मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

काश कोई चाँदनी होती! : यश चोपड़ा

निर्माता-निर्देशक यश चोपड़ा का नाम हिन्दी फिल्म दर्शकों के लिए नया नहीं है। 'दाग' से लेकर 'दिल तो पागल है' जैसी फिल्मों के ‍िनर्देशक और 'चक दे इंडिया', और 'न्यूयॉर्क' जैसी फिल्मों के ‍िनर्माता यश चोपड़ा का नाम एक खास किस्म की कहानी बनाने वाले स्कूल का रूप ले चुका है। खूबसूरत और संवेदनशील फिल्में बनाने वाले यशजी को इस साल किशोर कुमार सम्मान प्रदान ‍िकया गया। प्रस्तुत है यश चोपड़ा से संक्षिप्त बातचीत।

- आपकी फिल्म 'धर्मपुत्र' में बड़ा ही अच्छा संदेश था साम्प्रदायिक एकता का। अभी फिर से वही हालात हैं। सहिष्णुता कम हो गई है। क्या आप फिर 'धर्मपुत्र' जैसी फिल्म बनाएँगे?
- यह सारी दुनिया की समस्या है। सहिष्णुता अब बची ही नहीं है, इस वजह से अपराध और आतंकवाद बढ़ गया है। टालरेंस किसी के पास भी नहीं बचा है, लेकिन इस देश में हमें सुखी और शांति से रहना है तो साहिष्णुता तो रखनी ही पड़ेगी। आप यह नहीं कह सकते कि आपको मुस्लिमों की परवाह नहीं है। ये हमार देश, हमारी संस्कृति का, हमारा हिस्सा हैं। अयोध्या का फैसला हुआ तो सभी समुदायों ने इसे पॉजीटिवली लिया, कारण जो भी हो। 'धर्मपुत्र'
यदि आज बनाई जाए तो शायद स्वीकृत न हो क्योंकि सहिष्णुता और घट गई है।

- मैसेज देना तो और भी जरूरी हो गया ऐसे में...!
जैसा अयोध्या का मैसेज है, मैंने वैसा 'वीर-जारा' में मैसेज दिया, लेकिन कहानी में भावनात्मकता डालकर दिया। मैंने किसी पाकिस्तानी को गालियाँ नहीं दीं, मुस्लिम को गालियाँ नहीं दीं। उस कहानी का कोई भी पात्र विलेन नहीं था। एक भारतीय लह़का पाकिस्तानी लड़की से प्यार करने लगता है। ऐसी फिल्म में सरहद बीच में नहीं आती। रूमानियत की ही नहीं, इंसानियत की भी कोई सरहद नहीं थी वहाँ। पिक्चर पाकिस्तान में भी अच्छी चली। मुझे कहा गया था ‍िक वो सिंदूर वाला सीन काट दो, हम पिक्चर सेंसर करा देंगे... मैंने कहा नहीं, वो ही तो पिक्चर है, यही मेरा सिंबल है। मेरा हिन्दुइज्म ही सिंबल है। एक हिन्दू लड़का एक मुस्लिम लड़की के प्रति प्रेम कैसे व्यक्त करेगा? शेक हैंड करके तो नहीं! अपनी संस्कृति के ‍िहसाब से ही करेगा।

- एक महत्वपूर्ण बात जो आपकी फिल्मों में देखने को ‍िमलती है, वह है प्लेटोनिक लव। 'दिल तो पागल है' में एक दृश्य है जिसमें माधुरी को देखा नहीं है शाहरुख ने और वे शाहरुख की धुन पर डांस कर रही हैं।
... मैं मानता हूँ कि कोई न कोई आपके लिए बना होगा...। यह अलग बात है कि कभी आप उससे मिल पाते हैं और कभी-कभी नहीं भी मिल पाते हैं। माधुरी-शाहरुख को हम 'सोलमेट्‍स' कह सकते हैं। जो धुन वहाँ बज रही है, वह लोकेशन पर नहीं, माधुरी के अंतरमन में है। लेकिन मैं इंसानी रिश्तों पर फिल्म बनाता हूँ। इसका मतलब यह नहीं है कि वे हमेशा रोमांटिक हों। 'दीवार' में प्यार हाशिए पर था। यह कहानी दो भाइयों और माँ-बेटे की कहानी थी और यही महत्वपूर्ण हिस्सा था फिल्म का। इसमें शशि-नीतू और परवीर-अमिताभ का लव कैसा है? वह कहानी का हिस्सा है, लेकिन वही मुख्य कहानी नहीं है।

- एक कहानी ‍िजस पर आप फिल्म बनाना चाहते हैं, वह कितना समय लेती है?
ठीक वैसे ही जैसे कोई महिला कंसीब करती है। जैसे ही वह प्रैग्नेंट होती है, वैसे ही डिलीवर नहीं कर सकती। कभी-कभी कोई आइडिया आता है, लेकिन शेप नहीं ले पाता है, बहुत समय लगता है। कर्मशियली बहुत चलता रहता है, पिक्चर ऐसे बनाऊँगा, वैसे बनाऊँगा... यूँ बहुत सारे आइडिया आते हैं लेकिन हर आइडिया कहानी का रूप नहीं ले पाता है। मेरे ‍िदमाग में आइडिया है कि ‍'दिल तो पागल' बनानी है, मैं बनाऊँगा। अब 'दिल तो पागल है' को लोगों ने कहा कि ये बहुत एलिट आइडिया है, चलेगा नहीं। मैंने कहा- मैं बनाऊँगा। लोग कहते हैं कि मैंने 'सिलसिला' और 'लम्हें' वक्त से पहले बना दी। मैं सही नहीं मानता हूँ। मेरे कंसेप्ट, मेरे मिजाज से मैं फिल्म बनाता हूँ। हाँ, हर फिल्म में व्यावसायिक और सृजनात्मक दोनों वजहों को ध्यान में रखता हूँ।

- साहिर लुधियानवी के साथ आपने बहुत काम किया। साहिर जैसे लोग तो कभी-कभी ही पैदा होते हैं। क्या आपको उनकी कमी खलती है?
बहुत खलती है...। वे मेरे बहुत करीबी दोस्त थे। मैं पाँच मिनट में उनको कोई बता समझाऊँ, फिर उन्हें दोबारा समझाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। अपने सामाजिक और भावनात्मक गानों में भी दृश्य के अनुरूप कविता कर लेते थे। ही डाइड टू सून... वे बहुत जल्दी चले गए। वे अकेले और तन्हा हो गए थे, क्योंकि उन्होंने शादी नहीं की थी, लेकिन उनका योगदान बहुत रहा। मैं नहीं सोचता हूँ कि कोई और लेखक उनके स्तर का काम कर पाएगा।

- नए निर्देशकों को आपने बहुत मौका दिया। इसके पीछे कोई विजन है?
मैं सोचा करता हूँ कि ईश्वर ने मुझे कुछ दिया है कि मैं नए लोगों को मौका दे सकता हूँ। नए निर्देशक नए आइडिया लेकर आते हैं, कभी वो अच्छे होते हैं, कभी अच्छे नहीं होते हैं। कभी फिल्में चलती हैं, कभी नहीं चलती हैं, हम कंपनी के तौर पर कोशिश करते हैं कि हम नए लोगों, चेहरे, निर्देशक, गायकों, म्यूजिक डायरेक्टर, नए राइटर को मौका दें। हमने 'चक दे इंडिया', 'फना', 'धूम', 'न्यूयॉर्क', 'रब ने बना दी जोड़ी', 'हम तुम' में नए लोगों के नए आइडिया के साथ काम किया है।

-स्विट्‍जरलैंड आपका प्रिय डेस्टिनेशन कैसे बना?
पहले मैं टूरिस्ट की तरह गया था, फिर पत्नी के साथ हनीमून पर गया। वहाँ घुसते ही बहुत शांति-सी लगती है आज भी। स्विट्‍जरलैंड ने मुझे बड़ा सम्मान ‍िदया है। मैं जब भी वहाँ जाता हूँ तो महसूस करता हूँ कि ईश्वर ने इस देश को बहुत खूबसूरत बनाया है और वहाँ के लोगों ने उस देश को और भी खूबसूरत बना दिया है।

-'चाँदनी' नाम आपकी फिल्मों में बहुत यूज हुआ है।
चाँदनी आई फील इज प्योरिटी... यू थिंक ब्यूटी ऑफ चाँदनी... पर्ल... व्हाइट... ज्वेलरी... लाइट, प्योर, व्हाइट, व्हेन यू थिंक ऑफ चाँदनी यू थिंक ऑफ ब्यूटी...।

-लोग क्या समझते हैं, आप जानते हैं? नहीं, क्या ?
कि चाँदनी नाम की कोई लड़की पार्टीशन के समय पाकिस्तान में छूट गई है। नहीं, ऐसा नहीं है... काश ऐसा होता...!

- निर्मला भुराड़िया

2 टिप्‍पणियां: