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दूसरा महत्वपूर्ण परिवर्तन लड़कों की सामाजिक स्थिति को लेकर आया है। अब यह जरूरी नहीं िक लड़कों को अपने जन्म स्थान पर ही रोजगार मिल जाए। लड़कों को उच्च शिक्षा के लिए तो अपने गाँव-शहर से बाहर जाना ही होता है, रोजगार के अच्छे अवसर भी अक्सर गाँव-घर से बाहर तलाशने होते हैं। अत: बसेरे से दूर जाने पर उन्हें भी अब घरेलू कामकाज में अनाड़ीपन के परिणाम भुगतना पड़ते हैं। रोज जला पराठा या दूध-ब्रेड खाना भारी पड़ जाता है। कपड़ों और जुराबों की अव्यवस्था से जूझना पड़ता है तो बाथरूम में बनियाना-तौलिया रखे नहीं िमलते। लेकिन अमूमन माताओं का ध्यान इस परिवर्तन की ओर नहीं गया है। वे अब भी अपने लाल को हाथ में चीज देकर अपने पर िनर्भर बनाए रखती हैं। या उन्हें लगता है कि उनकी पत्नी आकर इन कामों को निभा देगी। लेकिन बदली परिस्थितियों में युवकों को माँ सरीखी पारंपरिक पत्नी मिलना भी मुश्किल हो गया है। तो फिर इस बदलाव को नकारने की नाकाम कोशिश के बजाए लड़के भी अपने कार्यों का दायरा क्यों न बढ़ाएँ। ऐसा करना न स्त्री-पुरुष की भूमिका की अदला-बदली है, न भूमिका का बँटवारा। ऐसा करना एक व्यक्ति में गुणों की समग्रता का होना है- वह फिर चाहे स्त्री हो या पुरुष।
bilkul sahi aur sateek pahalu par baat ki aapne...
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