रविवार, 30 जनवरी 2011

अपराधिनी?

जुलाई 2009 में सूडान में एक महिला को गिरफ्तार करके सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाने की सजा सुना दी थी, इस अपराध में कि उसने पैंट पहन ली थी। सूडान में यह अपने आप में पहला मौका नहीं है। वहाँ पारंपरिक कपड़े न पहनने और पतलून पहनने वाली महिला को ऊँट के बालों से बने सख्त कोड़े लगाए जाते हैं, वह भी ऐसे सार्वजनिक स्थल पर ले जाकर, जहाँ जो चाहे सो दर्शक बन सके।

लुबना एक रेस्टॉरेंट में अपनी कजिन की शादी की बुकिंग के लिए आई थीं। यहाँ इंतजार करते हुए वे अपनी टेबल पर कोल्ड्रिंक की चुस्की ले रही थीं, तभी उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, क्योंकि उन्होंने ग्रीन ट्राऊजर पहना हुआ था, जो उनके समाज और सरकार की नजर में पाप है। कोड़े की सजा तो इंतजार कर ही रही थी। सैकड़ों लोगों के समक्ष पु‍लिस ने लुबान को मारते-पीटते हुए वैन में बैठाया और अपमान किया, इस उम्मीद में कि वे रोएँगी, गिड़गिड़ाएँगी, माफी माँगेंगी जैसे कि पैंट पहनने की अन्य 'अपराधिनियाँ' करती हैं। या फिर सजा से मुक्ति के लिए कोई 'दैहिक एहसान' करेंगी, जैसा कि कई बार अफसर चाहते हैं। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। लुबना अड़ी रहीं कि उन्हें सजा दे ही दी जाएँ, जिसे देखने के लिए वह दुनिया के अन्य हिस्सों से भी दोस्तों को और स्वतंत्र नेताओं को आमंत्रित करेंगी, ताकि वे अपनी आँख से देखें कि आज के समय में भी स्त्रियों के साथ कैसा अत्याचार किया जा रहा है। यूँ लुबना सूडान में संयुक्त राष्ट्रसंघ के कार्यालय में कर्मचारी भी हैं, जिसके लिए सूडानी कानून में यह प्रावधान है कि वे सजा से कृपा पा सकती हैं। मगर उन्होंने इस प्रावधान का भी इस्तेमाल करने से मना कर दिया और संयुक्त राष्ट्र कार्यालय के जॉब से इस्तीफा दे दिया, ताकि कोड़े लगा ही दिए जाएँ।

लुबना का कहना था, 'मैं सजा से पीछे इसलिए नहीं हटना चाहती कि दुनिया को पता चले कि हमारे यहाँ औरतों की कैसी दुर्दशा है। विश्व जनमत के दबाव से ही बदलाव आ सकता है।' लुबना की बात कुछ हद तक सच निकली। उन्होंने अपने केस की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित कर ही लिया और अंतत: उनकी सजा विश्व जनमत, मीडिया और अन्य राष्ट्रों के दबावों के चलते स्थगित हुई, लेकिन लुबना का केस पीछे एक विचार छोड़ गया। आधुनिक प्रजातांत्रिक देशों को छोड़े दें तो कई पिछड़े देशों में स्त्रियाँ क्या पहनें, क्या न पहनें, यह समाज और कहीं-कहीं तो सरकार द्वारा भी नियंत्रित किया जाता है। भारत में यूँ तो आधुनिक स्त्री पर वस्त्र-चयन संबंधी कोई पाबंदी नहीं है, लेकिन मेट्रोज को छोड़ दें तो सामान्य शहरों-कस्बों में आज भी नारी की वेशभूषा का फॉर्मेट बेहद समाज नियंत्रित है। अक्सर हंगामा हो जाता है कि लड़कियाँ जीन्स क्यों पहनती हैं? या जीन्स अश्लील है या फलाँ ड्रेस अमर्यादित है, जबकि यह पहनने वाले पर निर्भर है कि वह कौन-सी ड्रेस किस तरह पहनता है, ड्रेस के प्रकार पर नहीं। पारंपरिक वेशभूषा में भी नाभिदर्शन, पीठ दर्शन, बड़ा गला हो सकते हैं और पैंट-शर्ट भी व्यवस्थित ढंग की हो सकती है। अत: सवाल ड्रेस का नहीं है। सच कहें तो सवाल तो मर्यादा की भी नहीं है, वह तो सिर्फ हवाला देने की बात है। जो मर्यादा का हवाला देते हैं, वे भी मन ही मन में जानते हैं कि समाज परंपरा और रूढ़ि के अनुसार वस्त्र पहनना स्त्री की आज्ञाकारिता का प्रतीक अधिक है, मर्यादा का कम। समाज द्वारा ड्रेस तय ड्रेस कोड तोड़ने वाली के लिए माना जाता है कि वह 'बस में नहीं है।' एक उदाहरण है पाचस-साठ के दशक में जब मारवाड़ी स्त्रियाँ घाघरा ओढ़नी ही पहनती थीं। उल्टे पल्ले की साड़ी पहनना फैशन की बात समझी जाती थी। उस जमाने की एक स्त्री ने अपने साथ घटित एक वाकया बताया कि उन दिनों वे एक दिन अपने मायके गई। वहाँ उन्होंना साड़ी पहनी। उनके ससुरजी को पता चल गया तो उन्होंने तुरंत उन्हें ससुराल बुलाया और व्यंग्य के तेवर में पगड़ी अपनी बहू के चरणों में रख दी और व्यंग्य में ही कहा- 'हमारी लाज रखो साड़ी पहनकर जमानेभर में मत घूमो।' यह बिलकुल सच्चा किस्सा है। उस दिन जो साड़ी बहू की उज्जड़ता का प्रतीक थी, आज वह मर्यादा का प्रतीक है। समय-समय की बात है। फेर सब हमारी नजर का है। यह ठीक है कि हमारे यहाँ वस्त्र चयन पर कानूनी रोक-टोक और सजा नहीं है, मगर समाज की टेढ़ी नजर और परिवार द्वारा लाज की दुहाई देकर लादे गए बंधन आज भी हैं। जिन्होंने सिले-सिलाए कपड़ों की तार्किकता और व्यावहारिकता को समझ लिया है वे लोग जरूर बंधन हटा रहे हैं। जब सिले-सिलाए वस्त्री की तकनीक उपलब्ध है तो इसकी सुविधा और वैज्ञानिकता को आँखों पर रू‍ढ़ियों की पट्‍टी बाँधकर नजर अंदाज क्यों किया जाए? भारतीय पुरुषों ने तो काफी समय से सुविधा को देखते हुए कार्यालयीन समय में पारंपरिक वेशभूषा पहनने का बंधन त्याग दिया है, फिर स्त्रियों के लिए इतनी 'हू-हा' क्यों?

- निर्मला भुराड़िया

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

हैलो हैप्पीनेस!

दादी खरीद लाईं पट्‌टी-पहाड़ा, दादाजी ने डाला नीबू का अचार! है न, यह खबरों की खरब! पर इसे कवर करने कोई टी.वी. वाला नहीं आएगा। आए भी क्यों खबर तो यूँ ही बन जाएगी क्योंकि दादी अब सब्जी वाले का हिसाब राउंड-फिगर्स में नहीं देने वाली और दादाजी कॉलोनी में अपना बनाया नीबू का अचार बॉंटने वाले हैं। हॉं यह पता करने के लिए "स्टिंग ऑपरेशन' की जरूरत अवश्य पड़ सकती है कि इन्हें यह शौक चर्राया क्यों? तो चलिए अपने शब्दों का कैमरा इनके पीछे लगा देते हैं। और जानते हैं माजरा क्या है?

दरअसल दादी शब्द से आपके दिमाग के स्क्रीन पर सिर पर पल्लू लिए, भाल पर बिंदी, कोथमिर में से हरी मिर्च छॉंटती महिला न हीं आना चाहिए। यह तो इनकी भी सास की छबि थी। हमारी यह दादी उससे आगे की पीढ़ी की है। बी.ए. पास है। इन्होंने पल्लू उलट लिया है। ये उलटा पल्लू पहनती हैं, बालों को ट्रिम भी करवाती हैं, पोते को नर्सरी राइम्स भी रटवाती हैं। खैर... बात हो रही है पट्‌टी-पहाड़ा की। पट्‌टी-पहाड़ा जानते हैं! पहाड़े की किताब। दादी जब किशोरावस्था में थीं उनके बाबूजी हमेशा ताकीद करते थे, इस किताब में से पहाड़े रटने की। उनकी गणित अध्यापिका भी पहाड़े न रटने वाली लड़कियों को सजा देती थीं। मगर हुशियार दादी (जो उस वक्त दादी बिलकुल नहीं थीं) गुणा-भाग करके पहाड़ा तैयार कर लेती थीं और उसे मुखाग्र करने से बच जाती थीं। मगर इस उम्र में उन्होंने पढ़ा इंसानी दिमाग में मौजूत अलग-अलग गलियारों के बारे में। उन्होंने पढ़ा कि अब तक सूने पड़ा रास्तों पर दिमाग को दौड़ाया जाए तो जीवन में नवीनता आती है और बस उन्हें याद आ गई अपने गुजरे हुए बाबूजी की ताकीद। गजब है दादी को अब पहाड़े याद करने में मजा आ रहा है। वे अब धोबी की डायरी और आलू-प्याज वाले के हिसाब-किताब में भी आनंद ले रही हैं। क्योंकि यह मामूली क्रिया भी उनको कुछ नया करने का सुख दे रही है। ठीक यही कारण है जिससे कि नामी चिकित्सक दादा भी नीबू का अचार डाल रहे हैं। दादा और किचनसेवी? कभी नहीं! उन्हें तो जीवन में कभी अचार खाने की ही फुर्सत नहीं मिली अचार डालना तो दूर की बात है। मगर आज जब उन्होंने अचार डालने का मन मनाया तो उन्हें अलग ही किस्म का मजा आया। ऐसा मजा जो हमेशा एक जैसी होने वाली पार्टियों में भी नहीं आता।

इसी तरह के और भी लोग आजकल देखने को मिलते हैं, जो फिफ्टी प्लस या सिक्सटी प्लस पर नई स्किल्स सीखते हैं। मामूली लेकिन जरा हटके किए गए कामों का मजा लेते हैं। और हॅंसकर कहते हैं- हैलो हैप्पीनेस।

- निर्मला भुराड़िया

यादों की बारात

इसराइल के प्रधानमंत्री एरियल शेरॉन जब कोमा में चले गए तो उनकी स्मृति लौटाने के प्रयासों में सबसे महत्वपूर्ण प्रयासों की गिनती में थे - उनका मनपसंद भोजन सुँघाना, उन्हें उनके पोते की आवाज सुनाना, उनका मनपसंद संगीत सुनाना। दरअसल हमारी यादें कई रास्तों से दिमाग में दर्ज होती हैं। जैसे घ्राण तंत्र के ‍जरिए ऑलफेक्ट्री मेमोरी, दृष्टि के जरिए विजुअल मेमोरी, कानों के जरिए श्रव्य मेमोरी। इस तरह घटनाएँ, दुर्घटनाएँ, जीवनानुभव, स्पर्श, व्यवहार आदि भी हमारी स्मृति में दर्ज होती हैं। तभी तो ऐसा होता है कि बारिश होती है तो स्कूल खुलने के दिनों की याद आ जाती है। माँ की अनुपस्थिति में माँ की साड़ी से आती खुशबू माँ की याद जगा सकती है। कोई पुराना गाना सुनने पर उस गाने का समयकाल यादों में तैर जाता है।
जैसे यादें तरह-तरह के रास्तों से दिमाग में दर्ज होती हैं वैसे ही दिमाग में भी वे अलग-अलग क्षेत्रों से अलग-अलग विभागों में दर्ज होती हैं। कुछ यादें सुखकारी होती हैं, कुछ दु:खकारी। अच्छा हुआ प्रकृति ने विस्मृति का वरदान मनुष्य को दिया तभी दु:ख की छाया समय के साथ मद्धिम होती है। कटु यादें धुँधली भी पड़ती हैं। हालाँकि दु:ख, दुर्घटना और विपत्ति पर मनुष्य का जोर नहीं है अत: इनसे जुड़ी यादों की तीव्रता कम करने के लिए हमें समय पर ही निर्भर रहना होता है। मगर जो यादें हमारे संवेदना तंत्र के जरिए हममें दर्ज होती हैं उन्हें आचरण के जरिए साधा जा स कता है और दु:खद एवं कटु यादों पर सुखद व अच्छी यादों का प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है। जब हम किसी की अच्छी बात के लिए उसके कृतज्ञ होते हैं तो सामने वाले के साथ-साथ अपने मन को भी खुशियों से सजा सकते हैं। अच्छाई को अपनी यादों में दर्ज कर लेते हैं। जब किसी बुरे काम के लिए हम किसी को क्षमा कर देते हैं तो स्मृति तंत्र में लगी गाँठ को खोलते हैं और कटुता को निकासी दे देते हैं। याद है न गाँधीजी के तीन बंदर जो प्रतीक हैं बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो के। यदि इसी तरह आचरण से हम अच्छी यादों का प्रतिशत बढ़ाएँ तो खुशनुमा रहने की प्रवृत्ति विकसित होती है। क्या आपको याद है आपने पिछली बार कब किसी अपने को फूल या चॉकलेट दिया था? या उसे प्यार से छुआ था?

- निर्मला भुराड़िया

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

पुरूष है, पत्थर नहीं!

इंसान भावनाओं का पुतला है। तरह-तरह के उद्वेग, प्रतिक्रियाएँ, संवेग और संवेदनाएँ हमारे भीतर होती हैं। भीतर की ये हलचलें कई बार अभिव्यक्ति चाहती है। दबाने पर ये ज्वालामुखी भी बन सकती हैं और गलत समय पर गलत जगह फूटकर नुकसान भी पहुँचा सकती हैं। इसीलिए मानव समाज ने ऐसी परंपराएँ भी विकसित की हैं, जो भावनाओं को अभिव्य‍क्त करने का मौका देती हैं, उद्वेगों को खुलकर प्रकट होने का अवसर देती हैं। विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों में इनके अलग-अलग रूप देखे जा सकते हैं। जैसे एक संप्रदाय में मातम मनाने का एक दिन तय है, जिस मौके पर लोग रोते, चिल्लाते और छाती पीटते हैं। कुछ संस्कृतियों में ऐसे त्योहार होते हैं, जिनमें लोग एक-दूसरे पर टमाटर फेंकते हैं। होली के दिन का तो सूत्र वाक्य ही रहता है, 'बुरा न मानो होली है' और इस दिन लोग रंग लगाते हैं, पुराने कपड़े पहनते हैं। होली की ठिठोली भी होती हैं, होली का हुड़दंग भी। कालांतर में इसमें बुराइयाँ भी आई हैं, मगर निश्चित ही ये त्योहार इन बुराइयों के लिए इजाद नहीं किए गए थे। खास बात होती है मिलना-जुलना और खुलकर अभिव्यक्त करना। परंपराओं में नृत्य और संगीत के द्वारा भी स्वयं को अभिव्यक्त किया जाता है। वहीं घ‍ड़ियाल और शंख बजाकर ध्वनि भी की जाती है। बंगाल के कुछ घरों में तो मुँह से आवाज निकालकर ही शंख सी ध्वनि करने का भी रिवाज है, लोग जोर से 'ऊलू लू लू' करके आवाज करते हैं। युवाओं की टोली जब कोई खेल देख रही होती है तो जोश की अभिव्यक्ति के लिए हू-हू की आवाजें खूब करती है। यह सब भावनाओं का विरेचन है। भीतर के संवेगों का बाह्य प्रगटन है।

अपने मन को दुरुस्त रखने के लिए इंसान ने ही तरह-तरह की प्रणालियाँ विकसित की लेकिन वहीं कई स्थानों पर उद्वेगों को व्यर्थ ही दबाने के लिए सामाजिक बंधन भी लागू कर दिए। तात्पर्य यह नहीं कि आवेश आने पर व्यक्ति किसी का गला घोंट दे। मगर सामान्य भावनाओं पर झूठी शान के पहरे भी यहाँ लगाए जाते हैं। कई बंधन तो जेंडर स्पेसिफिक भी होते हैं, लिंग के आधार पर तय कर दिए जाते हैं, व्यक्ति और स्थिति-परिस्थिति के आधार पर नहीं। जैसे कि लड़कियों का ठहाका लगाकर हँसना बुरा माना जाता है, लड़कों का रो देना एक किस्म की सामाजिक वर्जना से ग्रस्त है। स्त्रियों के ठहाके पर तो आपत्तियाँ कम हो चली हैं, मगर पुरुषों के रोने से जुड़ी वर्जनाएँ टूटी नहीं हैं। गहरे सामाजिक संस्कार, वर्जनाओं, पुरुष के रुदन से जुड़े उपहास की वजह से खुद पुरुषों में ऐसी भावनाएँ विकसित हो जाती हैं कि वे रोने को कमजोरी मानने लगते हैं। जबकि ऐसा नहीं है, रोना संवेदना की निशानी है। पत्थर क्या खाक रोएँगे? उन्मुक्त ठहाका हो या खुलकर रोना, यह व्यक्ति के दिल में फँसे गुबार को उलीच देता है। छाती साफ कर देता है। बेटी की बिदाई पर रोता बाप क्या खराब लगता है? उस वक्त तो हमको उसमें स्नेहिल-कोमलता के दर्शन होते हैं। फिर हम बाकी स्थितियों-कोमलता के दर्शन होते हैं। फिर हम बाकी स्थितियों में पुरुष के रोने को उपहास की दृष्टि से क्यों देखते हैं? बहादुर होने का अर्थ कोमल संवेदनाओं रहित होना नहीं है। और न ही कोमल होने का अर्थ कमजोर होना है।

- निर्मला भुराड़िया

रविवार, 23 जनवरी 2011

बेगानी शादी में भाड़े के दीवाने!

एक बहुसितारा होटल में शादी का कार्यक्रम था। चूँकि ऊँची होटल थी अत: उस होटल में कुछ विदेशी भी ठहरे हुए थे। उन विदेशियों का शादी वालों से कोई दूर का भी लेना-देना नहीं था। पर शादी वालों ने उन्हें अपनी शादी में आमंत्रित कर लिया था। जी नहीं, इसलिए नहीं कि 'होटल-साथी' होने की वजह से उनके प्रति शादी वालों की कोई आत्मीयता उमड़ पड़ी थी। गोरी चमड़ी के प्रति शाश्वत गुलामी के चलते यह भावना जरूर उमड़ पड़ी थी कि विदेशी मेहमानों के आने से शादी की शान बढ़ जाएगी! लोग समझेंगे कि इनकी तो विदेशों में भी जान-पहचान है। लोग ये भी समझ सकते हैं कि शादी वालों का ‍विदेशों में भी व्यापार-व्यवसाय है! जो आप नहीं हैं वह समझाना चाहते हैं तो ऐसे करतब करना पड़ते हैं। शादियों को झूठी शान से जोड़ने के लिए पूर्व में ऐसा भी हुआ है कि किराए पर बाराती बुलाए गए। बड़े-बड़े लोगों से रिश्ता है यह बताने के लिए शादी में भाड़े पर फिल्म स्टार भी बुलाए जाते हैं।

मगर शादियों का बाजारीकरण यहीं नहीं रुका है। बड़े शहरों की शादियों में मेहमान ही नहीं मेजबान भी खरीदे जाने लगे हैं! जी नहीं, रिश्तेदारों और घर के लोगों को ही आंगतुकों का स्वागत करने के लिए पैसे नहीं दिए जा रहे (हालाँकि उसकी भी नौबत आएगी लगता है), मेजबान बनकर स्वागत करने के पैसे दिए जा रहे हैं विदेशियों को! बड़े शहरों की इवेंट मैनेजमेंट कंपनियाँ भाड़े के विदेशी मेजबान ला देती हैं। पैसे लेकर मेजबान आपके द्वार पर हाथ जोड़कर मुस्कराते खड़े हो जाते हैं। अटपटे नमस्कार के साथ वे एइए (आइए) कहना भी सिखाए होते हैं। कॉकटेल पार्टी में वे बार के पार भी हो सकते हैं, भोजन की टेबल पर वे परोसगारी करने वाली घरेलू टीम के साथ भी होते हैं और वरमाला में दोस्तों के झुंड के साथ ताली बजाते हुए भी!

यह सब देखकर ऐसा नहीं लगता कि हम विवाह समारोह की मूल भावनाओं से भटक गए हैं? ये समारोह इसलिए किए जाते हैं कि नए जोड़े का रिश्तेदारों और आत्मीय स्वजनों से परिचय हो सके। और नया जोड़ा अपने वालों के साथ मिलकर नाचे-गाए, खाए-पिए, खुशियाँ मनाए और नए जीवन में प्रवेश करे। मगर यह सब भूलकर आज ‍शादियाँ फिजूल खर्च, झूठी शान और दिखावे की प्रतीक बनकर रह गई हैं। मगर सोचिए जरा क्या ज्यादा तड़क-भड़क से की गई शादी ज्यादा टिकेगी क्या? नहीं न! तो फिर इस सब का क्या आशय?

- निर्मला भुराड़िया

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

पापा, डैडी और बाबूजी!

पिता! एक निश्चिंतता का नाम है पिता। पिता छत है, पिता आकाश है। पिता वह सुरक्षा कवच भी है, जो अपनी छाती पर तूफान झेलकर संतान की रक्षा करता है। पिता के होते संतान को ज्यादा चिंता नहीं होती, उसे पता होता है 'पिता सब संभाल लेंगे।' डाटेंगे-डपटेंगे, ताना देंगे तब भी मझधार में तो नहीं छोड़ेंगे। पता नहीं कितने बेटे डाँटते पिता की मूँछों के नीचे छुपी मुस्कार को पढ़ पाते हैं, पर वह होती जरूर है। पिता के त्याग की महिमा कभी गाई नहीं जाती, पर वह होती जरूर है। पिता का त्याग अक्सर दिखाई नहीं पड़ता, पर वह भी होता जरूर है। यही बात पिता के वात्सल्य पर भी लागू होती है। वह छलक-छलक नहीं जाता, पर पिता के हृदय की हर धड़कन में व्याप्त होता है। नए युग के पिता तो अपने वात्सल्य की खुलकर अभिव्यक्ति भी करते हैं। अपने बच्चे के पालन-पोषण के हर पल का रोमांच भी लेते हैं। बच्चों से मित्रता स्थापित करते हैं। अत: बच्चे पिता से अपनी बातें साझा करते हैं। इसका फायदा यह होता है कि वे गुमराह होने और मुसीबत में फँसने से बचते हैं। मुसीबत में फडस भी जाएँ तो उस दलदल में ज्यादा धँसने से बच जाते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी गलतियाँ पिता से छुपाना नहीं पड़तीं। अत: कुछ गलत होने पर अपने अनुभव के माध्यम से पिता उन्हें उबार सकता है। पुत्र ‍कितना ही बड़ा हो जाए, वात्सल्य के सन्दर्भ में वह पिता के लिए छोटा ही होता है। हाल ही में एक किस्सा देखा- सत्तर वर्ष के पिता और चालीस वर्ष के पुत्र का। अब पुत्र कमाता है, घर संभालता है और पिता की देखभाल, सुख-सुविधा की जिम्मेदारी भी अब पुत्र की है। यह कर्तव्यों की ऋक तरह की अदला-बदली-सी है। लेकिन एक रोज पुत्र पर कोई विपत्ति आ पड़ी। आर्थिक और सामाजिक तौर पर पुत्र उस विपत्ति से स्वयं और स्वयं के संसाधनों द्वारा निपट ही रहा था, तभी पिता ने एक प्रस्ताव रखा, 'मैं तुम्हारे दु:ख को कम करना चाहता हूँ, बेटा मैं तुम्हें लगे लगाना चाहता हूँ।' यह एक ऐसा दृश्य रहा होगा कि पत्थर भी पिघल जाए। तो दु:ख क्यों न पिघले? पिता के आलिंगन से बेटे को दु:ख के क्षणों में गहन भावनात्मक संबल मिला। ऐसा लगा जैसे पिता ने अपनी सकारात्मक ऊर्जा पुत्र में स्थानांतरित कर दी हो।

बेटियों के लिए थोड़ा अधिक नरम तो हर युग का पिता रहा है, मगर आज का पिता इस कोमलता को अपनी भाव-भंगिमा में भी आने देता है। बेटियाँ पिता से अनुशासन में हमेशा ढील पा जाती हैं। स्नेह की हथकड़ी में बँधा पिता अक्सर बेटियों को कुछ कह नहीं पाता। बेटियाँ पिता के हृदय में महारानियों के पद पर विराजमान होती हैं तो बेटियों के मन में भी पिता के प्रति आस्था आध्यात्मिक ऊँचाइयाँ लिए होती है। मेरे पिता जैसा कोई नहीं वाली भावना अक्सर उनके मन में होती है। सच तो यह है कि पुत्र हो या पुत्री दोनों के लिए ही पिता एक बहुत बड़ी शक्ति है, संबल है, आश्वासन है। पिता का न होना एक ऐसी रिक्ती है, जिसे और कोई नहीं भर सकता। इस सन्दर्भ में अपनी एक कविता की ये पंक्तियाँ ही रिक्ती की उस भावना को थोड़ी गहनता से अभिव्यक्त कर सकेंगी, पढ़िए-

लड़कियों के लिए पिता
उतने ही जरूरी होते हैं
गेहूँ की बालियों के लिए जितने कि
पानी, धूप और खाद
तभी वे सुनहरी हो लहलहाती हैं।
पिता न हों तो भी
उगती और बढ़ती तो हैं लड़कियाँ
क्योंकि दुनिया में कुछ भी रुक सकता है
बस लड़कियों की बाढ़ नहीं।
.... मगर तब लड़कियाँ
सुनहरी बाली नहीं
जंगली घास होती है
पिता होता है उनके लिए
मात्र एक बीज
जिसे वे नहीं जानतीं
हवाओं न कब बिखेरा था।
बिना पिता की लड़कियाँ
जानती हैं उनका उगना
किसान की ऊष्ण मुट्‍ठियों की
आत्मीयता नहीं लिए है
तभी वे ढ़ँढती फिरती हैं
अपना खोया बचपन हर घड़ी
और हर पुरुष में
सबसे पहले
खोजती हैं पिता।

- निर्मला भुराड़िया

बुधवार, 19 जनवरी 2011

खुले आम बिक रहा अंधविश्वास

टेलीविजन पर एक विज्ञापन पिछले दिनों देखा। व्यक्ति को नजर लगने से बचाने का यंत्र, गले में डिजाइनर लॉकेट के रूप में पहने जाने वाला इस विज्ञापन के माध्यम से बेचा जा रहा है। सामान्य विज्ञापनों की तरह यह विज्ञापन चंद सेकंड का भी नहीं है। यह लम्बा चलता है लगभग आधे घंटे तक। आधुनिक वेशभूषा, मेकअप, केशसज्जा वाली एक अल्ट्रा मॉडर्न लड़की इसकी सूत्रधार है। विज्ञापन में एक दृश्य बताता है कि एक पड़ोसन दूसरी पड़ोसन की नन्ही बच्ची का लाड़-दुलार करती है, उसकी तारीफ करती है उससे बच्ची को नजर लग जाती है और वह बीमार हो जाती है। नजर लगने के दृश्य में पड़ोसन की आँख से किरणें निकलकर बच्ची पर पड़ते हुए बताई जाती है। चूँकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में स्पेशल इफेक्ट्‍स के जरिए ऐसा भ्रम रचना संभव है। इसी विज्ञापन के एक दृश्य मेंब ताया जाता है कि एक महिला का नया घर बना है। महिला की चाची सास आती है और भवन की और महिला के पति की तारीफ करती है, अपने स्वयं के पति को निठल्ला बताते हुए और यह क्या? पड़ोसन की आँखों से बुरी नजर किरणों के रूप में निकलती है और भवन वाली महिला के पति को नजर लग जाती है। इसका उपाय क्या? पौने तीन हजार रुपए कीमत वाला विज्ञापित लॉकेट धारण करो तो लॉकेट व्यक्ति के आसपास प्रकाश का एक सुरक्षा चक्र बनाएगा और आँखों से निकलने वाली बुरी किरण उससे टकराकर लौट जाएगी। सिर्फ पौने तीन हजार में नजर का काम तमाम! लगे हाथों विज्ञापनकर्ता यह बताना भी नहीं भूलते कि यह लॉकेट इतना गुणी है कि पौने तीन हजार में तो बहुत सस्ता है।

चूँकि दृश्य-श्रव्य माध्यम से यह झूठ और अंधविश्वास बताया जा रहा है अत: नासमझ मनों पर यह और ज्यादा असर डाल सकता है। वैसे ही अंधविश्वास प्रगति की राह में रोड़ा बना हुआ है, ऊपर से प्रचार माध्यम अपनी नैतिक जिम्मेदारियाँ भूलकर अंधविश्वास बढ़ाने का काम कर रहे है, यह बहुत बुरा और विरोध योग्य है।

स्त्री छवि के नाते भी देखा जाए तो पिछड़े, अंधविश्वासी पात्रों को बताने के लिए पड़ोसन और चाची सास जैसे महिला पात्रों का उपयोग किया गया है। विशेष तौर पर स्त्रियों को ही संकीर्ण और ईर्ष्यालु बताना एक पूर्वाग्रह ग्रसित प्रवृत्ति है। किसी भी तरह के मीडिया का काम गलत चीजों का भंडाफोड़कर, बुराइयों के प्रति आगाह करना, भ्रमों का खुलासा करना है, अंधविश्वास को बढ़ाना नहीं। ताकि एक स्वस्थ समाज बनाने में मीडिया की भूमिका रहे।

- निर्मला भुराड़िया

क्या मुर्गा ही मुर्गे का दुश्मन होता है?

एक बड़े सम्पादक-लेखक का आलेख बहुत चाव से पढ़ रही थी कि आलेख के बीच में वाक्य आया, "स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है।' मैं हैरत से भर गई। इतने समझदार लेखक से यह उम्मीद नहीं थी। आम भाषणों में, आम लेखकों के लेखों में, यहॉं तक कि आम बातचीत में भी हमारे यहॉं यह जुमला बहुतायत से इस्तेमाल होता है। यहॉं तक कि कई महिला लेखिकाओं का भी यह प्रिय विषय है। इस पर कलम चलाकर वे अपने आपको बड़ा पक्षपातरहित और दो टूक राय प्रकट करने वाला मानती है। लेकिन मुझे तो स्त्री ही स्त्री की दुश्मन वाली बात पढ़कर बेहद बेचैनी और तिलमिलाहट होती है। इसलिए नहीं कि मैं एक स्त्री हूँ तो स्त्रियों के बारे में कुछ बुरा नहीं सुनना चाहती। इसलिए कि यह कथन बेहद पक्षपात भरा है, पूर्वाग्रह से ग्रसित है। मुझे ऐसा क्यों लगता है, यह मैं निश्चित ही अपने पाठकों से साझा करना चाहूँगी।

स्त्री ही स्त्री की दुश्मन नहीं होती। प्रतिस्पर्धी ही प्रतिस्पर्धी का दुश्मन होता है। यह मनुष्य स्वभाव है, स्त्री स्वभाव नहीं। रोजगार, व्यापार, सामाजिकता के क्षेत्र यानी बाहरी क्षेत्र में पुरुषों के बीच भी अस्मिता और वर्चस्व की लड़ाई होती है, लेकिन तब हम कहते हैं, "सुरेश रमेश का दुश्मन है।' यह कभी नहीं कहते- पुरुष ही पुरुष का दुश्मन है। ऐसा क्यों ? क्योंकि बात का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। फिर स्त्रियों के मामले में हम बात का सामान्यीकरण क्यों करते हैं? आभा और विभा लड़ती हैं तो हम कहते हैं "स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है।' मुर्गों की लड़ाई में जब दाना डाला जाता है तो दो मुर्गे आपस में लड़ते हैं। तो क्या हम हर मुर्गे के लिए कहते हैं कि मुर्गा ही मुर्गे का दुश्मन होता है?

कई लोग "स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है' वाली कहावत को पुख्ता करने के लिए अक्सर सास-बहू के संबंधों का हवाला देते हैं। तब मैं हमेशा एक भि परिदृश्य की कल्पना करती हूँ कि यदि समाज में बहुतायत से यह होने लगे कि शादी के बाद ससुर-जमाई एक ही घर में रहने लगे, उनके सामान्य हित टकराने लगे तो क्या स्थिति बनेगी? क्या कार्यालयों में हम नहीं देखते कि जहॉं दो पुरुषों के हित आपस में टकराते हैं, वहॉं कुछ पुरुष कैसा व्यवहार करते हैं? वहॉं भी होती है छीना-झपटी, एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कवायद। फिर भी हम नहीं कहेंगे कि पुरुष ही पुरुष का दुश्मन होता है। क्योंकि यह जायज बात न होगी, चूँकि सब पुरुष एक जैसे नहीं होते, ठीक वैसे ही जैसे कि सभी स्त्रियॉं एक सी नहीं होती। दरअसल आप अपने माहौल से कितना सामंजस्य बिठा सकते हैं यह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है। यह व्यक्ति विशेष, उसके स्वभाव विशेष और उसके माहौल विशेष पर निर्भर करता है कि वह कब, कैसा आचरण करता है। अतः यह कहना एक निहायत ही गलत बात है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है। जैसे यह कहना एक अतिशयोक्तिपूर्ण बात है कि स्त्री तो देवी होती है! स्त्री हर इंसान की तरह इंसान होती है। अपने-अपने व्यक्तिगत गुणों और दुर्गुणों से भरी।

- निर्मला भुराड़िया

सोमवार, 17 जनवरी 2011

नारों में ‍िलखा दंभ!

रिक्शों और ट्रकों के पीछे कई स्लोगन लिखे होते हैं। वे इतने प्रकार के होते हैं ‍िक इसे लगभग चलता-फिरता 'सड़क-साहित्य' माना जाता है। साहित्य समाज का दर्पण होता है, की तर्ज पर सोचा जाए तो यह कहा जा सकता है ‍िक चंद पंक्तियों की ये अभिव्यक्ति आम आदमी की मानसिकता, उसकी भावनाएँ व्यक्त करती हैं। इन नारों में कभी माँ के प्यार की बात की गई होती है तो कभी धीमी रफ्तार की ताकीद होती है। कभी कोई नारा दार्शनिकता का पुट लिए होता है तो कभी-कभी समाज की गलत और रूढ़िवादी मानसिकता भी बयान करता है। जैसे अभी-अभी एक नारा एक ‍रिक्शा पे पीछे पढ़ा- 'अकाल मृत्यु हो जिसकी वो काम करे चांडाल का, काल क्या उसका बिगाड़े जो भक्त हो महाकाल का।'

इस नारे में वर्णित महाकाल की भक्ति पर तो खैर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है, यह अपनी- अपनी व्यक्तिगत आस्था का सवाल हो सकता है। मगर 'काम करे चांडाल' वाक्य को दुर्घटना और नकारात्मकता से ऐसे जोड़ा गया है, मानो ये कोई गलत काम हो। पाठकों की स्मृति को ताजा करने के ‍िलए यह बता दें कि श्मशान के रखवाले, मृतकों की ‍िक्रयाकर्म करने की व्यवस्था करने वाले को चांडाल कहा जाता है। यह एक प्रोफेशन है, गाली नहीं। मगर, हमारी अहंकारी सवर्णवृत्ति ने न सिर्फ कुछ खास प्रोफेशन करने वालों के साथ छुआछूत का बर्ताव ‍िकया है, बल्कि उनके प्रोफेशन को गाली की तरह ही इस्तेमाल किया है। चाहे चमड़े का काम करने वाला हो या नालियों की सफाई करने वाला, उसके प्रोफेशन का संबोधन इतनी बार गालियों की जगह इस्तेमाल किया गया है ‍िक उन संबोधनों की संवेदनशील व्यक्ति सेंसर ही कर देता है। पर अपने आपको उच्च मानने वाले प्रोफेशन के लोगों ने कभी सोचा है कि ‍िजसे हम शूद्रकर्म कहते हैं, वह करने वाले न होते तो क्या होता? सच तो यह है ‍िक असली ऋषि-मुनि तो वह है, जो बगैर जुगुप्सा के मानव जाति की सेवा करे। इस बात को सोचते हुए एक बड़े सरकारी अस्पताल के पोस्टमार्टम रूम के यह डॉक्टर मुर्दों के बीच टेबल लगा कर बैठते हैं। आसपास तरह-तरह की लाशें पोस्टमार्टम के ‍िलए रखी होती हैं। कुछेक लाशों में तो कीड़े भी कुलबुलाने लगते हैं। हममें से कोई सामान्य आदमी तो वहाँ दो मिनट भी कड़े नहीं रह सकता। या उस रूम में जाकर शायद दो ‍िदन तक खाना भी हम न खा पाएँ, मगर उन डॉक्टर साहब को तो उनका पोस्टमार्टम करना होता है। सहयोगियों की मदद से ही सही, पर फाइनल रिपोर्ट तो उन्हीं की होती है, चिकित्सक के तौर पर। मगर, ये डॉक्टर साहब इन मुर्दों के बीच भी शांति से बैठकर अपना काम करते रहते हैं। सोचिए ये ऋषि हुए या नहीं?

मेनहोल में उतरकर काम करने वाले हों या पैथॉलॉजी लैब में मानव द्वारा निर्वासित चीजों के नमूने परखने वाले, क्या उनके ‍िबना स्वच्छ और स्वस्थ मानव समाज की कल्पना की जा सकती है? क्या एक मरीज की बीमार देह की सार-सँभाल करने वाली और उसके ‍िवसर्जन को समेटने वाली हर नर्स या सेविका मदर टेरेसा नहीं? सच तो यह है कि इन सबको नीची नजर से देखने की बजाए इनको सम्मान की नजर से देखा जाना चाहिए। जो नोबल प्रोफेशन हैं, उन्हें शूद्रकर्म मानना बेबुनियाद अहंकार के ‍िसवा कुछ नहीं।

- ‍िनर्मला भुराड़िया

बुधवार, 5 जनवरी 2011

शब्द जब साथ छोड़ जाएँ रंग काम आएँ

इंसान के मन-मस्तिष्क में हर पल कई तरह की तरंगें उठती रहती हैं। बहुत-सी हलचल, थोड़ी-सी उठापटक, थोड़ी-सी खटपट हर वक्त चलती है। सामान्य इंसान इसी के साथ जीता है। मगर जब भावनात्मक उद्वेग का समय आता है तो दिमाग की खलबली बहुत बढ़ जाती है, बेचैन कर देने की हद तक। दुःख, दर्द, क्रोध आदि नकारात्मक चीजें तो उद्वेग हैं ही, अधिक खुशी की अवस्था भी उद्वेग ही है। "इतनी खुशी हुई कि बर्दाश्त के बाहर" ऐसी उक्तियाँ भी मुहावरों में हैं। खुशी के मारे रातभर नींद नहीं आई या फलाँ का लॉटरी खुलने की खबर सुनकर हार्ट फेल हो गया या फलाँ खुशखबरी सुनकर बौरा गया जैसी चीजों के भी दुर्लभ ही सही, उदाहरण हैं। यानी कि अधिक खुशी भी भावनाओं की समतल अवस्था नहीं उद्वेग ही है। उद्वेग कोई भी हो यदि अभिव्यक्त कर दिया जाए तो स्थिर हो जाता है। खुशी एक ऐसा उद्वेग है जो हमेशा अभिव्यक्त किया जाता है, बाँटा जाता है। खुशी में लोग गाते-बजाते हैं, नाचते हैं, हँसते हैं, एक-दूसरे से बोलकर व्यक्त करते हैं। और भी कई कला रूपों में खुशी अभिव्यक्त होती है। इससे खुशी उद्वेलित खुशी से शांत-समतल खुशी में बदल जाती है और इंसान सुखपूर्वक उसका रस लेता है।

असल मुश्किल तो नकारात्मक उद्वेगों के साथ है। खुशी के साथ गर्व जुड़ा होता है। मगर नकारात्मक उद्वेगों के साथ अक्सर शर्म भी जुड़ी होती है। अतः ऐसे उद्वेग को लोग मन में रख लेते हैं। फिर आपके साथ खुशी बाँटने को तो लोग मिल भी जाएँगे, दुःख बाँटने वाला कौन होगा। दुःख में कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कोई आपकी बात सुनने के लिए तैयार है, मगर भाषा आपका साथ छोड़ देती है। अपनी बात कहने के लिए आपको शब्द नहीं मिलते। आप घटना का वर्णन तो कर देते हैं, मगर एहसास फिर भी नहीं बता पाते। ऐसे में व्यक्ति की मदद के लिए आती है आर्ट थैरेपी। गीत, संगीत, नृत्य के जरिए तो आर्ट थैरेपी की ही जाती है, पेंटिंग भी आर्ट थैरेपी का एक बड़ा हिस्सा है। इसमें जरूरी नहीं कि मरीज बड़ा चित्रकार हो। बस उसे रंग और पेंसिल आदि दे दिए जाएँ तो वह जो कुछ शब्दों में नहीं कह पाया, रंगों में अभिव्यक्त करता है। इससे उसका जी ऐसा हल्का हो जाता है, जैसे कुप्पी में भरी जहरीली गैस निकल गई हो। दुनिया के कई भागों में बलात्कार पीड़िताओं, डिप्रेशन के मरीजों, युद्ध पीड़ितों, शरणार्थियों आदि को आर्ट थैरेपी में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है ताकि उन्हें बुरी यादों से छुटकारा पाने में मदद मिल सके। कुछ चिकित्सा तो इसी से हो जाती है कि वे अपनी पीड़ा अभिव्यक्त कर देते हैं। इससे आगे आर्ट-थैरेपिस्ट की मदद ली जाती है जो इस आधार पर विश्लेषण करता है कि व्यक्ति ने कौनसे रंगों का इस्तेमाल किया है, क्या आकृतियाँ बनाने का प्रयास किया है। उसकी आकृतियों में कौनसे मनुष्य, पशु या प्रकृति के कौनसे प्रतीक आते हैं। यह पीड़ित व्यक्ति की सफल चिकित्सा की ओर एक बहुत बड़ा कदम होता है।

आर्ट थैरेपी का एक और सबसे बड़ा पहलू यह है कि कला में तल्लीनता ध्यान के समकक्ष होती है। इससे उद्वेलित, पीड़ित मन को स्वाभाविक तौर पर ही शांति मिलती है। कलाएँ आँखों को ही सुंदर नहीं लगती, मन को भी सुंदर लगती है।

- निर्मला भुराड़िया