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भविष्य के गर्भ में क्या है, मृत्यु के पार क्या है? इन सवालों के जवाब इंसान नहीं जानता। और जबसे इंसान का अस्तित्व रहा है तभी से यह सवाल उसे इतने भयातुर करते रहे हैं कि उसने अपने आसपास कई अंधविश्वास गढ़ लिए। यह दुनियाभर की सभ्यताओं और संस्कृतियों में हुआ है। जैसे पश्चिमी देशों में अधिकांश जगहों पर 13 का अंक अशुभ माना जाता है। इसके चलते अभी बीसवीं सदी के अंतिम समय तक फ्रांस के कई हिस्सों में एक अजीब सी परंपरा रही है जिसके तहत किसी भी दावत के लिए एक 'चौदहवाँ मेहमान' तैयार रखा जाता था। इसलिए कि कभी दावत में 'तेरह' लोग पधार गए तो अपशकुन हो सकता है। अत: इस सूरत में उस चौदहवें भले आदमी को भी दावत में शामिल कर लिया जाएगा, ताकि अपशकुन टल जाए! इस चौदहवें वैकल्पिक मेहमान को बाकायदा 'क्वाटोर जिमी' कहा जाता था। इसी तरह ब्रिटेन के एक शहर में स्थानीय प्रशासन द्वारा मकानों के नंबर बदले जा रहे थे। इस हेर-फेर में एक महिला के मकान का नंबर तेरह हो गया। वह अपने केस को स्थानीय अदालत में ले गई यह दावा करते हुए कि मकान का नंबर तेरह हो जाने से उसकी संपत्ति का मोल कम हो गया है। कोर्ट में कई हाउस एजेंटों ने शपथ ग्रहण करके महिला के पक्ष में बयान दिए कि सचमुच तेरह नम्बर का घर कौन खरीदेगा? यही वजह है कि पश्चिमी देशों में आज भी होस्टलों, बहुमंजिली इमारतों, होटलों इत्यादि में तेरह नम्बर का माला या रूम नंबरतेरह नहीं रखा जाता! चाहे बारह से सीधे चौदह नम्बर पर आ जाएँ या बारह-ए, बारह बी, कर दें। पश्चिमी जगत में और भी अंधविश्वास प्रचलित रहे हैं जैसे कि सीढ़ियों के नीचे की जगह अपशकुनी मानी जाती है, काँच के पार से दूज का चाँद नहीं देखा जाता... वगैरह।
लेकिन विज्ञान के पदार्पण से पश्चिमी जगत में बहुत परिवर्तन हुआ है। हम भारतीय चाहे वक्त के साथ-साथ रूढ़िवाद में और जकड़े हों। आधुनिक से आधुनिक भारतीय द्वारा भी टाई की नॉट ढीली करते ही ब्रांडेड शर्ट की कॉलर के पीछे जंतर-मंतर वाला ताबीज नजर आ स कता है। जाहिर है कि हमने पश्चिम से सिर्फ कपड़े ही उधार लिए हैं, वैज्ञानिक सोच नहीं। प्राचीनकाल में उन्नत रही हमारी संस्कृति में भी जो परंपराएँ वैज्ञानिक सोच के तहत गढ़ी गई थीं, उनके पीछे की वैज्ञानिकता भी हमें आज याद नहीं रही सिर्फ 'छू-छा' याद रही। उसके पीछे के सोच को नहीं कर्मकांडों को ही हमने अपनाए रखा। अत: जरूरी है कि इन दिनों पश्चिमी प्रयोगशालाओं में हो रहे कुछ शोधों पर हम गौर फरमाएँ। ये शोध बतलाते हैं कि दरअसल अपशकुनों से कुछ नहीं होता। जो मनुष्य शकुन-अपशकुन विचार करता है उसके भयभीत मन की प्रतिक्रिया में ही तनाव के रसायन छोड़ने वाली ग्रंथियों के जरिए शरीर पर बुरा घटित होता है। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी ने एक अध्ययन में यह तथ्य प्राप्त किया कि दुनिया की अलग-अलग संस्कृतियों के लोगों को अलग-अलग अपशुन देखकर तनाव होता है या दिल का दौरा तक आ सकता है। यानी एक जापानी और एक भारतीय कहीं जाने को तैयार हैं और किसी तीसरे को छींक आ जाए तो अपशकुन की घबराहट में तानव सिर्फ भारतीय का बढ़ेगा जापानी का नहीं, जबकि एक ही घटना दोनों के साथ हुई है। इसी तरह तेरह नंबर का कमरा मिलने पर एक ब्रितानी विद्यार्थी का रक्तचाप बढ़ेगा पर एक भारतीय का नहीं। यानी कि अपशकुन का प्रभाव पूरी तरह हमारे सोच पर निर्भर है, सचमुच में अपशकुन के प्रभाव पर नहीं। यानी आप तथाकथित अपशकुन पर ध्यान न दें, तो वह आपका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा।
हमें अंधविश्वासों को इसलिए भी त्यागना चाहिए कि वे सिर्फ बीमार और नकारात्मक जीवन पद्धति को ही जन्म नहीं देते बल्कि कई बार तो अंधविश्वासों की वजह से लोग नृशंसता की हद तक पहुँच जाते हैं। अखबारों की कतरनें साक्षी हैं कि बीसवीं-इक्कीसवीं सदी के भारत में ही ऐसी एक नहीं कई घटनाएँ हुई हैं, जहाँ धन के लालच में लोगों ने किसी बच्चे की बलि दे दी। यहाँ अंधविश्वास और लालच के मेल ने बर्बरता को जन्म दिया तो कई बार अंधविश्वास मूर्खता के साथ मिलकर भी हादसे कर देता है। 1996 की खबर है एक ग्रामीण को उसके मित्रों ने कहा कि इस बार दशहरे और नवमी दोनों एक साथ हैं और ऐसे में संयोग से किसी की भी मृत्यु हुई हो तो वह व्यक्ति स्वर्ग में जाता है! और उस युवक ने दशहरे की शाम आत्महत्या कर ली। सामान्य जीवन पद्धति में भी वैज्ञानिक सोच के बजाए अंधविश्वास का सहरा लेना बेहद घातक होता है। हमारे यहाँ मानसिक समस्याओं में भी लोग चिकित्सा करवाने के बजाए झाड़-फूँक करते और भूत भगाते नजर आते हैं, जबकि इस सदी में उच्च दर्जे की मनोचिकित्सा उपलब्ध है।
- निर्मला भुराड़िया
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