रविवार, 30 जनवरी 2011

अपराधिनी?

जुलाई 2009 में सूडान में एक महिला को गिरफ्तार करके सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाने की सजा सुना दी थी, इस अपराध में कि उसने पैंट पहन ली थी। सूडान में यह अपने आप में पहला मौका नहीं है। वहाँ पारंपरिक कपड़े न पहनने और पतलून पहनने वाली महिला को ऊँट के बालों से बने सख्त कोड़े लगाए जाते हैं, वह भी ऐसे सार्वजनिक स्थल पर ले जाकर, जहाँ जो चाहे सो दर्शक बन सके।

लुबना एक रेस्टॉरेंट में अपनी कजिन की शादी की बुकिंग के लिए आई थीं। यहाँ इंतजार करते हुए वे अपनी टेबल पर कोल्ड्रिंक की चुस्की ले रही थीं, तभी उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, क्योंकि उन्होंने ग्रीन ट्राऊजर पहना हुआ था, जो उनके समाज और सरकार की नजर में पाप है। कोड़े की सजा तो इंतजार कर ही रही थी। सैकड़ों लोगों के समक्ष पु‍लिस ने लुबान को मारते-पीटते हुए वैन में बैठाया और अपमान किया, इस उम्मीद में कि वे रोएँगी, गिड़गिड़ाएँगी, माफी माँगेंगी जैसे कि पैंट पहनने की अन्य 'अपराधिनियाँ' करती हैं। या फिर सजा से मुक्ति के लिए कोई 'दैहिक एहसान' करेंगी, जैसा कि कई बार अफसर चाहते हैं। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। लुबना अड़ी रहीं कि उन्हें सजा दे ही दी जाएँ, जिसे देखने के लिए वह दुनिया के अन्य हिस्सों से भी दोस्तों को और स्वतंत्र नेताओं को आमंत्रित करेंगी, ताकि वे अपनी आँख से देखें कि आज के समय में भी स्त्रियों के साथ कैसा अत्याचार किया जा रहा है। यूँ लुबना सूडान में संयुक्त राष्ट्रसंघ के कार्यालय में कर्मचारी भी हैं, जिसके लिए सूडानी कानून में यह प्रावधान है कि वे सजा से कृपा पा सकती हैं। मगर उन्होंने इस प्रावधान का भी इस्तेमाल करने से मना कर दिया और संयुक्त राष्ट्र कार्यालय के जॉब से इस्तीफा दे दिया, ताकि कोड़े लगा ही दिए जाएँ।

लुबना का कहना था, 'मैं सजा से पीछे इसलिए नहीं हटना चाहती कि दुनिया को पता चले कि हमारे यहाँ औरतों की कैसी दुर्दशा है। विश्व जनमत के दबाव से ही बदलाव आ सकता है।' लुबना की बात कुछ हद तक सच निकली। उन्होंने अपने केस की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित कर ही लिया और अंतत: उनकी सजा विश्व जनमत, मीडिया और अन्य राष्ट्रों के दबावों के चलते स्थगित हुई, लेकिन लुबना का केस पीछे एक विचार छोड़ गया। आधुनिक प्रजातांत्रिक देशों को छोड़े दें तो कई पिछड़े देशों में स्त्रियाँ क्या पहनें, क्या न पहनें, यह समाज और कहीं-कहीं तो सरकार द्वारा भी नियंत्रित किया जाता है। भारत में यूँ तो आधुनिक स्त्री पर वस्त्र-चयन संबंधी कोई पाबंदी नहीं है, लेकिन मेट्रोज को छोड़ दें तो सामान्य शहरों-कस्बों में आज भी नारी की वेशभूषा का फॉर्मेट बेहद समाज नियंत्रित है। अक्सर हंगामा हो जाता है कि लड़कियाँ जीन्स क्यों पहनती हैं? या जीन्स अश्लील है या फलाँ ड्रेस अमर्यादित है, जबकि यह पहनने वाले पर निर्भर है कि वह कौन-सी ड्रेस किस तरह पहनता है, ड्रेस के प्रकार पर नहीं। पारंपरिक वेशभूषा में भी नाभिदर्शन, पीठ दर्शन, बड़ा गला हो सकते हैं और पैंट-शर्ट भी व्यवस्थित ढंग की हो सकती है। अत: सवाल ड्रेस का नहीं है। सच कहें तो सवाल तो मर्यादा की भी नहीं है, वह तो सिर्फ हवाला देने की बात है। जो मर्यादा का हवाला देते हैं, वे भी मन ही मन में जानते हैं कि समाज परंपरा और रूढ़ि के अनुसार वस्त्र पहनना स्त्री की आज्ञाकारिता का प्रतीक अधिक है, मर्यादा का कम। समाज द्वारा ड्रेस तय ड्रेस कोड तोड़ने वाली के लिए माना जाता है कि वह 'बस में नहीं है।' एक उदाहरण है पाचस-साठ के दशक में जब मारवाड़ी स्त्रियाँ घाघरा ओढ़नी ही पहनती थीं। उल्टे पल्ले की साड़ी पहनना फैशन की बात समझी जाती थी। उस जमाने की एक स्त्री ने अपने साथ घटित एक वाकया बताया कि उन दिनों वे एक दिन अपने मायके गई। वहाँ उन्होंना साड़ी पहनी। उनके ससुरजी को पता चल गया तो उन्होंने तुरंत उन्हें ससुराल बुलाया और व्यंग्य के तेवर में पगड़ी अपनी बहू के चरणों में रख दी और व्यंग्य में ही कहा- 'हमारी लाज रखो साड़ी पहनकर जमानेभर में मत घूमो।' यह बिलकुल सच्चा किस्सा है। उस दिन जो साड़ी बहू की उज्जड़ता का प्रतीक थी, आज वह मर्यादा का प्रतीक है। समय-समय की बात है। फेर सब हमारी नजर का है। यह ठीक है कि हमारे यहाँ वस्त्र चयन पर कानूनी रोक-टोक और सजा नहीं है, मगर समाज की टेढ़ी नजर और परिवार द्वारा लाज की दुहाई देकर लादे गए बंधन आज भी हैं। जिन्होंने सिले-सिलाए कपड़ों की तार्किकता और व्यावहारिकता को समझ लिया है वे लोग जरूर बंधन हटा रहे हैं। जब सिले-सिलाए वस्त्री की तकनीक उपलब्ध है तो इसकी सुविधा और वैज्ञानिकता को आँखों पर रू‍ढ़ियों की पट्‍टी बाँधकर नजर अंदाज क्यों किया जाए? भारतीय पुरुषों ने तो काफी समय से सुविधा को देखते हुए कार्यालयीन समय में पारंपरिक वेशभूषा पहनने का बंधन त्याग दिया है, फिर स्त्रियों के लिए इतनी 'हू-हा' क्यों?

- निर्मला भुराड़िया

3 टिप्‍पणियां:

  1. Aapki lekhni hamesha hi aavashyak muddon par chalti hai.. lekin afsos ki jabse aapko padhna shuru kiya, tabhi se blogging ke liye samay nahin nikaal pa raha.

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  2. :)...sach kaha deepak ne, jab bhi yahan aaya, kuchh aisa padha jo kahin andar ja kar lagta hai...

    regards
    mukesh

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  3. i think this is positive journalism....
    aapke shadbdo ka mol tabhi hota he jb logo tk pahunche nd wo use samajh pae..aapki lekhni heart touching he ..
    keep it up

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