बुधवार, 6 अक्टूबर 2010

खीर का कटोरा!

पंडितजी की खीर का कटोरा उस परिवार में पहले अलग ही रखा जाता था, क्योंकि छोटी कटोरी से पंडितजी का काम नहीं चलता था। अत: वह बड़ा कटोरा उन्हीं के लिए रखा गया था, जो श्राद्ध-पक्ष में ‍िनकाला जाता था। इस बड़े कटोरे में खीर प्राप्त कर लेने के बावजूद यदि थोड़ा आग्रह-मनुहार किया जाए- जो कि परंपरा के अनुसार किया ही जाता था- तो पंडितजी थोड़ी और खीर ग्रहण कर ही लेते थे। मगर जब पिछली बार पंडितजी उस परिवार में आए तो उन्होंने 'थोड़ा-और' का आग्रह नहीं स्वीकारा। कहने लगे, 'जजमान अब हमारी अवस्था हो गई है। अब हम उस तरह नहीं खा-पी सकते।' जजमान ने अब पंडितजी के साथ आए उनके पुत्र की ओर मनुहारपूर्वक रुख किया। उसने कुछ कहा नहीं, बस संकोचपूर्वक अपनी हथेली खीर की कटोरी पर रख दी ताकि अब और न परोसी जाए। उसे मौन देख पंडितजी ने ही कहा- 'भई, हम तो साइकल पर आते थे तो सब पचा लेते थे पर अब इसके पास तो मोपेड है.... फिर यह शर्माता भी है। हम बड़ी मुश्किल से इसे यहाँ लाए हैं....।' असल बात भी पंडितजी ने साइकल वाली बात के पीछे-पीछ बता ही दी थी। सच ही है, वर्ण व्यवस्था के हिसाब से जब कर्म विभाजन नहीं है, जब व्यक्ति आधुनिक शिक्षा प्राप्त है और अनी रोटी (या खीर-पूरी) खुद कमा सकता है, तो यह अब पूरी तौर पर संभव है कि जजमान के यहाँ सिर्फ किसी एक खास जाति का होने की वजह से श्राद्ध-जीमने जाना उसे सहज न लगे। एक तो किसी के यहाँ भोजन पर जाना फिर 'ब्राह्मण: भोजन: प्रिया:' या भोजन-भट्‍ट जैसी उपाधि पाना किसे रुचेगा? जाहिर है श्राद्ध में 'जीमने' के लिए इस खास जाति के उम्मीदवार अब कम हो गए हैं। लेकिन कर्मकांडों के पूर्ववत चलने की वजह से श्राद्ध-पक्ष में उनकी डिमांड अब भी काफी है। नतीजा? अखबारों में इस तरह के विज्ञापन देखने को मिल रहे हैं कि 'श्राद्ध-पक्ष में ‍िजमाने को 'इतने-इतने' बटुक उपलब्ध हैं- भोजन कराना है तो फलाँ-फलाँ नम्बर पर, फलाँ-फलाँ संस्था से सम्पर्क करें।'

कितने लोग हैं जिन्होंने ऐसी सूचनाओं में छुपी विडम्बना और हास्यास्पदता को पकड़ लिया होगा? अगर पकड़ लिया है तो फिर इसका इलाज भी जरूरी है। अब समय बदल गया है। अब 'एक साहूकार के सात बेटे थे' और 'एक गाँव में एक दरिद्र ब्राह्मण रहता था' जैसी कहानियाँ अति-प्राचीनकाल के घेरे में आती हैं। अब न साहूकार के सात बेटे हैं न ब्राह्मण के साथ दारिद्रय शब्द पूँछ की तरह लगा है या जोंक की तरह ‍िचपटा है। क्योंकि अब यह नहीं है कि ब्राह्मण आदमी केवल ज्ञानार्जन ही करेगा या रीति-रिवाज ही सम्पन्न कराएगा। वह अपने नैसर्गिक रुझान के अनुसार कोई अन्य व्यवसाय भी चुन सकता है। फिर समाज द्वारा अपने पुरखों की स्मृति में ‍िजमाने के लिए 'ब्राह्मण' को ही ढूँढ निकालने और जिमाने की जिद क्यों? ऐसे और भी वंचित हमारे वर्तमान सामाजिक परिवेश में हो सकते हैं, जिन्हें प्रेमपूर्वक भोजन उपलब्ध कराने पर आपके पुरखों की आत्मा के साथ ही साथ उस वंचित की स्वयं की आत्मा भी तृप्त होगी!

-निर्मला भुराड़िया

1 टिप्पणी:

  1. आम जनजीवन को लेकर आपका अवलोकन बड़ा
    ज़बरदस्त है..... यही आपकी हर पोस्ट में झलकता है... इसमें भी है....

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