रविवार, 26 अप्रैल 2015

कट्टरपन नहीं, वात्सल्य बचाए- देसी गाय 

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हिन्दू गाय को पवित्र मानते हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार गाय में तैतीस करोड़ देवताओं का वास है। वैदिक काल की एक परंपरा के बारे में कुछ इतिहासज्ञ बताते हैं कि जब कोई विवाद होता और सुलझाने को पंच बैठते तो निर्णायक को गाय की खाल ओढ़ा कर बैठाया जाता, इस विश्वास के साथ कि गाय का चमड़ा ओढ़े बैठा व्यक्ति अन्याय नहीं करेगा। मरणासन्न व्यक्ति के अंतिम समय में मुंह में तुलसीदल और गंगाजल देने के अलावा यह परंपरा भी रही है कि उसका हाथ गाय की पूंछ से बांध दिया जाए ताकि मरने पर वह व्यक्ति सीधे स्वर्ग में जाए। इस सबको भोले लोक विश्वासों की श्रेणी में ही लिया जाना चाहिए।

मुझे अच्छी तरह याद है बचपन में एक मुनीमजी थे, रास्ते में जहां कोई गाय मूत्र त्याग करती दिखती, वे खट से आगे बढ़कर अपनी हथेली लगा देते और श्रद्धापूर्वक चुल्लू में आए द्रव्य का पान कर लेते। एक बुआजी थीं, ईश्वर की कृपा से वे जरा ठिगनी भी थीं, वे अक्सर गाय के नीचे से निकलती थीं इस भाव के साथ कि इससे उनका सब अमंगल धुल जाएगा। आज भी गोमूत्र से इलाज किया जाता है। यह उचित है और यह उचित नहीं है, दोनों ही बातें मानने वाले लोग हैं। हम यहां आज इस बात को विवेचना में शामिल नहीं कर रहे हैं।

वैदिक काल में गोधन बड़ी संपत्ति हुआ करती थी। गाय उपयोगी भी थी, पवित्र भी मानी जाती थी। मगर उस काल में गोवध अपराध नहीं था। पुराण काल में यह धारणा आई कि ब्रह्मा और गाय चूंकि एक ही दिन उत्पन्न हुए अत: गोहत्या का पाप ब्रह्म हत्या के बराबर है। और यह तो चौथी शताब्दी में हुआ कि गुप्तवंश के राजाओं ने गोवध हेतु प्राणदंड तय किया। महाराष्ट्र सरकार द्वारा गोवध के प्रतिबंध के पश्चात इस वक्त भारत में इस पर काफी वाद-विवाद और चर्चाएं हो रही हैं। इस विवाद के भी इस या उस पक्ष में हम नहीं जा रहे, क्योंकि हम तो यहां देसी गाय की जीतेजी होने वाली दुर्गति पर बात करना चाहते हैं।

प्रसिद्ध आहार विशेषज्ञ रुजुटा दिवेकर लिखती हैं कि ऊंचे कूबड़ और गले पर झूलती चमड़ी वाली अपनी देसी गाय के दूध में एक विशेष प्रकार का प्रोटीन होता है- ए2 टाइप का प्रोटीन। यह प्रोटीन इस दूध का सेवन करने वालों की मधुमेह, मोटापा आदि से रक्षा करता है। जबकि विदेशी संकर प्रजाति की जर्सी और होलस्टीन जैसी गाएं भले दूध ज्यादा देती हों पर उनके दूध में ए1 टाइप का प्रोटीन होता है जिससे पेट बिगड़ना (इरिटेबल बाउल सिंड्रोम), पेट फूलना (ब्लोटिंग) जैसी समस्याएं होती हैं, वहीं हृदय रोगों, मोटापा, मधुमेह का खतरा भी बढ़ जाता है। देसी गाय का कूबड़ उसे यह विशेषता देता है कि वह दूध में विटामिन डी की अधिक मात्रा छोड़े। वहीं इस दूध में एंटीऑक्सीडेन्ट्स, विटामिन बी-12, अमीनो एसिड्स की संख्या भी ज्यादा होती है। रुजुटा चिंता व्यक्त करती हैं कि हमारी यह प्यारी देसी गाय धीरे-धीरे लुप्त हो रही है।

कुछ समय पहले का एक किस्सा याद आता है। रात को कॉलोनी में एक गाय आकर जोर-जोर से रंभाती थी। उसका रंभाना इतना करुण होता था कि लगता था कि वह रो कर कुछ कह रही है। पशुओं की भी अपनी बोली और दुख-सुख तो होते ही हैं न! दो-तीन दिन के बाद किसी से पूछा कि यह गाय रोती क्यों है तो व्यक्ति ने बताया कि गाय के मालिक ने उसका बछड़ा बेच दिया है, उसी को ढूंढती फिरती है। सुनकर जी धक्क से रह गया था। गायों को अधिक दूध देने वाले इंजेक्शन भी लगाए जाते हैं।

बछड़ा मरने पर भी वह दूध देती रहे, इस हेतु बछड़े की खाल में भूस भरकर उसे सामने खड़ा कर दूध दुहा जाता है। गो पालक अक्सर गायों को खुला छोड़ देते हैं। वे शहर भर में प्लास्टिक खाती, मानवमूत्र पीती घूमती रहती हैं। दुनिया भर का कचरा-बगदा खाने वाली गाय आखिर किस प्रकार का दूध देती होगी? गुणवत्ता तो दूर, यह बेहद प्रदूषित दूध ही हुआ न! इन गायों के पालक? ये वही लोग होते होंगे जो दीवारों पर ''गोहत्या पाप है" लिखने वालों के साथ, नारा लिखने के लिए ब्रश और पेंट लेकर खड़े होते होंगे। यदि ये गाय के प्रति कट्टरता के बजाए गाय के लिए वात्सल्य रखें, गाय को अच्छा खिलाएं और प्यार से घर में पालें, हाईब्रीड गायों और बोवीन ग्रोथ हारमोन के इंजेक्शन का इस्तेमाल करने वाले दूध के लालची व्यापारियों में तब्दील न हों, तो अब भी समय है कि हमारी देसी गायें (Bos Indicus) और हमारी अगली पीढ़ी का स्वास्थ्य दोनों ही बच जाएंगे।
- निर्मला भुराड़िया 

शनिवार, 11 अप्रैल 2015

जिम्मेदार कौन?

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मैं एक ऐसे व्यक्ति के बारे में जानती हूं, जिन्होंने अपने बेटे की अकाल मृत्यु हो जाने पर अपनी सद्यविधवा बहू का मुंह देखना बंद कर दिया था। बहू सामने पड़ जाती तो वे पलटकर चले जाते। ऐसा वे इसलिए कर रहे थे कि उन्हें लगा कि बहू अपशगुनी है और उसकी किस्मत से ही उनका बेटा चला गया।

अंधविश्वास ने इन ससुर महोदय को इतना क्रूर बना दिया था कि वे समझ नहीं पा रहे थे कि ऐसा करके वे अपनी पहले से ही दु:खी पुत्रवधु के दु:ख को और बढ़ा रहे हैं। या शायद वे उसे दु:खी करके ही खुश हो रहे हों क्योंकि अंधविश्वास की जीत हमेशा से ही हृदय की कोमलता और सहज करुणा पर होती आई है।

अंधविश्वास की रौ में आदमी अच्छा-बुरा भी भूल जाता है। अब इन्हीं ससुर महोदय के बारे में सोचिए। ये मान रहे थे कि बहू के दुर्भाग्य से उनका बेटा गया, मगर वे ये नहीं देख पा रहे थे कि यह उनका स्वयं का भी तो दुर्भाग्य था। तो क्या वे स्वयं अपशगुनी हो गए थे? नहीं, न। मगर कुछ लोगों की आदत होती है, अपनी तोहमतें वे हमेशा दूसरों के सिर ही थोपते हैं।

एक और व्यक्ति थे। उनके दो बेटे थे। बाद में दो बेटियां हुईं। सज्जन व्यापारी थे। जब पहली बेटी हुई, उस वक्त उनको व्यापार में घाटा लग गया था। उन्होंने इसे बेटी के इस जन्म और उसके अपने लिए अशुभ होने से जोड़ लिया।

दो साल बाद दूसरी कन्या हुई। संयोग कुछ ऐसा बैठा कि छोटी बेटी के जन्म के समय काल में उनको व्यापार में फायदा हुआ। इसे भी उन्होंने इस बेटी के अपने लिए शुभ होने से जोड़ लिया और इस बेटी पर प्रसन्न हो गए। अपनी खुद ही की दो बेटियां, मगर एक पर वे हमेशा चिड़चिड़ाते रहे, रूखा व्यवहार करते रहे और दूसरी पर हमेशा लाड़-प्यार लुटाते रहे। एक-दो दिन नहीं पूरे जीवनभर उन्होंने अपनी दोनों कन्याओं के बीच सिर्फ इस वजह से भेदभाव किया कि दोनों के जन्म के शगुन अलग-अलग थे!

हमारे समाज में सदियों से यह चला आया है और आज भी चल रहा है कि हम किसी और के दुर्भाग्य में उसका सहारा बनने, उसके प्रति इंसानियत का भाव रखने के बजाए, अपने अंधविश्वासों के चलते, उस इंसान का अपमान करते हैं। कई लोग हैं जो किसी विधवा, अपंग, एक आंख वाले व्यक्ति आदि को अपशगुनी मानते हैं। और कई लोग तो मुंह पर ही उनका अपमान कर देते हैं कि उनके सामने आने से काम बिगड़ गया। विधवा स्त्रियों को लोग मंगल कार्यों जैसे शादी-विवाह आदि में शामिल नहीं होने देते, खासकर जब मांगलिक रस्में हो रही हों। यह अपमानजनक और अन्यायपूर्ण दोनों ही है।

आज भी भारत के कई गांवों में, जिनमें बिहार, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ असम, आंध्र, पश्चिम बंगाल आदि कई राज्य शामिल हैं, औरतें डायन बताकर मार दी जाती हैं। चालाक महाबली यह सब किसी स्त्री की संपत्ति हड़प करने के लिए करते हैं। मगर इस षड्यंत्र में उनको गांव वालों का साथ प्रचलित अंधविश्वासों के चलते मिल जाता है और वे षड्यंत्रकारी डायन के नाम पर सरेआम कत्ल करके भी बच निकलते हैं। किसी के यहां कोई बच्चा मर गया, गांव में किसी बीमारी का प्रकोप या कोई और बात हो गई तो चिह्नित स्त्री को डायन या टोनही बताकर इस दुर्भाग्य के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया जाता और उसे प्रताड़ित करने के बाद अंतत: मार दिया जाता है।

मगर सिर्फ ग्रामीण ही नहीं, हम शहरों में रहने वाले, कहने को पढ़े-लिखे, सोशल मीडिया पर सक्रिय लोग भी कम अंधविश्वासी नहीं हैं। पनौती जैसे शब्दों का इस्तेमाल तथाकथित आधुनिक लोग भी करते हैं और हार का विश्लेषण करने और जिम्मेदारी लेने या उसे खेल भावना से स्वीकार करने के बजाए ठीकरा किसी तथाकथित 'अपशगुनी" के सिर फोड़ने में यकीन करते हैं। न सिर्फ यकीन करते हैं बल्कि पूरी बेशर्मी से इसे घोषित करते हैं। जैसे कि अभी क्रिकेट वर्ल्ड कप वाले मामले में हुआ। लोगों ने विराट कोहली की मित्र अनुष्का शर्मा को भारत की हार के लिए जिम्मेदार बना दिया! यह दु:खद ही नहीं आश्चर्यजनक भी है। आखिर हम कब अपने ही बनाए अंधेरों से बाहर निकलेंगे?
-निर्मला भुराड़िया