शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

अदृश्य औरतों के देश में...



एक ब्रिटिश मुस्लिम डॉक्टर क्वांटा अहमद की एक किताब आई है, 'इन लैंड इनविजिबल वुमन।" इसे हिन्दी में हम कह सकते हैं 'अदृश्य औरतों के देश में।" डॉ. क्वांटा की स्वयं इस्लाम में बहुत श्रद्धा हैं, माता-पिता द्वारा दिए गए एक अच्छे और सच्चे मुस्लिम बनने के संस्कारों का पालन करती है। मगर सऊदी अरब में एक जॉब में जब वे रहीं और उन्होंने बुरके में शब्दश: कैद स्त्रियों का जीवन देखा, मनमानी और स्वार्थी व्याख्याओं के

चलते, स्त्रियों का दमन देखा तो उन्होंने बगैर परवाह किए कड़वी सच्चाइयाँ लिख डाली। आज उनकी यह पुस्तक इंटरनेशन बेस्ट सेलर्स में से है।

क्वांटा की पुस्तक में कुछ ऐसे सचमुच देखे गए दृश्य हैं। सत्तर वर्षीय एक मरीज मरणासन्ना है। वह इंटेन्सिव केयर यूनिट के बिस्तर पर है। उसने काला नायलोन का बुरका पहना हुआ है, उसके चेहरे पर नकाब डला हुआ है। बुर्के और पर्दे के आर-पार से उसने यत्र-तत्र कई ट्यूब्स डाली गई हैं, वैंटिलेटर भी लगा है। बिस्तर के आस-पास नर्स और फिजिशियन हैं। महिला खाँसती है, या जोर से साँस लेती है तो नकाब इधर- उधर हो जाता है। या नर्स चेहरे से कुछ पोंछती है तो नकाब को थोड़ा खिसकाती है। पर्दे के पार एक पुरुष बेचैन होकर टहल रहा है। बीच-बीच में वह ऊँचे, उत्तेजित स्वर में फिजिशियन से अरबी में कुछ कहता है। वह गुस्सा है। क्वांटा को मालूम होता है कि वह मरीज स्त्री का बेटा है। क्वांटा इस बेटे की माँ की बीमारी के ति चिंता देखकर खुशी होती है। मगर जब फिजिशियन उसे अनुवाद बताते हैं तो पता चलता है कि बेटा इसलिए गुस्सा हो रहा था कि माँ के चेहरे का नकाब बार-बार इधर-उधर हो रहा था। बेटे को माँ की बीमारी की अवस्था से अधिक घर की

तथाकथित मर्यादा की चिंता थी।

क्वांटा ने पाया कि सऊदी अरब में बगैर अबाया (बुर्का) पहने कोई भी महिला घर से बाहर नहीं जा सकती। चाहे वह गैर-मुस्लिम हो या उसका व्यक्तिगत विश्वास इसमें हो। अबाया पहनना और अपने बालों को ढँककर रखना हर स्त्री के लिए वहाँ कानूनन जरूरी है। कहीं औरतें इसका उल्लंघन तो नहीं कर रही यह

देखने लिए शासन द्वरा अपॉन्ट्स किए गए मुत्तावा यानी धार्मिक पुलिस के लोग जगह-जगह पर नियुक्त

किए गए होते हैं। वहाँ महिलाओं को बगैर किसी पुरुष को साथ लिए कहीं जाने की इजाजत नहीं है। उन पर कानूनी प्रतिबन्ध है कि वे कोई वाहन नहीं चला सकतीं। वहाँ महिलाएं हेयर से सेलून , बुटिक आदि चलाने का काम भी करती हैं तो सीधे नहीं कर सकतीं, उन्हें पिता, भाई, पुत्र आदि किसी को अपने प्रतिनिधि के तौर पर आगे करना होता है, तभी इजाजत होती है। सऊदी अरब वैसे तो मुस्लिम राष्ट्र हमेशा से है लेकिन फिर भी वहाँ औरतों की स्थिति ऐसी नहीं थी। शाह फैजल की हत्या के बाद स्थितियाँ बदली और वहाँ कट्टरपंथी मुत्ताबीन की ताकत गई। उन्होंने मनचाही व्याख्याओं के जरिए औरतों पर ढेर सारे बंधन लाद दिए। उपरोक्त दृश्य से ठीक विपरीत खबर है फ्रांस से। वहाँ बुरका पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। प्रतिबंध चीजों को हटाता नहीं है, जिद बना देता है। इस प्रतिबंध की वजह से मुस्लिम समुदाय बुरके को अपनी पहचान, अपनी

आइडेंटिटी के रूप में देखने लगा है। इससे उन महिलाओं का नुकसान हुआ है जो अपनी लड़ाई खुद लड़कर कभी कभी कैद से मुक्त होती। बाहरी विश्व भी उस लड़ाई में सहयोग देता। मगर बाहरी विश्व कानून बनाकर प्रतिबंध लगा दे जो यह फिर बुरके पर नहीं अपने आपको अभिव्यक्त करने की आजादी पर प्रतिबंध हो जाता है। फिर व्यक्ति छटपटाता है और उसका विरोध करने लगता है। भारत में भी इससे मिलते-जुलते उदाहरण थोड़े बहुत रूप में, कभी-कभी देखने को मिल जाते हैं। कभी-कभी कट्टरपंथी लड़कियों के जींस पर प्रतिबंध लगाने की माँग करने लगते हैं। यह युवतियों को निश्चित ही नागवार गुजरता है। वहीं पिछले दिनों ऐसा भी हुआ है बेडमिंटन वर्ल्ड फेडरेशन ने यह आदेश जारी कर दिया है कि आगामी ग्रांड टूर्नामेंट में सभी महिला खिलाडी स्कर्ट ही पहनेंगी, ताकि बेडमिंटन का प्रजेंटेशन आकर्षक हो। वे शॉर्ट्स पहनना चाहें तो वह उन्हें स्कर्ट के नीचे ही पहनना होगी। यह भी तो बाध्य करना हुआ। स्त्रियाँ क्या पहनें और कैसे रहें इसका फैसला दुनिया उन्हीं पर

क्यों नहीं छोड़ देती। स्त्रियों पर हर चीज लादी क्यों जाती है?

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बुधवार, 13 अप्रैल 2011

कला, साहित्य, खेल शिक्षा हो हर चीज का मेल

भारतीय माँ-बाप और शिक्षक यहाँ तक कि भारतीय स्कूल- कॉलेजों के प्रबंधक भी पाठ्येतर गतिविधियों को बहुत कम महत्व देते हैं। हमारे यहाँ शिक्षा का मतलब सिर्फ अकादमिक पढ़ाई है। शिक्षा का मतलब छात्र-छात्रा के संपूर्ण व्यक्तित्व को निखारना बहुत ही कम लोग समझते हैं। संपूर्ण शिक्षा का मतलब सिर्फ कोर्स की पढ़ाई नहीं। खेलना, ज्ञान-विज्ञान, प्रयोग, परीक्षण, कलाबोध, कोर्स से इतर पुस्तकों का अध्ययन आदि कई चीजें इसमें आती हैं। मगर भारतीय माँ-बाप इन सब चीजों को समय की बर्बादी समझते हैं। अतः वे पाठ्येतर गतिविधियों में संलग्न होने वाले बच्चे को रोकते हैं। बच्चे के हाथ में उपन्यास है तो वे छीन लेते हैं, बल्ला छुपा देते हैं, खेलने आने वाले उनके साथियों को दरवाजे से ही भगा देते हैं। इस तरह वे बच्चे का नुकसान करते हैं।

बच्चों को खेलकूद में रुचि लेने देना चाहिए, क्योंकि खेल लद्दड़पन को तोड़ता है, आलस्य को डंडा मारकर भगा देता है, शरीर और मन दोनों में जोश का संचार करता है। खेलने के लिए शरीर और दिमाग का तालमेल चाहिए, खेलने से व्यक्ति का बैलेंस सुधरता है। निशाने के अभ्यास, कैच लेने, टोल मारने आदि से एकाग्रता बढ़ती है। यह सब बहुत फुर्ती से करना होता है अतः खिलाड़ी व्यक्ति में गजब का चौकन्नाापन होता है। सामूहिक खेल टीम-भावना का विकास करते हैं, जो आजकल के एकल परिवार और इकलौते बच्चों के कारण अलग से विकसित करना जरूरी हो गया है। टीम में खेलने वाले बच्चे "इक्कलखोरे" नहीं बनते, "बाँट-चूट के खाना बैकुंठ में जाना" वाली संस्कृति का हिस्सा बनते हैं। शारीरिक रूप से भी खेल स्टेमिना विकसित करते हैं, मांसपेशियाँ बनाते हैं, सही रक्त-संचार करते हैं। इसके अलावा दौड़ना, साइकल चलाना, तैरना जैसी गतिविधियाँ कार्डियो एक्सरसाइज भी हैं। ये व्यक्ति को तंदुरुस्त रखते हैं। खेलने वाले बच्चों में संघर्ष का माद्दा बनता है। खेलने वाले का मेटाबोलिज्म यानी चयापचय सुधरता है अतः ऐसे लोगों का शरीर कैलोरी बर्न करने में भी सुस्ती नहीं दिखाता। लिहाजा, मोटापा भी खिलाड़ियों से दूर रहता है और उत्साह उनकी शिराओं में हमेशा बहता है। खिलाड़ी कभी कंधे झुकाकर नहीं चलता। खेलने वाले व्यक्ति का पॉश्चर सुधरता है, वह सीधा तनकर उठता है, बैठता और चलता है जिससे उसके व्यक्तित्व में आत्मविश्वास की प्रतीति होती है।

बच्चे यदि कोर्स से अलग किताबें पढ़ रहे होते हैं तो यह अच्छा ही है। इससे उनका भाषा-ज्ञान विकसित होगा, शब्द-विन्यास सुधरेगा और अभिव्यक्ति पुख्ता होगी। ज्ञान की शक्ति और स्वयं को उम्दा तरीके से अभिव्यक्त कर लेने की क्षमता उनके आत्मविश्वास में इजाफा करेगी। पढ़ने की आदत से उन्हें इंसानी मनोविज्ञान समझने में भी आसानी होगी। पुस्तकें उन्हें परिपक्व बनाएँगी। इसी तरह पेंटिंग आदि में रुचि व्यक्ति को तनावमुक्त तो करती ही है, उसमें कलाबोध भी विकसित होता है। कलाओं को सराहने और अपनाने वाले व्यक्ति में एक विशिष्ट नजर विकसित हो जाती है। पेंटिंग न सिर्फ प्रतियोगिताओं में जाने के लिए है, न सिर्फ पैसा कमाने के लिए है बल्कि यह तो आत्मा को तरबतर करने वाली विधाएँ हैं। इनसे यदि आने वाली पीढ़ी शुद्ध कला के दृष्टिकोण से भी जुड़ती है तो न सिर्फ उसका सौंदर्यबोध बढ़ता है, बल्कि उन्हें जीवन की सुंदरता को देखना आ जाता है, उनके व्यक्तित्व में आध्यात्मिक निखार भी आता है।

दरअसल, लोग हर चीज को बाजार और प्रतिस्पर्धा के तौर पर देखने लगे हैं। यह भौतिकतावादी नजर सामाजिक भ्रष्टाचार को बढ़ा रही है, क्योंकि भौतिकतावाद का बोलबाला यह भ्रम देता है कि पैसा बना लेने की क्षमता के अलावा और कोई चीज उपलब्धि है ही नहीं। जीवन में कई गतिविधियाँ ऐसी हैं, जो पैसा बनाएँ न बनाएँ, जीवन को सुंदर बनाती हैं। इन गतिविधियों के लिए न किसी को धोखा देने की जरूरत है, न किसी का ईमान खरीदने की, बस जीने की जरूरत है खूबसूरत ढंग से।

- निर्मला भुराड़िया

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

जब फर्जी सर्टिफिकेट बाँट रही हों बीवियाँ!

घरेलू सेविका से बलात्कार के आरोप में फिल्म अभिनेता शाइनी आहूजा को सात साल के कारावास की सजा सुना दी गई है। यह बात और है कि प्रताड़ित ने केस वापस ले लिया था, संभवतः किसी दबाव या लालच में, मगर मजिस्ट्रेट के समक्ष उसके बयान पहले ही दर्ज हो चुके थे लिहाजा कोर्ट ने अपना फैसला सुना ही दिया। इस सारे मामले में आश्चर्यजनक यह रहा कि शाइनी की पत्नी लगातार उसके पक्ष में रही, जबकि यह अपराध सेविका के साथ-साथ पत्नी के प्रति भी था। ऐसा ही हरियाणा के डीजीपी राठौर के मामले में भी हुआ जब एक चौदह साल की बच्ची रुचिका गेहरोत्रा के साथ यौन दुर्व्यवहार का केस उन पर लगा। राठौर की पत्नी न सिर्फ लगातार उनके बचाव में लगी रहीं, बल्कि कानूनविद् होने के नाते उनके कानूनी बचाव में भी आगे आईं। इन पत्नियों का यह रवैया विचित्र किंतु सत्य है।

पतियों के चरित्र को जितना उनकी पत्नियाँ जानती हैं उतना तो शायद उनकी माताएँ भी नहीं जानतीं! उनके झूठ-सच, उनके चेहरे के बदलते रंग, उनकी खामियाँ और उनकी खूबियाँ वे खूब अच्छी तरह समझती हैं। पति का बाहरी दुनिया से क्या व्यवहार है और असली दुनिया में उसका क्या रूप है यह पत्नी को पति के बारे में और पति को पत्नी के बारे में बखूबी पता होता है। अधिक नजदीकी के कारण उन्हें एक-दूसरे को मुखौटे के पार देखने की सुविधा होती है। अतः जिसकी पत्नी दिल से उसका सम्मान करती है उसमें सचमुच सम्मान करने लायक कोई बात होती है। यदि ऐसी पत्नी पति के बारे में चरित्र का सर्टिफिकेट दे रही है, तो उस सर्टिफिकेट का काफी मूल्य होता है। लेकिन झूठा सर्टिफिकेट देने वाली महिलाओं ने मामले को काफी उलझा दिया है। इससे पतियों के पक्ष में पत्नियों द्वारा दिए गए सर्टिफिकेट का अवमूल्यन हुआ है। इससे उन पतियों का नुकसान होगा जो सचमुच चरित्रवान हैं, मगर झूठे इल्जाम में फँस गए हैं और उनकी पत्नी पूरी ताकत से उनके पीछे आ खड़ी हुई है, मगर अब पत्नी के सर्टिफिकेट की सचाई कौन मानेगा?

वे पत्नियाँ जो गलत बात में भी और स्वयं के प्रति अपराध के बावजूद पति का समर्थन करती हैं, वे पता नहीं ऐसा क्यों करती हैं, मगर कुछ कयास तो लड़ाए ही जा सकते हैं। जैसे कि पति के विवाहेतर संबंधों के मामले में अक्सर पत्नी उस दूसरी स्त्री को दोष देती है, पति को नहीं। "फलाँ औरत ने मेरे पति पर जादू कर दिया है", जैसी बातें भी वे कहती पाई जाती हैं गोया कि उनका पति तो निर्दोष हो। पति भी पत्नी के सामने इतना भोला बन जाता है जैसे कि उसकी कोई गलती ही न हो। इसमें स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है वाली मानसिकता को नहीं देखा जाना चाहिए। दरअसल जिस पत्नी का पति परस्त्री से संबंध बना ले वह पत्नी मानसिक तौर पर डिनायल मोड में चली जाती है। वह खुद के समक्ष भी यह बात नहीं स्वीकार करना चाहती कि पति ने उस पर किसी और को तवज्जो दी है। इससे उसे गहरा तिरस्कार महसूस होता है। इस तिरस्कार की धार को कम करने के लिए वह खुद को बुद्धू बनाती है कि उसका पति तो उसे चाहता ही है, दूसरी औरत ही उस पर डोरे डाल रही होगी वगैरह! कभी-कभी किसी बहुत अपने की मौत के संदर्भ में भी ऐसा होता है कि सदमाग्रस्त परिजन अपने की मौत हो गई यह मानने से इंकार कर देता है, "नहीं अभी वह जिंदा है, फिर लौटेगा", कहते हुए डिनायल मोड में चला जाता है। तब मनोवैज्ञानिक उसे हकीकत का एहसास कराते हुए रुलाने की चेष्टा करते हैं। पति के चरित्र का अवसान स्त्री को ऐसी ही मरणांतक पीड़ा देता है और कभी-कभी, कोई-कोई स्त्री डिनायल मोड में चली जाती है।

वैसे तो किसी भी स्त्री के लिए पति का अन्यत्र संबंध होना रिजेक्शन का अहसास होता है। वह दूध की मक्खी की तरह महसूस करती है। मगर भारत में स्थिति और भी खराब है, क्योंकि यहाँ समाज ऐसा होने पर पत्नी की गलतियाँ गिनाने लगता है कि फलाँ है ही ऐसी तो उसका पति कहीं मन लगाएगा ही। या पत्नी में ही कुछ कमी होगी जो पति कहीं और गया। यहाँ "भला है बुरा है जैसा भी है, मेरा पति मेरा देवता है" टाइप की सीख भी बहुत दी जाती है। गलत बात पर आवाज उठाने वाली पत्नी झगड़ालू करार दी जाती है। फिर बहुत-सी पत्नियाँ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी नहीं होतीं वे भी होंठ सीकर बैठ जाती हैं। कुछ पत्नियाँ शंकालु भी होती हैं जो पुरुष के सहज व्यवहार में भी कंकड़ खोजती हैं। मगर आखिर यही कि पति-पत्नी का रिश्ता जितना गहरा है- उतना ही नाजुक भी। यहाँ बाहर से कुछ भी परिभाषित नहीं किया जा सकता। हर जोड़े की अपनी कूट भाषा, अपने संकेत और अपनी अनूठी डिक्शनरी होती है जो सिर्फ वे ही आपस में समझते हैं।

- निर्मला भुराड़िया