेजमेंट ऑफ आर्ट्स जैसी संस्थाएँ ऑनलाइन प्रेजेंटेशन कर हल्के-फुल्के चित्रों के माध्यम से अर्थशास्त्र समझा रही हैं। पूँजीवाद का संकट जैसे विषय कार्टूनों के जरिए रोचक व सरलीकृत ढंग से समझाए जा रहे हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ मैसाचुसेट्स में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर नैन्सी फाल्बर "फेमिनिस्ट इकॉनॉमिक्स" की पुरोधा हैं। यानी वे अर्थशास्त्र के उन ‍िवषयों से जुड़ी हैं, जो महिलाओं और आम आदमी से संबंधित हैं, बड़े जटिल व्यापारों और व्यापारियों से नहीं। नैन्सी की सारी रिसर्च महिलाओं के दृष्‍टिकोण को आर्थिक विश्लेषणों में शामिल करने व घरेलू और सामाजिक अर्थशास्त्र को लेकर है। नैन्सी भी इकॉनॉमिक्स कॉमिक्स की पक्षधर हैं। तात्पर्य यही कि धीरज और रसबोध बहुत महत्वपूर्ण है। साहित्य और कला के माध्यम से तथाकथित रूप से जटिल विषयों को भी रोचक और सरल बनाया जा सकता है। हाँ यह ठीक है कि कभी-कभी कोई व्यक्ति किसी विषय में कमजोर होता है, दूसरे विषयों में तेज होने के बावजूद।

गणित का डिसलेक्सिया यानी केलकुलेक्सिया भी कुछ लोगों को होता है। धीरजपूर्ण और रोचक तरीके से तो ऐसे लोगों को भी ‍िवषय पढ़ा ‍िदया जाता है। जैसे अपनी ‍िफल्म 'तारे जमीं पर' में आमिर खान डिसलेक्सिक बच्चे को भी स्पेलिंग बनाना सिखा देते हैं। विषयों की समझ को लेकर चलने वाला लिंगभेदी सोच, फोबिया, सामाजिक पूर्वाग्रह आदि सिखाने के सही तरीके से दूर हो सकते हैं। बशर्ते स्कूलों के मैनेजमेंट शिक्षक को अपने तरीकों से पढ़ाने दें और शिक्षक भी पढ़ाने के नाम पर बला न टालें, नवीनता की खोज करें, मौलिकता अपनाएँ।

- निर्मला भुराड़िया

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

बेचारा उल्लू!

जीवन के रंगमंच से...

घर के बाहर खड़े बिल्वपत्र के एक शानदार पेड़ पर कुछ समय पहले उल्लुओं का एक जोड़ा रहने आ गया था। हल्के भूरे रंग के ये सलोने उल्लू फर के गोलों की तरह लगते थे। पेड़ के नीचे खड़े होकर उन्हें देखो तो ऐसा प्रतीत होता था मानो वे नीचे हमारी तरफ ही देख रहे हों- ऊपर देखने के प्रत्युत्तर में! सुबह-शाम कभी बालकनी से, कभी बरामदे से, कभी पेड़ की तलहटी से इस खुशनुमा जोड़े को देखकर उल्लासित होना मानो शगल बन गया।

मगर 6-8 महीने पेड़ पर रहने के बाद तकरीबन पिछली दीपावली के आसपास पहले एक उल्लू फिर कुछ अंतर से दूसरा उल्लू गायब हो गया! इनके गायब होने का जो कारण जानकारों ने बताया उसे सुनकर दुख हुआ कि कदाचित दीपावली पर किसी ने उनकी तांत्रिक बलि दे दी हो!

हमारे पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने पिछले दिनों यह खेद व्यक्त किया कि हैरी पॉटर की लोकप्रियता ने उल्लुओं का नाश किया है। कुछ हद तक यह बात सही है थीम पार्टियों में यदि हैरी पॉटर थीम है तो बच्चे हैरी के पालतू उल्लू हैडविग की तर्ज पर अपने साथ उल्लू ले जाना चाहते हैं। हैरी पॉटर से प्रभावित कुछ बच्चे उल्लू पालने की जिद भी करते हैं! मगर उल्लू की बढ़ती दुर्गति का महज यही कारण नहीं है। हमारे बहुत से देशी कारण भी हैं।

भारतीय पौराणिकता में उल्लू चूँकि लक्ष्मी का वाहन माना गया है, अतः कई लालची लोग यह सोचते हैं कि उल्लू के संग तंत्र पूजा से लक्ष्मी उनके पास आएगी। या तांत्रिकगण उन्हें ऐसा समझा देते हैं और उल्लू के रक्त से स्नान जैसी वीभत्स प्रक्रियाएँ भी दीपावली की रात संपन्न करवाई जाती हैं। इसके अलावा ओझा लोग उल्लू की आँख, उल्लू की हड्डी, उल्लू का पंजा, उल्लू का सुखाया हुआ मांस आदि अवयवों का उपयोग इंसानी रोगों के तथाकथित इलाज के लिए करते हैं।

जिन पिछड़े इलाकों में आधुनिक चिकित्सा का ज्ञान नहीं पहुँचा है वहाँ तो लोग उल्लू के अवयवों को दवा के रूप में इस्तेमाल करते ही हैं, कई अंधविश्वासी, अतार्किक अगड़े (?) या यूँ कहें शहरी पढ़े-लिखे भी अक्सर इस फेर में पड़ जाते हैं। यही नहीं उल्लू के अवयवों का उपयोग तथाकथित वशीकरण के लिए भी किया जाता है।

उल्लू के अवयव बेचने वाले खुलेआम घोषणा करते हैं कि उल्लू के फलाने अवयव से प्रेमिका पट जाएगी तो फलाने पार्ट से दुश्मन का खात्मा, फलानी हड्डी या आँख से आदमी आपका गुलाम हो जाएगा। अशिक्षा, अंधविश्वास एवं रूढ़ियाँ और भी तरह से उल्लुओं की दुश्मन हैं। जैसे कि दक्षिण के कई इलाकों में उल्लू की आवाज को मौत का पैगाम माना जाता है, अतः लोग ढूँढकर उल्लू को मार डालते हैं। कई लोग उल्लू को अपशगुन मानते हैं और इनका खात्मा करने पर तुल जाते हैं।

पर्यावरण-मित्र, लेखक अनिल यादव कहते हैं, 'पता नहीं क्यों लोग इस कृषक मित्र पक्षी को मनहूस और बेवकूफ मानते हैं।' उनका कहना है उल्लू की एक प्रजाति फिश आऊल को हिन्दी में मुआ कहते हैं। एक और उल्लू प्रजाति है 'खूसट'। ये दोनों ही शब्द गालियों और तानों की तरह इस्तेमाल किए जाते हैं। उल्लू को बेवकूफ का पर्याय और उल्लू का पट्ठा को महामूर्ख के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

दरअसल उल्लू तो लक्ष्मी का वाहन इसलिए होना चाहिए कि फूड चेन के अंतर्गत इसका सबसे बड़ा काम चूहों और कृषि को नुकसान पहुँचाने वाले कीड़ों का खात्मा करना है। इस तरह उल्लू फसल को बचाता है और धन-धान्य में वृद्धि करता है। अतः उल्लू तो इंसान के आदर का पात्र है और इसे अभिरक्षा चाहिए।

-निर्मला भुराड़िया