एक बड़े सम्पादक-लेखक का आलेख बहुत चाव से पढ़ रही थी कि आलेख के बीच में वाक्य आया, "स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है।' मैं हैरत से भर गई। इतने समझदार लेखक से यह उम्मीद नहीं थी। आम भाषणों में, आम लेखकों के लेखों में, यहॉं तक कि आम बातचीत में भी हमारे यहॉं यह जुमला बहुतायत से इस्तेमाल होता है। यहॉं तक कि कई महिला लेखिकाओं का भी यह प्रिय विषय है। इस पर कलम चलाकर वे अपने आपको बड़ा पक्षपातरहित और दो टूक राय प्रकट करने वाला मानती है। लेकिन मुझे तो स्त्री ही स्त्री की दुश्मन वाली बात पढ़कर बेहद बेचैनी और तिलमिलाहट होती है। इसलिए नहीं कि मैं एक स्त्री हूँ तो स्त्रियों के बारे में कुछ बुरा नहीं सुनना चाहती। इसलिए कि यह कथन बेहद पक्षपात भरा है, पूर्वाग्रह से ग्रसित है। मुझे ऐसा क्यों लगता है, यह मैं निश्चित ही अपने पाठकों से साझा करना चाहूँगी।
स्त्री ही स्त्री की दुश्मन नहीं होती। प्रतिस्पर्धी ही प्रतिस्पर्धी का दुश्मन होता है। यह मनुष्य स्वभाव है, स्त्री स्वभाव नहीं। रोजगार, व्यापार, सामाजिकता के क्षेत्र यानी बाहरी क्षेत्र में पुरुषों के बीच भी अस्मिता और वर्चस्व की लड़ाई होती है, लेकिन तब हम कहते हैं, "सुरेश रमेश का दुश्मन है।' यह कभी नहीं कहते- पुरुष ही पुरुष का दुश्मन है। ऐसा क्यों ? क्योंकि बात का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। फिर स्त्रियों के मामले में हम बात का सामान्यीकरण क्यों करते हैं? आभा और विभा लड़ती हैं तो हम कहते हैं "स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है।' मुर्गों की लड़ाई में जब दाना डाला जाता है तो दो मुर्गे आपस में लड़ते हैं। तो क्या हम हर मुर्गे के लिए कहते हैं कि मुर्गा ही मुर्गे का दुश्मन होता है?
कई लोग "स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है' वाली कहावत को पुख्ता करने के लिए अक्सर सास-बहू के संबंधों का हवाला देते हैं। तब मैं हमेशा एक भि परिदृश्य की कल्पना करती हूँ कि यदि समाज में बहुतायत से यह होने लगे कि शादी के बाद ससुर-जमाई एक ही घर में रहने लगे, उनके सामान्य हित टकराने लगे तो क्या स्थिति बनेगी? क्या कार्यालयों में हम नहीं देखते कि जहॉं दो पुरुषों के हित आपस में टकराते हैं, वहॉं कुछ पुरुष कैसा व्यवहार करते हैं? वहॉं भी होती है छीना-झपटी, एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कवायद। फिर भी हम नहीं कहेंगे कि पुरुष ही पुरुष का दुश्मन होता है। क्योंकि यह जायज बात न होगी, चूँकि सब पुरुष एक जैसे नहीं होते, ठीक वैसे ही जैसे कि सभी स्त्रियॉं एक सी नहीं होती। दरअसल आप अपने माहौल से कितना सामंजस्य बिठा सकते हैं यह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है। यह व्यक्ति विशेष, उसके स्वभाव विशेष और उसके माहौल विशेष पर निर्भर करता है कि वह कब, कैसा आचरण करता है। अतः यह कहना एक निहायत ही गलत बात है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है। जैसे यह कहना एक अतिशयोक्तिपूर्ण बात है कि स्त्री तो देवी होती है! स्त्री हर इंसान की तरह इंसान होती है। अपने-अपने व्यक्तिगत गुणों और दुर्गुणों से भरी।
- निर्मला भुराड़िया
शादी के बाद ससुर-जमाई एक ही घर में रहकर तो देखे .. फिर मालूम होगा कि पुरूष और औरत में क्या अंतर है ??
जवाब देंहटाएंमैंने अपने वादे के मुताबिक़ एक लेख लिखा है .
जवाब देंहटाएंकृपया आप और दीगर सभी लोग उसे एक नज़र देख लीजिये और बताइए की उसमें क्या कमी है ?
आपकी महरबानी होगी .
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/01/energy-of-anger.html
आपकी रचना अच्छी लगी अब आप मेरी पढ़कर बताएं की मेरी रचना आपको कैसी लगी ?
http://vedquran.blogspot.com/2011/01/absolute-peace.html
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जवाब देंहटाएंस्त्री , स्त्री की दुश्मन कभी नहीं थी , न ही हो सकती है।
एक स्त्री ही , एक स्त्री के दुःख-सुख को बेहतर समझती है। यदि ससुर जमाई साथ रहे तो रोज महाभारत होगी।
लेख बहुत सार्थक है और शीर्षक एकदम सटीक !
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