रिक्शों और ट्रकों के पीछे कई स्लोगन लिखे होते हैं। वे इतने प्रकार के होते हैं िक इसे लगभग चलता-फिरता 'सड़क-साहित्य' माना जाता है। साहित्य समाज का दर्पण होता है, की तर्ज पर सोचा जाए तो यह कहा जा सकता है िक चंद पंक्तियों की ये अभिव्यक्ति आम आदमी की मानसिकता, उसकी भावनाएँ व्यक्त करती हैं। इन नारों में कभी माँ के प्यार की बात की गई होती है तो कभी धीमी रफ्तार की ताकीद होती है। कभी कोई नारा दार्शनिकता का पुट लिए होता है तो कभी-कभी समाज की गलत और रूढ़िवादी मानसिकता भी बयान करता है। जैसे अभी-अभी एक नारा एक रिक्शा पे पीछे पढ़ा- 'अकाल मृत्यु हो जिसकी वो काम करे चांडाल का, काल क्या उसका बिगाड़े जो भक्त हो महाकाल का।'
इस नारे में वर्णित महाकाल की भक्ति पर तो खैर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है, यह अपनी- अपनी व्यक्तिगत आस्था का सवाल हो सकता है। मगर 'काम करे चांडाल' वाक्य को दुर्घटना और नकारात्मकता से ऐसे जोड़ा गया है, मानो ये कोई गलत काम हो। पाठकों की स्मृति को ताजा करने के िलए यह बता दें कि श्मशान के रखवाले, मृतकों की िक्रयाकर्म करने की व्यवस्था करने वाले को चांडाल कहा जाता है। यह एक प्रोफेशन है, गाली नहीं। मगर, हमारी अहंकारी सवर्णवृत्ति ने न सिर्फ कुछ खास प्रोफेशन करने वालों के साथ छुआछूत का बर्ताव िकया है, बल्कि उनके प्रोफेशन को गाली की तरह ही इस्तेमाल किया है। चाहे चमड़े का काम करने वाला हो या नालियों की सफाई करने वाला, उसके प्रोफेशन का संबोधन इतनी बार गालियों की जगह इस्तेमाल किया गया है िक उन संबोधनों की संवेदनशील व्यक्ति सेंसर ही कर देता है। पर अपने आपको उच्च मानने वाले प्रोफेशन के लोगों ने कभी सोचा है कि िजसे हम शूद्रकर्म कहते हैं, वह करने वाले न होते तो क्या होता? सच तो यह है िक असली ऋषि-मुनि तो वह है, जो बगैर जुगुप्सा के मानव जाति की सेवा करे। इस बात को सोचते हुए एक बड़े सरकारी अस्पताल के पोस्टमार्टम रूम के यह डॉक्टर मुर्दों के बीच टेबल लगा कर बैठते हैं। आसपास तरह-तरह की लाशें पोस्टमार्टम के िलए रखी होती हैं। कुछेक लाशों में तो कीड़े भी कुलबुलाने लगते हैं। हममें से कोई सामान्य आदमी तो वहाँ दो मिनट भी कड़े नहीं रह सकता। या उस रूम में जाकर शायद दो िदन तक खाना भी हम न खा पाएँ, मगर उन डॉक्टर साहब को तो उनका पोस्टमार्टम करना होता है। सहयोगियों की मदद से ही सही, पर फाइनल रिपोर्ट तो उन्हीं की होती है, चिकित्सक के तौर पर। मगर, ये डॉक्टर साहब इन मुर्दों के बीच भी शांति से बैठकर अपना काम करते रहते हैं। सोचिए ये ऋषि हुए या नहीं?
मेनहोल में उतरकर काम करने वाले हों या पैथॉलॉजी लैब में मानव द्वारा निर्वासित चीजों के नमूने परखने वाले, क्या उनके िबना स्वच्छ और स्वस्थ मानव समाज की कल्पना की जा सकती है? क्या एक मरीज की बीमार देह की सार-सँभाल करने वाली और उसके िवसर्जन को समेटने वाली हर नर्स या सेविका मदर टेरेसा नहीं? सच तो यह है कि इन सबको नीची नजर से देखने की बजाए इनको सम्मान की नजर से देखा जाना चाहिए। जो नोबल प्रोफेशन हैं, उन्हें शूद्रकर्म मानना बेबुनियाद अहंकार के िसवा कुछ नहीं।
- िनर्मला भुराड़िया
सार्थक आलेख है। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत सही लिखा आपने !!
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही ।
जवाब देंहटाएंसार्थक पोस्ट.... सहमत हूँ.....
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