रविवार, 24 अक्टूबर 2010

'वाह' बिकती है!

एक हैं धन्ना सेठ। उनके पास सबकुछ है, गाड़ी, बंगला, नौकर, चाकर..., इससे भी आगे महल-सा घर, घर न हो जैसे फाइव स्टार होटल हो! और जब घर पर न हों तब महँगे फाइव स्टार होटल हैं ही। इससे भी आगे हैं पार्टियाँ, प्रदर्शन, चकाचौंध, ‍िदखावा। और जब इतना सब है तो सब लोग सेठजी को 'धन्ना सेठ' मानते ही हैं। उनकी इस रईसी से लोग भौंचक और अवाक् भी हैं। आम भाषा में कहें तो उनके आसपास के समाज में का उनकी रईसी का बड़ा भभका है, यही वे चाहते भी हैं। उन्होंने 'रईस' होने का टाइटल प्राप्त कर लिया है। इस टाइटल के जरिए सत्ता से संबंध बनाए और 'पॉवरफुल' होने का टाइटल प्राप्त कर लिया। इसके बाद 'टाटपट्‍टियाँ' बाँटकर 'समाजसेवी' होने का, अपनी अंटी से कथा-भागवत कराके 'धर्मपरायण' होने का यानी अब सेठजी रईस, ताकतवर, समाजसेवी, धर्मपरायण हैं। लेकिन सेठजी को एक चीज अखरती रही है कि 'बुद्धिजीवी' उन्हें अपने बीच का नहीं मानते-बावजूद इसके ‍िक उन्होंने जो व्यापार स्थापित ‍िकया है उसमें काफी बुद्धि और सयानापन लगा ही होगा। चतुराई के बगैर यह सब कैसे होता? पर अब सेठजी को नई धुन लगी है 'उस तरह' का बुद्धिजीवी होने की जिस तरह के बुद्धिजीवी उन्हें बुद्धिजीवी नहीं समझते। इसके ‍िलए उन्होंने एक 'इमेज-गुरु' की नियुक्ति की है।

'इमेज-गुरु' ने सेठजी की 'छवि बनाओ' प्रक्रिया के तहत सबसे पहले उनके ड्रॉइंग रूम के बुक रैक में रखने के ‍िलए बुद्धिजीवी हलकों में चर्चित कुछ आला दर्जे की किताबों के डीलक्स, हार्डकवर एडीशन खरीदकर सजाए हैं। घर के अलग-अलग कमरों के ‍लिए प्रख्यात (यहाँ ब्रांडेड पढ़ें) चित्रकारों की पेंटिंग खरीदी है। इमेज-गुरु ने सेठजी को इन चीजों के ज्ञान का इतना सार ‍िनकालकर पकड़ा ‍िदया है कि वे इन ‍िवषयों पर चर्चाएँ होने पर अनभिज्ञ से न खड़े रहें। मगर इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली घटना तो एक निमंत्रण पत्र देखने पर सामने आई। यह ‍िनमंत्रण पत्र एक कला प्रदर्शनी का था। उसकी अध्यक्षता सेठजी कर रहे थे। सेठजी और पेंटिंग की प्रदर्शनी की अध्यक्षता? मगर वे तो 'कला-मर्मज्ञ' कभी रहे ही नहीं हैं? शास्त्रीय संगीत की महफिलों में नगर सेठ होने की वजह से आदरणीय अतिथि के रूप में जाना भी पड़े तो वे सबसे आगे की पंक्ति की सीट पर बैठकर भी आराम से ऊँघते हैं। ‍िफर आयोजकों को ऐसी क्या पड़ी थी कि उन्होंने प्रदर्शनी के उद्‍घाटन के ‍िलए ‍िकसी कलाकार या कला प्रेमी को बुलाने के बजाय सेठजी को बुलया? - इस बात का राज भी दो ‍िदन में ही पता चल गया। कला प्रदर्शनी को सेठजी ने ही प्रायोजित किया था। चूँकि पैसा उनका था अत: कला-मर्मज्ञता का टाइटल भी उन्हीं का था।

यहाँ हमारा इरादा ‍िकसी की व्यर्थ नुक्ता-चीनी करने का नहीं है। और यह 'धन्ना सेठ' नाम के ‍िकसी एक व्यक्ति की बात भी नहीं है। यह तो एक पूरी प्रक्रिया की बात है, ‍िजसके तहत आज का पूँजीवादी, सत्ताधारी, वंशवादी तबका हर चीज पर कब्जा कर लेना चाहता है। जो 'वी.आई.पी.' है वही बुद्धिजीवी और कला-मर्मज्ञ भी है, वही समाजसेवी और धर्मपरायण है। उसी के बच्चे महँगी फीस भरकर, डोनेशन देकर डॉक्टर, इंजीनियर बनेंगे, उसी के बच्चे नेता और अभिनेता... सत्ता तो सत्ता आम व्यक्ति की योग्यता के लिए वे बुद्धि, प्रतिभा और योग्यता के क्षेत्र भी नहीं छोड़ेंगे। सबकुछ खरीद लेंगे। अब हम सेठजी से यह तो नहीं कह सकते कि तुम अपनी आलीशान गाड़ियों में घूमो और पार्टियों में व्यस्त रहो, रईसी के सारे सुख उठाओ पर आम आदमी के लिए आम चीजें तो छोड़ो। पर हम आम आदमी से तो यह कह सकते हैं ‍िक भाई पैसे से खरीदी कला-मर्मज्ञता पर वाहवाही मत करो! वाहवाही लुटाकर सेठजीनुमा लोगों की प्रवृत्ति को तूल देना घातक है। सोचिए जरा, कोई कुछ भी खरीद सकता है पर आपकी अंतरआत्मा की आवाज तो नहीं न!

- निर्मला भुराड़िया

2 टिप्‍पणियां: