बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

चलो, भाड़ में जाएँ!

'लो कैलरी फूड' आज के जमाने की भोजनचर्या का सबसे खास शब्द बन गया है। और क्यों न बनें? पेट भी भरे, स्वाद भी मिले, भूखा भी न रहना पड़े और मोटापा भी न बढ़े, इसके लिए सबसे सही तरीका हो सकता है कम कैलरी वाले पौष्टिक भोजन का चुनाव।

जब कोई शब्द खास शब्द बन जाता है, तो सबसे पहले बाजार की बन आती है। इसी तरह 'लो कैलरी' के नाम पर फैन्सी भोज्य पदार्थ महँगे दाम पर बिकने लगे हैं। और तो और मोटापा वृत्ति रखने वाले स्वाद के शौकीनों के लिए लो कैलरी आइसक्रीम, लो कैलरी नमकीन और लो कैलरी ‍िमठाइयाँ तक उपलब्ध कराई जाती हैं। अमेरिका जैसे देशों में ‍िडब्बाबंद सामग्री की एक बड़ी रेंज ऐसी है जहाँ स्वाद भी है और कैलरी भी कम है। लेकिन अमेरिका में वर्ग भेद की खाई हमारे यहाँ जितनी बड़ी न हीं है। वहाँ ऐसे प्रयोगों का फायदा आम नागरिकों को मिलता है। हमारे यहाँ जब बाजार में ऐसी चीजें आती हैं तो विज्ञापनों और गाँव-शहरों की गली- गली में खुले अत्याधुनिक शॉपिंग सेंटरों के जरिएँ, पहुँचती वह भी है हमारे आम आदमी के पास। इन्हें 'कभी-कभार' खरीद लेना आम आदमी के बूते का भी हो सकता है, मगर सही कहें तो यह उसे 'पोसाता' नहीं है। पैकिंग के खर्चे से महँगे बने 'चार-दाने' सेंव-चिप्स के पाउच स्वाद और क्षुधा दोनों को ही पूरी तरह शांत नहीं कर पाते। मगर क्या करें 'स्लिम बॉडी' और 'लो कैलरी' भी इसी बाजार की माँग है। दरअसलयह बाजार भूख बढ़ाने के लिए है, भूख शांत करने के लिए नहीं है। आधुनिक बाजार का स्वार्थ इसी में है कि आदमी की भूख बनी रहे!

इसी आधुनिक बाजार में इन दिनों एक 'लो कैलरी' नमकीन घूमते देखा। नमकीन बेचने वाले का दावा था कि यह 'लो कैलरी' है। उनके दावे की पुष्टि के लिए पूछा कि भाई यह नमकीन है तो फिर लो कैलरी कैसे है, इसे तला तो तेल या घी जैसे किसी गहरी चिकनाई में ही होगा न! बेचने वाले ने कहा- नहीं तेल सिर्फ स्प्रिंकल (छिड़का) किया जाता है इसमें।

लो कैलरी नमकीन वाले की बात सुनकर भीड़ में भुना हुआ अपना चना-परमल याद आ गया। छिड़कने की बात तो दूर भाड़ में भुने हुए नाश्ते में तेल का प्रयोग बिलकुल भी नहीं होता। भाड़ में भूँजने के लिए चावल को उबाला, सुखाया जाता है, फिर भूसी अलग करके व नमक का पानी लगाकर, भट्‍टी में समुद्र वाली रेत के साथ सेंका जाता है। इस तरह यह बिलकुल ही कम कैलरी वाली भोज्य सामग्री होता है। भाड़ में भूँजे जाने वाला चना तो पौष्टिक भी होता है। इसमें काफी प्रोटीन होती है। फिर चने-परमल जैसी भाड़ में सिंकी वस्तुएँ खाने के बाद प्यास अधिक महसूस होती है, पानी पीने में आता है, तो यदि कोई कम खाना चाहे तो कम खाकर भी अपना पेट भरा हुआ महसूस कर सकता है। भूला-बिसरा यह तरीका आधुनिक डाइटिंग में भी काम आ सकता है।

रही बात स्वाद की, तो पारंपरिक चीजों का स्वाद खादे-पीते ही विकसित होता है। चना-चिरौंजी, गुड़-चना, परमल-सेंव खाने वाले इन स्वादों की महत्ता बखूबी जानते हैं। और फिर उस लो कैलरी नमकीन का स्वाद याद किया जाए तो तेल छिड़के हुए उस नमकीन का स्वाद बेहद मामूली ही था, क्योंकि नमकीन का स्वाद तो तेल से ही है। शुक्र है भुने चने का स्वाद भुने चने से ही है। और हाँ, शुक्र यह भी है ‍िक भड़कीले पैकेटों की तरह कागज की पुंगी या पु‍ड़िया का पैसा भी यहाँ आपसे नहीं वसूला जाता।

- निर्मला भुराड़िया

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