मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

चाहिए माथे तीन बस भरकर!

स्कूल के प्रिंसीपल के पास एक सरकारी आदमी का फोन आता है फलाँ समारोह है फलाँ नेता आने वाले हैं तीन बस बच्चे चाहिए! गोया बच्चे न हुए 'आलू' हुए। तीन बस बच्चे यानी जानिए तीन बोरा आलू! ये बच्चे जो सिर्फ कुछ माथे हैं। भीड़ बढ़ाने वाले माथे। भाषण सुनकर उबासियाँ लेकर गरदन हिलाने वाले माथे। अतिथियों को सलामी या गार्ड ऑफ ऑनर देने वाले माथे। उन विषयों के पक्ष या विरोध में जुलूस निकालने वाले माथे जिन विषयों के बारे में उनके ‍िदमागों में समझ पैदा नहीं की गई है। उन्हें तो सिर्फ आदेशों पर जुलूस और सभाओं में शामिल होना है। पोस्टर और तख्तियाँ थामना है। कभी-कभी तो घंटों और भूखे-प्यासे रहकर चिप्स चबाकर और समोसा निगलकर। नतीजा! एक बार एक सभा में कई मासूम बच्चे बेहोश हो गए थे।

दरअसल भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में बच्चे अपने प्रजातांत्रिक अधिकार न जानते हैं, न उन्हें यह अधिकार ‍िदया जाता है या समझाया जाता है। शिक्षा व्यवस्था यह सब कुछ समझाने की स्थिति में नहीं हैं, क्योंकि शिक्षा व्यवस्था शिक्षा तंत्र में बदल चुकी है या इससे भी आगे कहने का दुस्साहस किया जाए तो शिक्षातंत्र भी अब शिक्षा माफिया में बदल चुका है। बच्चों की स्कूली शिक्षा का कोई महत्व नहीं बचा है। बच्चे दो-दो स्कूल जाते हैं। स्कूल नं. एक में औपचारिकता के लिए, शाम को स्कूल नं. दो में तगड़ी ‍फीस देकर विशेष पढ़ाई (!) के ‍िलए। कभी-कभी तो वे विशेष पढ़ाई के लिए स्कूल नंबर दो में ज्यादा समय जा सकने के लिए स्कूल नं. एक की झूठी अटेंडेंस भी लाते हैं। यानी भारत में स्कूली शिक्षा की शुरुआत ही झूठ की बुनियाद पर होती है। इस झूठ को कुसंस्कार नहीं माना जाता, क्योंकि भारतीय सोचते हैं ''संस्कार-वंस्कार'' तो गर्मी की छुट्‍टियों में संस्कार शिविर में श्लोक रटवाकर बच्चों को दिलवा देंगे। शिक्षा से जुड़ा ज्ञान, नैतिकता, अनुशासन आदि संस्कार में शामिल हैं यह हम भारतीय मानना भूल गए हैं। देखें शिक्षा व्यवस्था की यह संस्कारहीनता हमें कहाँ ले जाती है?

- निर्मला भुराड़िया

1 टिप्पणी:

  1. भारतीय सोचते हैं ''संस्कार-वंस्कार'' तो गर्मी की छुट्‍टियों में संस्कार शिविर में श्लोक रटवाकर बच्चों को दिलवा देंगे।- sahi baat hai...

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