रविवार, 31 अक्टूबर 2010

हम-तुम ?

दुनिया में तरह-तरह के मनुषय हैं। तरह-तरह की आस्थाएँ। और हर एक मनुष्य का यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह जिसमें चाहे उसमें आस्था रखे और जिस भी चीज में आस्था रखे, उसे बेधड़क अपनाए। अपनी पूर्ण स्वतंत्रता से अपनी व्यक्तिगत आस्था का पालन कर पाए। जाहिर है दुनिया में कई तरह के धर्म हैं और आस्थाओं के अपने-अपने अलग केन्द्र भी। धर्म की तरह ही विभिन्न मनुष्यों की सामाजिकताएँ भी भिन्न हैं। अपने तरीके की सामाजिकता को ‍िनभाया जा सके संभवत: इसलिए मनुष्यों ने इन्हें अलग-अलग समाजों की इकाई में भी बाँटा होगा, ताकि हर छोटी इकाई को सुचारु रूप से चलाया जाए तो कुल मिलाकर वृहद मनुष्य समाज को व्यवस्थितता प्राप्त हो। परन्तु काल के प्रवाह में ऐसी व्यवस्थाओं का मूल भाव हमेशा खो जाता है। नतीजा, जो बात सुचारुपन के ‍िलए सोची गई थी वह संकीर्णता की जनक बन गई। आज आलम यह है कि धर्म और जातिवाचक संघों की बाढ़ सी आ गई है। फलाँ जाति महासभा का आज ये कार्यक्रम, फलाँ संघ के प्रतिभाशाली (?) बच्चों का स्वागत, फलाँ जाति के लोग अपनी जाति के ही निर्धनों को (कैमरे के सामने) फलाँ सहायता दे रहे हैं- वगैरह। हाल ही में एक नाम पढ़ा 'अ.भा. फलाँ जाति पत्रकार महासंघ'। यानी उनके सम्मेलन में उस जाति विशेष के पत्रकार इकट्‍ठे होंगे! जो संघ व्यवसाय के आधार पर बनना चाहिए उसे जाति के आधार पर कैसे बाँटा जा सकता है? चुनाव की राजनीति ने इस जातिवाद को और बढ़ाया है। इससे मनुष्य समाज सुचारु इकाइयों में नहीं, टुकड़ों-टुकड़ों में बँटा है। वह भी लड़ाकू, स्वार्थी और संकीर्ण टुकड़ों में। हमारे धर्मों और आस्थाओं के साथ भी कमोबेश यही हुआ है।

जो भी व्यक्ति यह विश्वास करता है ‍िक इस अखिल ब्रह्मांड का संचालन करने वाली कोई सर्वोच्च सत्ता है वह उसे ईश्वर कहे, खुदा कहे या गॉड कहे- लक्ष्य सबका एक ही है बस नाम अलग हैं। मगर मुर्ख मनुष्य इन पवित्र लक्ष्यों के नाम पर भी लड़ता है और नाम देता है उसे 'धर्म' का! और बात जब हमारे भगवान, तुम्हारे भगवान से भी ‍िनचले स्तर पर चली जाती है तो हमारे धर्मगुरु, तुम्हारे धर्मगुरु पर आ जाती है। अच्छा काम किसी भी गुरु ने ‍िकया हो वह सभी का पूज्य और श्रद्धेय है और बुरा काम किसी भी गुरु ने ‍िकया तो वह आलोचना का विषय होगा ही। हमारे धर्मगुरु को ही सजा क्यों? तुम्हारे को तो नहीं होती? वह बात यहाँ नहीं होना चाहिए। जिस व्यक्ति पर गर्व हो उसे तो इंसान अपना बताकर गर्व करता ही है। मगर बात जब बुरे काम की है तो उसे 'हम' में शामिल करने की बात कहाँ आती है? आती भी है तो यह कहकर आना चाहिए कि पहला त्याग 'हम' करेंगे, यदि गलती साबित होती है तो पहला सिर हम कटाएँगे एवं अन्य सम्प्रदायों का मार्ग प्रशस्त करेंगे कि जब न्याय की बात आए तो सब जन बराबर हों। धर्म-सम्प्रदाय की परिभाषा से ऊपर हों। गलत बात में हम उनके साथ 'हम' होकर क्या करेंगे? यह बात सही हो सकती है कि किसी संत पर कोई इल्जाम महज राजनतिक प्रतिशोध हो। मगर संतों को भी तो सीकरी से इतना काम पड़ने लगा है! कोई हिमालय से ढूँढकर तो लाया नहीं जाएगा किसी संत को राजनीतिक प्रतिशोध भांजने के ‍िलए!

दरअसल मनुष्य के धार्मिक होने में और आध्यात्मिक होने में अंतर है एवं धार्मिक होने और धर्मांध होने में तो और भी अंतर है। आध्यात्मिक में सद्‍वृत्तियाँ और सदाचरण आते हैं। धार्मिकता में किसी खास किस्म के पूजा-पाठ आ सकते हैं। धर्मभीरूता में यह भय आ सकता है कि भई फलाँ तो संत है तो उनकी आलोचना करने से पाप लगेगा! हालाँकि कोई खास रंग का कपड़ा पहनने से कोई संत नहीं हो जाता न ही कपड़ा छोड़ने से कोई साधु होता है जब तक कि राग, द्वेष, अहंकार, पद लालसा, यशाकांक्षा आदि न छोड़े जाएँ। तो धर्मभीरू आदमी 'फैन्सी ड्रेस' वाले साधु तक की आलोचना करने से डरता है! और धर्मांध तो इससे भी आगे होता है। वह बेहद कट्‍टर होता है, तर्क की बजाय जड़बुद्धि से सोचता है। वह धर्म का संबंध मानव धर्म की बजाए कर्मकांड से अधिक मानता है।

जाहिर है उसके धर्मयुद्ध और ‍िजहाद की सीमा में मानव के मानव के प्रति न्याय की लड़ाई नहीं, किसी भी खास धर्म का 'बिल्ला' आता है। दुनिया भर में राजनीति ने इस धर्मांधता को और बढ़ाया है। अत: इस वक्त दुनिया को उदार विचारों की सर्वाधिक और सबसे सख्त जरूरत है, ताकि हमें और अधिक युद्ध, गृहयुद्ध, राजनीतिक मार-काट, सामाजिक कलह न देखना पड़ें। भारत के एक बहुसंख्यक धर्म में घर-घर में आरती के पश्चात ये पंक्तियाँ कही जाती हैं- 'धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्‍भावना हो, विश्व का कल्याण हो।'

आशा है धर्म की जय से हमारा आशय मानव धर्म की जय रहा है और रहेगा। वर्ना सद्‍भावना और कल्याण की बात भी सिर्फ कर्मकांड से अधिक कुछ नहीं है।

- ‍िनर्मला भुराड़िया

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

चलो, भाड़ में जाएँ!

'लो कैलरी फूड' आज के जमाने की भोजनचर्या का सबसे खास शब्द बन गया है। और क्यों न बनें? पेट भी भरे, स्वाद भी मिले, भूखा भी न रहना पड़े और मोटापा भी न बढ़े, इसके लिए सबसे सही तरीका हो सकता है कम कैलरी वाले पौष्टिक भोजन का चुनाव।

जब कोई शब्द खास शब्द बन जाता है, तो सबसे पहले बाजार की बन आती है। इसी तरह 'लो कैलरी' के नाम पर फैन्सी भोज्य पदार्थ महँगे दाम पर बिकने लगे हैं। और तो और मोटापा वृत्ति रखने वाले स्वाद के शौकीनों के लिए लो कैलरी आइसक्रीम, लो कैलरी नमकीन और लो कैलरी ‍िमठाइयाँ तक उपलब्ध कराई जाती हैं। अमेरिका जैसे देशों में ‍िडब्बाबंद सामग्री की एक बड़ी रेंज ऐसी है जहाँ स्वाद भी है और कैलरी भी कम है। लेकिन अमेरिका में वर्ग भेद की खाई हमारे यहाँ जितनी बड़ी न हीं है। वहाँ ऐसे प्रयोगों का फायदा आम नागरिकों को मिलता है। हमारे यहाँ जब बाजार में ऐसी चीजें आती हैं तो विज्ञापनों और गाँव-शहरों की गली- गली में खुले अत्याधुनिक शॉपिंग सेंटरों के जरिएँ, पहुँचती वह भी है हमारे आम आदमी के पास। इन्हें 'कभी-कभार' खरीद लेना आम आदमी के बूते का भी हो सकता है, मगर सही कहें तो यह उसे 'पोसाता' नहीं है। पैकिंग के खर्चे से महँगे बने 'चार-दाने' सेंव-चिप्स के पाउच स्वाद और क्षुधा दोनों को ही पूरी तरह शांत नहीं कर पाते। मगर क्या करें 'स्लिम बॉडी' और 'लो कैलरी' भी इसी बाजार की माँग है। दरअसलयह बाजार भूख बढ़ाने के लिए है, भूख शांत करने के लिए नहीं है। आधुनिक बाजार का स्वार्थ इसी में है कि आदमी की भूख बनी रहे!

इसी आधुनिक बाजार में इन दिनों एक 'लो कैलरी' नमकीन घूमते देखा। नमकीन बेचने वाले का दावा था कि यह 'लो कैलरी' है। उनके दावे की पुष्टि के लिए पूछा कि भाई यह नमकीन है तो फिर लो कैलरी कैसे है, इसे तला तो तेल या घी जैसे किसी गहरी चिकनाई में ही होगा न! बेचने वाले ने कहा- नहीं तेल सिर्फ स्प्रिंकल (छिड़का) किया जाता है इसमें।

लो कैलरी नमकीन वाले की बात सुनकर भीड़ में भुना हुआ अपना चना-परमल याद आ गया। छिड़कने की बात तो दूर भाड़ में भुने हुए नाश्ते में तेल का प्रयोग बिलकुल भी नहीं होता। भाड़ में भूँजने के लिए चावल को उबाला, सुखाया जाता है, फिर भूसी अलग करके व नमक का पानी लगाकर, भट्‍टी में समुद्र वाली रेत के साथ सेंका जाता है। इस तरह यह बिलकुल ही कम कैलरी वाली भोज्य सामग्री होता है। भाड़ में भूँजे जाने वाला चना तो पौष्टिक भी होता है। इसमें काफी प्रोटीन होती है। फिर चने-परमल जैसी भाड़ में सिंकी वस्तुएँ खाने के बाद प्यास अधिक महसूस होती है, पानी पीने में आता है, तो यदि कोई कम खाना चाहे तो कम खाकर भी अपना पेट भरा हुआ महसूस कर सकता है। भूला-बिसरा यह तरीका आधुनिक डाइटिंग में भी काम आ सकता है।

रही बात स्वाद की, तो पारंपरिक चीजों का स्वाद खादे-पीते ही विकसित होता है। चना-चिरौंजी, गुड़-चना, परमल-सेंव खाने वाले इन स्वादों की महत्ता बखूबी जानते हैं। और फिर उस लो कैलरी नमकीन का स्वाद याद किया जाए तो तेल छिड़के हुए उस नमकीन का स्वाद बेहद मामूली ही था, क्योंकि नमकीन का स्वाद तो तेल से ही है। शुक्र है भुने चने का स्वाद भुने चने से ही है। और हाँ, शुक्र यह भी है ‍िक भड़कीले पैकेटों की तरह कागज की पुंगी या पु‍ड़िया का पैसा भी यहाँ आपसे नहीं वसूला जाता।

- निर्मला भुराड़िया

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

चाहिए माथे तीन बस भरकर!

स्कूल के प्रिंसीपल के पास एक सरकारी आदमी का फोन आता है फलाँ समारोह है फलाँ नेता आने वाले हैं तीन बस बच्चे चाहिए! गोया बच्चे न हुए 'आलू' हुए। तीन बस बच्चे यानी जानिए तीन बोरा आलू! ये बच्चे जो सिर्फ कुछ माथे हैं। भीड़ बढ़ाने वाले माथे। भाषण सुनकर उबासियाँ लेकर गरदन हिलाने वाले माथे। अतिथियों को सलामी या गार्ड ऑफ ऑनर देने वाले माथे। उन विषयों के पक्ष या विरोध में जुलूस निकालने वाले माथे जिन विषयों के बारे में उनके ‍िदमागों में समझ पैदा नहीं की गई है। उन्हें तो सिर्फ आदेशों पर जुलूस और सभाओं में शामिल होना है। पोस्टर और तख्तियाँ थामना है। कभी-कभी तो घंटों और भूखे-प्यासे रहकर चिप्स चबाकर और समोसा निगलकर। नतीजा! एक बार एक सभा में कई मासूम बच्चे बेहोश हो गए थे।

दरअसल भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में बच्चे अपने प्रजातांत्रिक अधिकार न जानते हैं, न उन्हें यह अधिकार ‍िदया जाता है या समझाया जाता है। शिक्षा व्यवस्था यह सब कुछ समझाने की स्थिति में नहीं हैं, क्योंकि शिक्षा व्यवस्था शिक्षा तंत्र में बदल चुकी है या इससे भी आगे कहने का दुस्साहस किया जाए तो शिक्षातंत्र भी अब शिक्षा माफिया में बदल चुका है। बच्चों की स्कूली शिक्षा का कोई महत्व नहीं बचा है। बच्चे दो-दो स्कूल जाते हैं। स्कूल नं. एक में औपचारिकता के लिए, शाम को स्कूल नं. दो में तगड़ी ‍फीस देकर विशेष पढ़ाई (!) के ‍िलए। कभी-कभी तो वे विशेष पढ़ाई के लिए स्कूल नंबर दो में ज्यादा समय जा सकने के लिए स्कूल नं. एक की झूठी अटेंडेंस भी लाते हैं। यानी भारत में स्कूली शिक्षा की शुरुआत ही झूठ की बुनियाद पर होती है। इस झूठ को कुसंस्कार नहीं माना जाता, क्योंकि भारतीय सोचते हैं ''संस्कार-वंस्कार'' तो गर्मी की छुट्‍टियों में संस्कार शिविर में श्लोक रटवाकर बच्चों को दिलवा देंगे। शिक्षा से जुड़ा ज्ञान, नैतिकता, अनुशासन आदि संस्कार में शामिल हैं यह हम भारतीय मानना भूल गए हैं। देखें शिक्षा व्यवस्था की यह संस्कारहीनता हमें कहाँ ले जाती है?

- निर्मला भुराड़िया

रविवार, 24 अक्टूबर 2010

'वाह' बिकती है!

एक हैं धन्ना सेठ। उनके पास सबकुछ है, गाड़ी, बंगला, नौकर, चाकर..., इससे भी आगे महल-सा घर, घर न हो जैसे फाइव स्टार होटल हो! और जब घर पर न हों तब महँगे फाइव स्टार होटल हैं ही। इससे भी आगे हैं पार्टियाँ, प्रदर्शन, चकाचौंध, ‍िदखावा। और जब इतना सब है तो सब लोग सेठजी को 'धन्ना सेठ' मानते ही हैं। उनकी इस रईसी से लोग भौंचक और अवाक् भी हैं। आम भाषा में कहें तो उनके आसपास के समाज में का उनकी रईसी का बड़ा भभका है, यही वे चाहते भी हैं। उन्होंने 'रईस' होने का टाइटल प्राप्त कर लिया है। इस टाइटल के जरिए सत्ता से संबंध बनाए और 'पॉवरफुल' होने का टाइटल प्राप्त कर लिया। इसके बाद 'टाटपट्‍टियाँ' बाँटकर 'समाजसेवी' होने का, अपनी अंटी से कथा-भागवत कराके 'धर्मपरायण' होने का यानी अब सेठजी रईस, ताकतवर, समाजसेवी, धर्मपरायण हैं। लेकिन सेठजी को एक चीज अखरती रही है कि 'बुद्धिजीवी' उन्हें अपने बीच का नहीं मानते-बावजूद इसके ‍िक उन्होंने जो व्यापार स्थापित ‍िकया है उसमें काफी बुद्धि और सयानापन लगा ही होगा। चतुराई के बगैर यह सब कैसे होता? पर अब सेठजी को नई धुन लगी है 'उस तरह' का बुद्धिजीवी होने की जिस तरह के बुद्धिजीवी उन्हें बुद्धिजीवी नहीं समझते। इसके ‍िलए उन्होंने एक 'इमेज-गुरु' की नियुक्ति की है।

'इमेज-गुरु' ने सेठजी की 'छवि बनाओ' प्रक्रिया के तहत सबसे पहले उनके ड्रॉइंग रूम के बुक रैक में रखने के ‍िलए बुद्धिजीवी हलकों में चर्चित कुछ आला दर्जे की किताबों के डीलक्स, हार्डकवर एडीशन खरीदकर सजाए हैं। घर के अलग-अलग कमरों के ‍लिए प्रख्यात (यहाँ ब्रांडेड पढ़ें) चित्रकारों की पेंटिंग खरीदी है। इमेज-गुरु ने सेठजी को इन चीजों के ज्ञान का इतना सार ‍िनकालकर पकड़ा ‍िदया है कि वे इन ‍िवषयों पर चर्चाएँ होने पर अनभिज्ञ से न खड़े रहें। मगर इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली घटना तो एक निमंत्रण पत्र देखने पर सामने आई। यह ‍िनमंत्रण पत्र एक कला प्रदर्शनी का था। उसकी अध्यक्षता सेठजी कर रहे थे। सेठजी और पेंटिंग की प्रदर्शनी की अध्यक्षता? मगर वे तो 'कला-मर्मज्ञ' कभी रहे ही नहीं हैं? शास्त्रीय संगीत की महफिलों में नगर सेठ होने की वजह से आदरणीय अतिथि के रूप में जाना भी पड़े तो वे सबसे आगे की पंक्ति की सीट पर बैठकर भी आराम से ऊँघते हैं। ‍िफर आयोजकों को ऐसी क्या पड़ी थी कि उन्होंने प्रदर्शनी के उद्‍घाटन के ‍िलए ‍िकसी कलाकार या कला प्रेमी को बुलाने के बजाय सेठजी को बुलया? - इस बात का राज भी दो ‍िदन में ही पता चल गया। कला प्रदर्शनी को सेठजी ने ही प्रायोजित किया था। चूँकि पैसा उनका था अत: कला-मर्मज्ञता का टाइटल भी उन्हीं का था।

यहाँ हमारा इरादा ‍िकसी की व्यर्थ नुक्ता-चीनी करने का नहीं है। और यह 'धन्ना सेठ' नाम के ‍िकसी एक व्यक्ति की बात भी नहीं है। यह तो एक पूरी प्रक्रिया की बात है, ‍िजसके तहत आज का पूँजीवादी, सत्ताधारी, वंशवादी तबका हर चीज पर कब्जा कर लेना चाहता है। जो 'वी.आई.पी.' है वही बुद्धिजीवी और कला-मर्मज्ञ भी है, वही समाजसेवी और धर्मपरायण है। उसी के बच्चे महँगी फीस भरकर, डोनेशन देकर डॉक्टर, इंजीनियर बनेंगे, उसी के बच्चे नेता और अभिनेता... सत्ता तो सत्ता आम व्यक्ति की योग्यता के लिए वे बुद्धि, प्रतिभा और योग्यता के क्षेत्र भी नहीं छोड़ेंगे। सबकुछ खरीद लेंगे। अब हम सेठजी से यह तो नहीं कह सकते कि तुम अपनी आलीशान गाड़ियों में घूमो और पार्टियों में व्यस्त रहो, रईसी के सारे सुख उठाओ पर आम आदमी के लिए आम चीजें तो छोड़ो। पर हम आम आदमी से तो यह कह सकते हैं ‍िक भाई पैसे से खरीदी कला-मर्मज्ञता पर वाहवाही मत करो! वाहवाही लुटाकर सेठजीनुमा लोगों की प्रवृत्ति को तूल देना घातक है। सोचिए जरा, कोई कुछ भी खरीद सकता है पर आपकी अंतरआत्मा की आवाज तो नहीं न!

- निर्मला भुराड़िया

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

'सुरसती'

नाम है उसका 'सुरसती' पर देवी सरस्वती से उसका कोई नाता नहीं है, वैसे ही जैसे उसकी बहन 'लछमी' का धन की देवी लक्ष्मी से दूर-दूर तक का कोई नाता नहीं। न लछमी स्कूल जाती है न सुरसती। हाँ छोटे भाई 'परकास' को दोनों बारी-बारी से संभालती हैं और घर में चौका-चूल्हा भी करती हैं जब माँ बरतन माँजने जाती है। और चूँकि सुरसती कुछ और बड़ी हो गई है इसलिए माँ के साथ काम पर भी जाती है। साल-दो साल और बड़ी होने पर वो भी काम पकड़ लेगी...।

फीसवाले स्कूल जाने का तो सवाल नहीं। वो तो 'परकास' के लिए है, उसके लिए पेट काट के फीस जमा हो रही है। सरकारी मे भी भेजा तो लछमी तो अँगूठा छाप ही लौट आई थी इसलिए सुरसती को काम का टेम बिगाड़ने नहीं भेजेगी माँ! झाडू-पौंछा, बरतन-बासन, रोटी-पानी कितना तो काम निपटा देती है दस बरस की सुरसती! लेकिन सुरसती के नाम ने एक ‍िदन थोड़ा तो कमाल ‍िदखाया। बरतन वाले घर की एक गृहिणी की दया-दृष्टि सुरसती पर पड़ गई। वह गृहिणी उसे दोपहर में अक्षर ज्ञान कराने लगी और गिनती सिखाने लगी। गृहिणी को पता है, अपने खुद के घरवालों से, सुरसती के घरवालों से और सुरसती की ‍िस्थतियों से लड़कर वह 'सुरसती' को स्कूल नहीं भिजवा सकती। गृहिणी अपने पास से फीस भरकर सुरसती को स्कूल ‍िभजवा दे यह भी कम से कम उसजैसी मध्यमवर्गीय गृहिणी के लिए तो कल्याण की एक हवाई योजना होगी। मगर इतना तो उसके बूते में है कि सुरसती को इतना ‍िसखा दे ‍िक सुरसती दुकानों के बोर्ड पढ़ ले, बाहर जाए तो स्टेशनों के नाम पढ़ ले, इतनी ‍िगनती-पहाड़ा जान जाए कि ‍िकराने वाले से ठगाए नहीं। सचमुच इस गृहिणी ने बहुत अच्छा काम किया। और भी गृहिणियाँ अपने आसपास की 'सुरसतियों' को ढ़ूँढकर ऐसे काम में लग जाएँ तो इन निर्धन बच्चों की बहुत मदद हो। गृहिणियाँ ठान लें तो ऐसे छोटे-छोटे काम भी क्रांति में बदल सकते हैं और बाकी समाज की सद्‍इच्छा भी वंचित बच्चों के साथ रहे तो उन्हें भी ‍िशक्षा का उजाला मिल सकता है। क्योंकि सरकारें तो आती-जाती हैं और एक-दूसरे की नीतियाँ पलटने को ही 'डिटॉक्सीफिकेशन' समझती हैं। ‍िशक्षा के व्यावसायीकरण या 'स्वार्थीकरण' को कौन रोकता है? और यदि सामाजिक सद्‍इच्छा न रही तो सरकारें कर भी क्या लेंगी? एक उदाहरण है मनोज का। वह गाँव में एक धनिक के यहाँ काम करता था। मनोज के ‍िपताजी की इच्छा हुई उसको स्कूल में भर्ती कर दें। धनिक को लगा जम के काम करने वाला 'बैल' स्कूल चला जाएगा तो उसके काम का हर्जा होगा। तो उसने माट्‍साब को कहा- 'छोणे के अच्छे कान खींचना और झापड़े भी देना, अपने आप भूल जाएगा स्कूल जाना...' यह है हमारा स्वार्थी समाज। इसी तरह ‍िनमाड़ के एक गाँव से दो बच्चे आए थे, उनसे पूछा माट्‍साब क्या पढ़ाते हैं तो एक बच्चे की कक्षा के माट्‍साब तो पढ़ाते थे, मगर दूसरे बच्चे के माट्‍साब कुर्सी पर सोते थे और बच्चे एक-दूसरे पर कागज के रॉकेट चलाते थे। और सरकार द्वारा निर्धारित मध्याह्न भोजन? तो बच्चों ने फट से कहा- दोपहर में सेंव-परमल देकर भगा देते हैं! सेंक्शन किया हुआ राशन कहाँ जाता होगा? माट्‍साब का दु:खड़ा भी अपनी जगह ठीक ही है कि सरकार मास्टर नाम के जीव को ही दुनियाभर के आलतू-फालतू काम में लगाती है। वे भी सही कहते हैं पर इसका फल ‍िनर्धन बच्चे क्यों भुगतें! पहले क्या सरकारी स्कूलों से पढ़कर गुदड़ी के लाल नहीं निकले हैं?

- निर्मला भुराड़िया

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

काश कोई चाँदनी होती! : यश चोपड़ा

निर्माता-निर्देशक यश चोपड़ा का नाम हिन्दी फिल्म दर्शकों के लिए नया नहीं है। 'दाग' से लेकर 'दिल तो पागल है' जैसी फिल्मों के ‍िनर्देशक और 'चक दे इंडिया', और 'न्यूयॉर्क' जैसी फिल्मों के ‍िनर्माता यश चोपड़ा का नाम एक खास किस्म की कहानी बनाने वाले स्कूल का रूप ले चुका है। खूबसूरत और संवेदनशील फिल्में बनाने वाले यशजी को इस साल किशोर कुमार सम्मान प्रदान ‍िकया गया। प्रस्तुत है यश चोपड़ा से संक्षिप्त बातचीत।

- आपकी फिल्म 'धर्मपुत्र' में बड़ा ही अच्छा संदेश था साम्प्रदायिक एकता का। अभी फिर से वही हालात हैं। सहिष्णुता कम हो गई है। क्या आप फिर 'धर्मपुत्र' जैसी फिल्म बनाएँगे?
- यह सारी दुनिया की समस्या है। सहिष्णुता अब बची ही नहीं है, इस वजह से अपराध और आतंकवाद बढ़ गया है। टालरेंस किसी के पास भी नहीं बचा है, लेकिन इस देश में हमें सुखी और शांति से रहना है तो साहिष्णुता तो रखनी ही पड़ेगी। आप यह नहीं कह सकते कि आपको मुस्लिमों की परवाह नहीं है। ये हमार देश, हमारी संस्कृति का, हमारा हिस्सा हैं। अयोध्या का फैसला हुआ तो सभी समुदायों ने इसे पॉजीटिवली लिया, कारण जो भी हो। 'धर्मपुत्र'
यदि आज बनाई जाए तो शायद स्वीकृत न हो क्योंकि सहिष्णुता और घट गई है।

- मैसेज देना तो और भी जरूरी हो गया ऐसे में...!
जैसा अयोध्या का मैसेज है, मैंने वैसा 'वीर-जारा' में मैसेज दिया, लेकिन कहानी में भावनात्मकता डालकर दिया। मैंने किसी पाकिस्तानी को गालियाँ नहीं दीं, मुस्लिम को गालियाँ नहीं दीं। उस कहानी का कोई भी पात्र विलेन नहीं था। एक भारतीय लह़का पाकिस्तानी लड़की से प्यार करने लगता है। ऐसी फिल्म में सरहद बीच में नहीं आती। रूमानियत की ही नहीं, इंसानियत की भी कोई सरहद नहीं थी वहाँ। पिक्चर पाकिस्तान में भी अच्छी चली। मुझे कहा गया था ‍िक वो सिंदूर वाला सीन काट दो, हम पिक्चर सेंसर करा देंगे... मैंने कहा नहीं, वो ही तो पिक्चर है, यही मेरा सिंबल है। मेरा हिन्दुइज्म ही सिंबल है। एक हिन्दू लड़का एक मुस्लिम लड़की के प्रति प्रेम कैसे व्यक्त करेगा? शेक हैंड करके तो नहीं! अपनी संस्कृति के ‍िहसाब से ही करेगा।

- एक महत्वपूर्ण बात जो आपकी फिल्मों में देखने को ‍िमलती है, वह है प्लेटोनिक लव। 'दिल तो पागल है' में एक दृश्य है जिसमें माधुरी को देखा नहीं है शाहरुख ने और वे शाहरुख की धुन पर डांस कर रही हैं।
... मैं मानता हूँ कि कोई न कोई आपके लिए बना होगा...। यह अलग बात है कि कभी आप उससे मिल पाते हैं और कभी-कभी नहीं भी मिल पाते हैं। माधुरी-शाहरुख को हम 'सोलमेट्‍स' कह सकते हैं। जो धुन वहाँ बज रही है, वह लोकेशन पर नहीं, माधुरी के अंतरमन में है। लेकिन मैं इंसानी रिश्तों पर फिल्म बनाता हूँ। इसका मतलब यह नहीं है कि वे हमेशा रोमांटिक हों। 'दीवार' में प्यार हाशिए पर था। यह कहानी दो भाइयों और माँ-बेटे की कहानी थी और यही महत्वपूर्ण हिस्सा था फिल्म का। इसमें शशि-नीतू और परवीर-अमिताभ का लव कैसा है? वह कहानी का हिस्सा है, लेकिन वही मुख्य कहानी नहीं है।

- एक कहानी ‍िजस पर आप फिल्म बनाना चाहते हैं, वह कितना समय लेती है?
ठीक वैसे ही जैसे कोई महिला कंसीब करती है। जैसे ही वह प्रैग्नेंट होती है, वैसे ही डिलीवर नहीं कर सकती। कभी-कभी कोई आइडिया आता है, लेकिन शेप नहीं ले पाता है, बहुत समय लगता है। कर्मशियली बहुत चलता रहता है, पिक्चर ऐसे बनाऊँगा, वैसे बनाऊँगा... यूँ बहुत सारे आइडिया आते हैं लेकिन हर आइडिया कहानी का रूप नहीं ले पाता है। मेरे ‍िदमाग में आइडिया है कि ‍'दिल तो पागल' बनानी है, मैं बनाऊँगा। अब 'दिल तो पागल है' को लोगों ने कहा कि ये बहुत एलिट आइडिया है, चलेगा नहीं। मैंने कहा- मैं बनाऊँगा। लोग कहते हैं कि मैंने 'सिलसिला' और 'लम्हें' वक्त से पहले बना दी। मैं सही नहीं मानता हूँ। मेरे कंसेप्ट, मेरे मिजाज से मैं फिल्म बनाता हूँ। हाँ, हर फिल्म में व्यावसायिक और सृजनात्मक दोनों वजहों को ध्यान में रखता हूँ।

- साहिर लुधियानवी के साथ आपने बहुत काम किया। साहिर जैसे लोग तो कभी-कभी ही पैदा होते हैं। क्या आपको उनकी कमी खलती है?
बहुत खलती है...। वे मेरे बहुत करीबी दोस्त थे। मैं पाँच मिनट में उनको कोई बता समझाऊँ, फिर उन्हें दोबारा समझाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। अपने सामाजिक और भावनात्मक गानों में भी दृश्य के अनुरूप कविता कर लेते थे। ही डाइड टू सून... वे बहुत जल्दी चले गए। वे अकेले और तन्हा हो गए थे, क्योंकि उन्होंने शादी नहीं की थी, लेकिन उनका योगदान बहुत रहा। मैं नहीं सोचता हूँ कि कोई और लेखक उनके स्तर का काम कर पाएगा।

- नए निर्देशकों को आपने बहुत मौका दिया। इसके पीछे कोई विजन है?
मैं सोचा करता हूँ कि ईश्वर ने मुझे कुछ दिया है कि मैं नए लोगों को मौका दे सकता हूँ। नए निर्देशक नए आइडिया लेकर आते हैं, कभी वो अच्छे होते हैं, कभी अच्छे नहीं होते हैं। कभी फिल्में चलती हैं, कभी नहीं चलती हैं, हम कंपनी के तौर पर कोशिश करते हैं कि हम नए लोगों, चेहरे, निर्देशक, गायकों, म्यूजिक डायरेक्टर, नए राइटर को मौका दें। हमने 'चक दे इंडिया', 'फना', 'धूम', 'न्यूयॉर्क', 'रब ने बना दी जोड़ी', 'हम तुम' में नए लोगों के नए आइडिया के साथ काम किया है।

-स्विट्‍जरलैंड आपका प्रिय डेस्टिनेशन कैसे बना?
पहले मैं टूरिस्ट की तरह गया था, फिर पत्नी के साथ हनीमून पर गया। वहाँ घुसते ही बहुत शांति-सी लगती है आज भी। स्विट्‍जरलैंड ने मुझे बड़ा सम्मान ‍िदया है। मैं जब भी वहाँ जाता हूँ तो महसूस करता हूँ कि ईश्वर ने इस देश को बहुत खूबसूरत बनाया है और वहाँ के लोगों ने उस देश को और भी खूबसूरत बना दिया है।

-'चाँदनी' नाम आपकी फिल्मों में बहुत यूज हुआ है।
चाँदनी आई फील इज प्योरिटी... यू थिंक ब्यूटी ऑफ चाँदनी... पर्ल... व्हाइट... ज्वेलरी... लाइट, प्योर, व्हाइट, व्हेन यू थिंक ऑफ चाँदनी यू थिंक ऑफ ब्यूटी...।

-लोग क्या समझते हैं, आप जानते हैं? नहीं, क्या ?
कि चाँदनी नाम की कोई लड़की पार्टीशन के समय पाकिस्तान में छूट गई है। नहीं, ऐसा नहीं है... काश ऐसा होता...!

- निर्मला भुराड़िया

गुरुवार, 14 अक्टूबर 2010

सफर का आनंद

बरसों पुरानी बात है एक स्कूली छात्रा के रूप में मैंने कलागुरु श्री ‍िवष्णु चिंचालकरजी का ऑटोग्राफ ‍िलया था। बाल उत्सुकता से यह सवाल भी पूछ लिया था कि अच्छी चित्रकारी कैसे सीखी जा सकती है। मैंने उनकी ओर अपनी एकदम नन्हे आकार की ऑटोग्राफ डायरी बढ़ाई तो उन्होंने अपने ट्‍यूब-कलर्स पिचकाकर उसके एक पन्ने पर बगैर ब्रश सीधे ट्‍यूब से ही दो-तीन प्रकार के रंग लगा दिए। फिर डायरी बंद करने की मुद्रा में उस पन्ने के रंगों को अगले पन्नों पर ‍िचपका ‍िदया। ऐसा करके उन्होंने डायरी खोली तो डायरी के दो पन्नों पर मिलकर एक सिमेट्रिकल डिजाइन तैयार हो गया था। उस डिजाइन के नीचे उन्होंने मेरे सवाल का जवाब या कहें अपना प्रेरक संदेश लिख ‍िदया, 'अपने माध्यम के साथ खेलते रहने पर माध्यम ही सबकुछ बता देगा।' है न! अद्‍भुत बात। और आगे ‍िजंदगी ने इस प्रेरक संदेश की बार-बार पुष्टि ही की ‍िक मन लगाकर करते रहना सीखने का सबसे अच्छा उपाय है। और शब्द 'खेलते रहो' इसमें भी गहन संदेश है। इसमें भार रहित हो आनंद और मजे से अनुभव अर्जित करने का संदेश है। दबाव से नहीं।

अभी कुछ ‍िदनों पहले की ही बात है। कुछ स्कूली बच्चे ग्रुप बनाकर परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। वे विभिन्न विषयों के सवाल-जवाब याद कर रहे थे, जो उनके ‍िशक्षकों ने तैयार करवाए थे। कुछ बच्चों ने उत्तर वैसे के वैसे याद कर लिए थे, कुछ ने उत्तर समझने के प्रयास भी किए थे, मगर उनसे संबंधित चैप्टर ढंग से नहीं पढ़े थे। ये बायोलॉजी के छात्र थे। जब उनसे ‍िकसी ने कहा ‍िक 'प्राणी जगत प्रकृति का अजब करिश्मा है। ढंग से पढ़ोगे तो बहुत मजा आएगा। प्रकृति की लीलाएँ देखकर अरे वाह! कहने को जी होगा।' तो बच्चे हँसने लगे। उन्हें बात समझ नहीं आई क्योंकि वे समझने के ‍िलए ‍िवषय पढ़ते ही नहीं। प्रतिस्पर्धा के दबाव में पढ़ते हैं। मगर यह दबाव ही उनके परीक्षा परिणाम का दुश्मन बन जाता है और पढ़ने के आनंद का भी। और पढ़ने का मजा सिर्फ प्राणी विज्ञान में ही नहीं है। भाषा, गणित, समाजशास्त्र आदि में भी है। हिन्दी और अँगरेजी पढ़ते हुए जब एक-एक शब्द का नया अर्थ खुलता है तो मजे से पढ़ने वाले के ‍िलए यह एक आह्लादकारी क्षण होता है। गणित के स्टेप्स करते हुए लोग नशे में डूब जाते हैं, अपने आपको भूल जाते हैं। इसीलिए यह व्यवस्था है ‍िक प्राथमिक पढ़ाई करते वक्त सभी ‍िवषय पढ़ाए जाने के बाद उच्च कक्षाओं में पसंद के ‍िवषय चुनने का कहा जाता है, लेकिन होता यह है कि जो चुने जाते हैं वे विषय व्यक्ति की पसंदगी और विशेषज्ञता से अधिक संबंध नहीं रखते। माता-पिता के अधूरे सपनों और रोजगार के दबावों से अधिक संबंध रखते हैं। नतीजा होता है बेमन से पढ़ना और बेदिली से रोजगार चुनना। कभी-कभी यह मजबूरी भी होती है। पर अक्सर सामाजिक दबाव ही होते हैं।

जीवन के कार्यक्षेत्र में भी फिर यह मानसिकता जारी रहती है। कार्यालयों में ऐसे लोग बहुतायत में पाए जाते हैं, जो काम तभी करते हैं जब कोई देख रहा हो (खासकर बॉस)। जब आप सिर्फ किसी को ‍िदखाने के ‍िलए कार्य करते हैं या काम करके किसी अन्य पर एहसान करते हैं, तो ‍कार्य से तथाकथित प्रगति के लाभ अवश्य पा सकते हैं, लेकिन असली प्रगति और असली आनंद तो तभी है, जब आप अपनी गुणवत्ता के ‍िलए कार्य करें, किसी को ‍िदखाने के ‍िलए नहीं और आपको अपने काम में मजा आए। यह अपने माध्यम से खेलते रहने के ‍समान ही रुचिकर होगा और खेल ही खेल में जीवन सबकुछ सिखा भी देगा। किया हुआ कभी व्यर्थ नहीं जाता। कोई देखे न देखे, आपके अनुभव आपकी दक्षता से ही जुड़ेंगे और दक्षता सममुच की प्रगति से। ऐसा करते हुए मंजिल पर तो आप पहुँचेगे ही और सफर का आनंद उठाते हुए पहुँचेगे।

- निर्मला भुराड़िया

बुधवार, 13 अक्टूबर 2010

पेड़ हैं तो जिंदगी है

हम धूप में जाकर खड़े हो जाएँ तो क्या हमारे शरीर में अपन आप भोजन बन जाएगा? हम यह नहीं कर सकते न? तो फिर हमारे लिए भोजन कौन पकाता है? जी हाँ, पेड़! इस सृष्टि में पेड़ ही यह काम कर सकता है। सृष्टि का हर प्राणी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भोजन के लिए पेड़ों पर ‍िनर्भर है। क्योंकि, क्लोरोफिल सिर्फ पेड़ों के ही पास है। पेड़ों की पत्तियों का क्लोरोप्लास्ट सूर्य की रश्मियों से ‍िमलकर फोटोसिंथेसिस नामक प्रक्रिया करता है, ‍िजससे ग्लूकोज उत्पन्न होता है। इसी प्रक्रिया में पानी और कार्बन डायऑक्साइड का उपयोग कर पेड़ ऑक्सीजन उत्पन्न करता है और वायुमंडल में छोड़ता है। यानी पेड़ हमारे अन्नदाता ही नहीं प्राणवायुदाता भी हैं। पेड़ धरती पर भोजन ही नहीं, शुद्ध वायुका भी स्रोत हैं। हम अपनी सॉंसों के जरिए जो हानिकारक कार्बन डॉयऑक्साइड छोड़ते हैं उसे सोखकर पेड़ ऑक्सीजन देते हैं। सोचिए न हों तो हमारा क्या हो? लेकिन स्वार्थी और मूर्ख मनुष्य जिस डाल पर बैठा हैं उसी को काट रहा है। अपनी जिंदगी के आधार को ही नष्ट कर रहा है। और ऐसा करके अपने आपको आधुनिक और विकासोन्मुख समझ रहा है।

प्राचीनकाल से ही भारत में पेड़ों की महत्ता बताई जाती रही है। खासतौर पर महिलाएँ वृक्ष-पूजक रही हैं। वृक्ष-पूजा के जरिए उन्हें वृक्षों की महिमा समझाई जाती रही है। वृक्ष-पूजा के बहाने ही वह वृक्षों को जल अर्पण करना और वृक्षों की देखभाल करना इत्यादि करती चली आई हैं। लेकिन 21वीं सदी की स्त्री वृक्ष की उपयोगिता समझने में सर्वाधिक रूढ़िवादी और पिछड़ी हुई साबित हुई हैं। पूजा के बहाने वृक्ष-सेवा करना तो उसने छोड़ दिया है। लेकिन अब यदि धर्म और पापबोध के रास्ते से समझने को तैयार न हो तो उसे आधुनिक विज्ञानसम्मत तर्कों से तो वृक्ष की महत्ता समझ ही लेना चाहिए। कोई हर्ज नहीं कि आधुनिक घरों में भी तुलसी के चौरे बनने लगें और स्त्रियॉं उनमें जल चढ़ाएँ। लेकिन विडंबना यह है कि किसी भी बहाने हो, पारंपरिक और ग्रामीण स्त्रियों में वृक्ष-चेतना आधुनिक स्त्रियों से अधिक रही है। गढ़वाल के चिपको आंदोलन की स्त्रियों ने अक्सर पेड़ कटने नहीं दिए हैं। वे पेड़ों से आलिंगन करत हुए खड़ी हो जातीं, पहले हम पर कुल्हाड़ी चलाओं, फिर पेड़ पर चलाना।

ऐसा नहीं कि आधुनिक स्त्री और आधुनिक समाज के पास कोई रास्ता नहीं। कोई तरीका नहीं। वे चिपको आंदोलन न चलाएँ तो न सही, वृक्षारोपण महायज्ञ तो चला ही सकते हैं। अपने बच्चों के जन्मदिन पर जैसे केक काटने को आपने रस्म बनाया है वैसे ही पेड़ लगाने को भी बनाएँ। आपका कोई प्रेम दिवस है यानी किसी प्रिय से मिलने का दिवस या विवाह की वर्षगॉंठ तो उस दिन भी वृक्षारोपण कर मधुर स्मृतियों को चिर स्थायी बनाया जा सकता है। जब कभी भी आप उस पेड़ को बड़ा होता और फलता-फूलता देखेंगे तो मीठी यादें मस्तिष्क में कौंध जाएँगी। किसी दीवार या चट्‌टान पर अपना नाम खोदने और दिल का निशान बना आने से तो यह निश्चित ही बेहतर होगा। अपने मृत परिजनों की स्मृति में पेड़ लगाने के कार्य भी हुए हैं। संस्थाएँ अपने बैनर तले भी वृक्षारोपण जैसे पुण्य कार्य को अंजाम दे सकती हैं। न.... न.... लेकिन रुकिए सिर्फ एक अदद विज्ञप्ति या तस्वीर की खातिर एक पेड़ लगाकर नहीं। यह तो खुद को धोखा देना होगा। पेड़ हम सबके सगे हैं। हमें अपने आप के लिए उन्हें पोसना है, किसी को दिखाने के लिए नहीं।

हॉं, आपके अच्छे कार्य से दूसरे भी प्रेरणा लें, इसके लिए इक्के - दुक्के पेड़ रोपकर उन्हें भूल जाने से काम नहीं चलेगा। क्लबों और सामाजिक संस्थाओं के जरिए तो यह काम बड़े पैमाने पर होना चाहिए, तभी आपकी प्रेरणा दूसरों के काम आएगी। स्कूल और कॉलेजों में भी वार्षिक समारोहों के साथ वृक्षारोपण समारोह मनाए जा सकते हैं। स्कूल में अध्यापक-अध्यापिकाएँ भी छात्रों को वृक्षों के महत्व और वृक्षारोपण के बारे में जानकारी दे सकते हैं। यह काम केवल वनस्पति शास्त्र के शिक्षकों और छात्रों के लिए न छोड़ें तो अच्छा है। कायदे से पेड़ समाज शास्त्र का विषय है या यूँ कहें जीवन का शास्त्र पेड़ों के बिना अधूरा है। पेड़ हैं तो जिंदगी है। हरियाली है तो खुशी है। फलदार और छायादार पेड़ भोन, प्राणवायु और छॉंह ही नहीं, प्रसता भी देते हैं। फूल और पत्तेदार पेड़ तितलियों को पराग, भॅंवरों को शहद, पंछियों को पनाह ही नहीं, इंसान को सुकून भी देते हैं। प्रकृति की सुरम्य गोद में मिलने वाला सच्चा सुकून। याद है वह गीत "हरी-भरी वसुंधरा पे नीला-नीला ये गगन है... ये कौन चित्रकार है'। क्या हम सृष्टिकर्ता की इस सुंदर कल्पना को सीमेंट के जंगलों में बदलकर प्रस रह सकेंगे?

- निर्मला भुराड़िया

मंगलवार, 12 अक्टूबर 2010

बसेरे से दूर

'अगले घर जाना है कुछ काम-धाम सीखो', ससुराल जाने की यह दुहाई हर जमाने की लड़कियाँ सुनती आई हैं। अपवाद छोड़ दें तो भारतीय माताएँ घरेलू काम में लड़कियों के स्वावलंबन को लेकर खासी चौकन्नी होती हैं। वे जानती हैं ‍िक लड़की ताजिंदगी उनके आँचल के साए में नहीं रहेगी। वे दूर रहकर लड़की से प्रेम बनाए रख सकती हैं, पर घरेलू कार्य में भौतिक सहकार नहीं। इस बीच जमाने ने करवट ली और दो महत्वपूर्ण परिवर्तन आए हैं। एक तो यह कि लड़कियों की ‍जिंदगी में अब घरेलू मोर्चा ही नहीं, बाहरी दुनिया की चुनौतियाँ भी हैं। उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाली और कामकाजी लड़कियों की संख्या बढ़ रही है। अत: लड़कियाँ अब बिजली के बिल भरना, सौदे लाना, बैंक जाना, वाहन चलाना इत्यादि पारंपरिक तौर पर 'भाइयों' द्वारा किए जाने वाले काम भी कर रही हैं। और एक समग्र आत्मनिर्भरता की ओर कदम रख रही हैं।


दूसरा महत्वपूर्ण परिवर्तन लड़कों की सामाजिक स्थिति को लेकर आया है। अब यह जरूरी नहीं ‍िक लड़कों को अपने जन्म स्थान पर ही रोजगार मिल जाए। लड़कों को उच्च शिक्षा के लिए तो अपने गाँव-शहर से बाहर जाना ही होता है, रोजगार के अच्छे अवसर भी अक्सर गाँव-घर से बाहर तलाशने होते हैं। अत: बसेरे से दूर जाने पर उन्हें भी अब घरेलू कामकाज में अनाड़ीपन के परिणाम भुगतना पड़ते हैं। रोज जला पराठा या दूध-ब्रेड खाना भारी पड़ जाता है। कपड़ों और जुराबों की अव्यवस्था से जूझना पड़ता है तो बाथरूम में बनियाना-तौलिया रखे नहीं ‍िमलते। लेकिन अमूमन माताओं का ध्यान इस परिवर्तन की ओर नहीं गया है। वे अब भी अपने लाल को हाथ में चीज देकर अपने पर ‍िनर्भर बनाए रखती हैं। या उन्हें लगता है कि उनकी पत्नी आकर इन कामों को निभा देगी। लेकिन बदली परिस्थितियों में युवकों को माँ सरीखी पारंपरिक पत्नी मिलना भी मुश्किल हो गया है। तो फिर इस बदलाव को नकारने की नाकाम कोशिश के बजाए लड़के भी अपने कार्यों का दायरा क्यों न बढ़ाएँ। ऐसा करना न स्त्री-पुरुष की भूमिका की अदला-बदली है, न भूमिका का बँटवारा। ऐसा करना एक व्यक्ति में गुणों की समग्रता का होना है- वह फिर चाहे स्त्री हो या पुरुष।


- निर्मला भुराड़िया

सोमवार, 11 अक्टूबर 2010

संगीत का संस्कार

आज की एक सफल गायिका कविता कृष्णमूर्ति मेरे सामने बैठी हैं। बातचीत का ‍िवषय ‍िनश्चित ही संगीत है और बातचीत का यह सिलसिला एक बहुत ही महत्वपूर्ण ‍िबंदु पर पहुँचता है। वह है इन ‍दिनों भारत में जोर पकड़ता रीमिक्स संगीत का गोरखधंधा! रीमिक्स संगीत में यह होता है कि नए-पुराने प्रचलित गीतों के ट्रेक पर नई आवाजें चढ़ा दी जाती हैं या पुराने गीतों में अपने ढंग से मिलावट करके नए रूप में तैयार करके बाजार में जारी कर ‍िदया जाता है। इस गोरखधंधे में कुछ अच्छे गीतों की शुद्धता और नायाब गीत-संगीत इस कदर खो गए हैं ‍िक नई पीढ़ी अच्छी और मौलिक चीज से परिचित ही नहीं है। वह इस चोरी और सीनाजोरी वाली धुनों और गीतों को ही सही समझती है और अपनाती है। इस तरह युवा कुछ बहुत ही उम्दा गीत रचनाओं से वंचित रह जाते हैं।

रीमिक्स, सस्ते गीतों, नकली कैसेटों और भोंडे वीडियो के बढ़ते चलन पर कविताजी ने भी दु:ख प्रकट किया, ‍िकन्तु साथ ही उन्होंने एक और बहुत महत्वपूर्ण बात भी ध्यान दिलाई। कविताजी का कहना है ‍िक व्यवसाय के लिए नई पीढ़ी को यह गलत सौगात देने के लिए गायक, संगीत निर्देशक, निर्माता आदि तो जिम्मेदार हैं ही, लेकिन आज के माता-पिता भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं। क्योंकि वे बचपन से ही संगीत संबंधी सुरुचि बच्चों में ‍िवकसित नहीं करते। दक्षिण भारत में अल सबेरे ही घर-घर में सुब्बालक्ष्मी बजती हैं तो नई पीढ़ी उनसे परिचित हुए बगैर नहीं रहती। कविताजी ने उल्टे प्रश्न किया- 'यहाँ ऐसे कितने घर हैं, जहाँ सुबह अच्छा गीत और अच्छा भजन बजता हो अौर चार साल की उम्र में बच्चा उन्हें सुनता आया हो?' कविताजी की बात में दम है। यदि बहुत बचपन से ही हमारे घरों में बच्चे अच्छा संगीत सुनें तो ‍िनश्‍चित ही वे परिष्कृत रुचि के साथ बड़े होंगे। तब रीमिक्स और नकली कैसेट वे सुनेंगे तब भी इसके प्रति रुझान विकसित नहीं करेंगे, क्योंकि उन्हें असली-नकली का भेद स्वयं ही पता होगा।

भारत एक ऐसा देश है, ‍िजसके कण-कण में संगीत बसा है। हमारे जनजीवन में संगीत हर रीति-रिवाज से जुड़ा है। कृष्ण की बाँसुरी हो या सरस्वती की वीणा या सूफी संतों की मजारों पर गाई जाने वाली कव्वालियाँ। बच्चों को सुलाने की लोरियाँ हों या समाजसेवियों की प्रभात फेरियाँ। हर चीज में गीत-संगीत है। शादी-ब्याह में मेहँदी से लेकर बिदाई तक कोई भी रस्म बगैर गीत-संगीत के पूरी नहीं होती। गाँव की औरत घट्‍टी चलाते हुए भी गाती हैं। तो कभी कोई राहगीर नारियल के गोले और घोड़े के बाल से वाद्य बनाकर गाता चलता है। जनजातीय लोग लौकी की तरही और कद्दू का तमूरा बनाकर गा-बजा लेते हैं। भजनों और कीर्तनों में झाँझ-मजीरे बजते हैं। शंख, घड़ियाल और करतल ध्वनि के साथ आरती होती है। अग्नि प्रज्वलित करने और बरखा लाने वाले राग तक हमारे शास्त्रीय संगीत में रहे हैं। ऐसी अमूल्य विरासत हस्तांतरित नहीं हुई तो एक दिन नष्ट हो जाएगी। वैसे भी संगीत एक दिव्य कला है। तो हमारी नई पीढ़ी इसके दिव्य स्वरूप से वंचित क्यो हो? शुद्ध संगीत का यह निर्मल आनंद नई पीढ़ी तक पहुँचे, इसकी ‍िजम्मेदारी समाज और माता-पिता की भी है। कुरुचिपूर्ण सामग्री बेचने में ‍िजनके ‍िनहित स्वार्थ जुड़े हैं, उन्हें दोष देना मुश्किल है और रोकना असंभव। दरअसल संगीत का पहला संस्कार घर से और कच्ची उम्र से ही शुरू होना चाहिए। तभी नई पीढ़ी में अच्छे संगीत का सम्मान करने, उसे ग्रहण करने एवं उसका आनंद उठाने की क्षमता आएगी और यदि बचपन से ही अच्छा संगीत सुना है तो नकली वैसे ही पसंद नहीं आएगा। उसके लिए किसी किस्म की पाबंदी की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

यह नहीं कहा जा सकता कि हर कोई पक्के संगीत में ‍िनष्णात हो या शास्त्रीय संगीत की समझ रख पाए, किन्तु कम से कम ऐसा माहौल और ऐसी मानसिकता तो विकसित हो कि युवा पीढ़ी लोकप्रिय संगीत में भी फूहड़ता के बजाए सुरुचि को तरजीह दे।

-निर्मला भुराड़िया

गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010

डॉक्टर साहब, सुनिए!

इस संसार ने ‍िचकित्सक को सफेद कोट वाले ईश्वर की संज्ञा दी है। चिकित्सा या डॉक्टरी दुनिया का पवित्रतम व्यवसाय है। और क्यों न हो! यह एक ऐसा व्यवसाय है, जिसका इंसानियत से बहुत गहरा ताल्लुक है। यूँ तो सभी इंसानी व्यवसायों और रिश्तों का मूल आधार मानवीयता ही होता है, मनुष्यता और पारस्परिकता के आधार पर ही समाज-रचना हुई है। हममें से जिसको जो आता है, उसे वह समाज को प्रदान करता है- इस तरह समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, बदले में पेट पालन करता है। फिर भी मनुष्य और मानवीयता का ‍िजतना सीधा संबंध चिकित्सा में है, उतना और ‍िकसी बात में नहीं। इंसान छोटो हो या बड़ा, गरीब हो या अमीर, इस देश का हो या उस देश का, स्त्री हो या पुरुष... कुछ भी हो, चिकित्सक की आवश्यकता सभी को पड़ती है। चिकित्सक मनुष्य मात्र के शारीरिक दु:ख-दर्द का ‍िनवारक है, अत: पूजनीय है। मगर कभी-कभी चिकित्सक अपने दर्द निवारक होने की इस अपरिहार्यता को गलत ढंग से भी ले लेता है।

हाल ही की बात है, चौराहे पर बैठकर छिटपुट सामग्री बेचने वाले एक निहायत गरीब बुजुर्ग को एक वाहन टक्कर मार गया। चौराहे के ही कुछ अन्य निम्नवर्गीय व्यक्ति वृद्ध को पास ही के एक चिकित्सक महोदय के पास ले गए। चिकित्सक महोदय ने टाँके लगा ‍िदए और ढाई सौ रुपए माँगे। जब उन्हें पता चला ‍िक इन गरीबों की जेबों में सबके पैसे मिलाकर भी ढाई सौ रुपए नहीं हो रहे हैं, तो वे टाँके खोल देने की धमकी पर उतर आए! ऑपरेशन टेबल पर मरीज छोड़कर पैसे माँगने की घटनाएँ भी होती हैं। इस बातर पर एक चिकित्सक महोदय ने एक बार दलील दी थी ‍िक जब पूरी दुनिया नोट छापने में लगी है तो हमसे ही मानवीयता की अपेक्षा क्यों? हम कोई खैरात बाँटने के लिए डॉक्टर थोड़े ही बने हैं! ये चिकित्सक महोदय अपने सफेद गिरेबाँ में झाँकते तो उन्हें उत्तर स्वमेव मिल जाता। चूँकि वे दुनिया के पवि‍त्रतम व्यवसाय में हैं, चूँकि वे चिकित्सक हैं, इसीलिए मनुष्यता की सर्वाधिक उम्मीद उन्हीं से की जाती है। वर्ना वे एक ऐसे रोबोट से अधिक कुछ नहीं, ‍िजसके भेजे में चिकित्सा संबंधी ज्ञान भर ‍िदया गया है। अत: ज्ञान के साथ मानवीयता का संगम ही एक चिकित्सक को निपुण चिकित्सक बनाता है। बात फीस माफी की नहीं है। चिकित्सक का सहयोगी, धीरजयुक्त, स्नेहदिल व्यवहार भी अपने आप में दवा होता है। ऐसा चिकित्सक मरीज का ‍िदल एवं विश्वास जीतता है और उसकी बीमारी को हराता है।

यह भी सच है ‍िक चिकित्सक भी एक मनुष्य है। उसकी भी अपनी आवश्यकताएँ हैं। उसे भी अपने परिवार को चलाना है और इसी व्यवसाय के जरिए चलाना है, जिस व्यवसाय के लिए लालच और अमानवीयता महादुर्गुण हैं। तो यह वह कैसे करे? इस बात का भी सुंदर-सा जवाब पिछले दिनों एक चिकित्सक महोदय को देखकर ‍िमल गया। ये आदर्श चिकित्सक महोदय आज के जमाने में भी मरीजों से सिर्फ बीस रुपए फीस लेते हैं। मरीजों पर झल्लाते नहीं, शांति से उनकी बात सुनते हैं। मरीज की आधी ‍िचकित्सा तो डॉक्टर साहब ने अपने क्लीनिक की कोई फाइव स्टार साज-सज्जा नहीं की हुई है, सिर्फ यह कि क्लीनिक साफ-सुथरा है, जरूरी उपकरणों से युक्त है। हाँ, एक फ्रेम जरूर डॉक्टर साहब की पीठ की ओर की दीवार पर सजी है, जिस पर लिखा संदेश यहाँ ज्यों का त्यों उद्‍धृत ‍िकया जा रहा है। यह संदेश इस बात का जवाब है कि चिकित्सक अपने परिवार का पेट पालते हुए भी महामानव कैसे बना रह सकता है और कैसे गरीब तबके की सेवा कर सकता है। प्रस्तुत है उक्त संदेश-

'हे प्रभु! वास्तव में यह परिस्थितियों की विडंबना है कि मेरी जीविका दूसरों की बीमारियों पर ‍िनर्भर करती है।

लेकिन फिर भी यह मेरा सौभाग्य है कि आपने मुझे उनके कष्टों का निवारण करने का उत्तम अवसर प्रदान किया है। आपने मुझे यह जिम्मेदारी पूरी करने की योग्यता भी प्रदान की है।

हे प्रभु! मुझे ऐसी शक्ति प्रदान करें कि मैं इस उद्देश्य को पूरी निष्ठा के साथ पूर्ण कर सकूँ।

वास्तव में तो आप ही कष्टों का निवारण करते हैं तथा सब सुखों के स्रोत हैं, मैं तो केवल एक माध्यम मात्र हूँ।

हे प्रभु! मेरे मरीजों पर दया-दृष्टि बनाए रखें।'

- निर्मला भुराड़िया

बुधवार, 6 अक्टूबर 2010

आज फिर जीने की तमन्ना है यानी... पुनर्अन्वेषण का वक्त

लेखिका शोभा डे की एक किताब आई है- शोभा एट सिक्स्टी। यानी साठ की शोभा। यह कोई संन्यास कथा नहीं है, न ही कोरा अतीत राग, बल्कि लेखिका का कहना है कि यह किताब उन्होंने इसलिए लिखी है कि वे महसूस करती हैं उम्र का यह मोड़ दुनियादारी को सलाम कर निवृत्त हो जाने का नहीं, बल्कि नई ऊर्जा से और अधिक उत्पादक समय गुजारने का है। शोभा कहती है, "पुरुष के लिए साठ का होना वैसी सामाजिक बाधा नहीं होता जैसा औरत के लिए होता आया है। जब स्त्री की बात आती है तो हमारा समाज कुछ ज्यादा ही "एजिस्ट" साबित होता है। उम्र के अनुकूल आचरण के नाम पर समाज स्त्री को एक रूढ़िबद्ध छवि में जीने को मजबूर करता है। शोभा की पुस्तक का कवर ही साठ की स्त्री की इस रूढ़िबद्ध छवि को तोड़ता है। कवर पर शोभा का शोख रंगों और रेशमी परिधान में खुलकर मुस्कुराता, दमकता हुआ ताजा पोर्ट्रेट है।

यह सिर्फ शोभा ही नहीं हैं, साठ के पार या पचास के पार कई स्त्रियाँ अब युवा दमक और युवा ऊर्जा से कुछ नया करने को तत्पर जीवन जी रही हैं। प्रख्यात अदाकारा शबाना आजमी ने हाल ही में अपना साठवाँ जन्म दिन धूमधाम से मनाया। अब तक तो अभिनेत्रियाँ तीसवाँ जन्म दिन भी केक पर बगैर सही संख्या में मोमबत्ती लगाए मनाती रही हैं, मगर शबाना ने अपनी उम्र पर फख्र व्यक्त किया। उम्र का यह फख्र उनके परिधानों में किए जाने वाले प्रयोगों से भी व्यक्त होता है। वे कुछ नई चीजें सीखना चाहती हैं, नए प्रोजेक्ट्स भी करना चाहती हैं। कार्पोरेट जगत की प्रख्यात सीईओ इंदिरा नूयी के अब ओबामा सरकार में पद लेने की संभावना है। यही नहीं, उम्र के इस मोड़ पर उन्होंने अपना कम्पलीट मेक ओवर किया है। कल तक परिधान के मामले में सीमित, संकोची और पारंपरिक इंदिरा नूयी अब चुस्त-दुरुस्त, आधुनिक पोशाखों में कार्पोरेट गलियारों में दिखाई पड़ती हैं। गायिका आशा भोंसले ने कभी किसी भी चीज से हार नहीं मानी, उनमें एक उम्र भी है। सोनिया गाँधी हों या हिलेरी क्लिंटन चुस्त चाल और अनथक कार्य साठ पार की इन स्त्रियों की पहचान है।

सवाल यह उठता है कि पचास पार ही मेकओवर क्यों? तो यह जैविक सत्य है कि इस मोड़ पर आकर कोई भी जीवंत व्यक्तित्व अपना पुनर्अन्वेषण करना चाहता है। महिलाएँ घरेलू मोर्चे पर कई जिम्मेदारियाँ संपन्ना कर चुकी होती हैं और इनसे कमोबेश मुक्त होकर स्वयं की पहचान यात्रा शुरू कर सकती हैं। फिर भारतीय सामाजिक जीवन में इतनी बंदिशें हैं कि महिलाओं को अपनी पसंद का कार्य करने और अपने ढंग से रहने का अधिकार अर्जित करने में इतना समय लग जाता है कि वे उम्र के एक-दूसरे मोड़ तक आ जाती हैं। यहाँ भी समाज बढ़ती उम्र का हवाला देकर उन्हें रोके या उन पर उँगली उठाए तो यह तो अन्याय होगा।

"मैं तो सज गई रे सजना के लिए" फिल्म सौदागर का यह गाना है। समाज स्त्री के लिए यही भोग्या दृष्टि रखता है। सारा श्रृंगार पुरुष को रिझाने के लिए है, यही मान्यता है- चाहे ऊपर से न हो- भीतर ही भीतर तो यही बात है। अपने परिधान या अपने रहन-सहन से एक व्यक्ति अपने आपको अभिव्यक्त करता है, यह बात स्त्रियों के संदर्भ में हम भूल जाते हैं। इसीलिए हमने "बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम" जैसी कहावतों का आविष्कार किया है। बूढ़ा घोड़ा लाल लगाम जैसी कोई कहावत नहीं है। इसीलिए हमने सुहागन और विधवा जैसे शब्द इजाद किए हैं और पति के स्वर्गवासी होने के बाद स्त्री का स्वयं की इच्छा के लिए बिंदी लगाना भी समाज की आँख में खटता है, लेकिन आधुनिक स्त्री बदल रही है। उसका जीवन सोलह से तीस तक ही नहीं है, जो कि सिर्फ एक भोग्या के लिए उपयुक्त काल है। आज स्त्री का जीवन चालीस, पचास, साठ के पार भी है, जिसे वह अपनी मर्जी और अपनी अभिरुचि के अनुसार जीना चाहती है। तब जरूरी नहीं उसके पसंद का गाना "मैं तो सज गई सजना के लिए" हो। उसकी पसंद का गाना यह भी हो सकता है- "काँटों से खींच के ये आँचल, तोड़ के बंधन बाँधी पायल, आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है।"

- निर्मला भुराड़िया

खीर का कटोरा!

पंडितजी की खीर का कटोरा उस परिवार में पहले अलग ही रखा जाता था, क्योंकि छोटी कटोरी से पंडितजी का काम नहीं चलता था। अत: वह बड़ा कटोरा उन्हीं के लिए रखा गया था, जो श्राद्ध-पक्ष में ‍िनकाला जाता था। इस बड़े कटोरे में खीर प्राप्त कर लेने के बावजूद यदि थोड़ा आग्रह-मनुहार किया जाए- जो कि परंपरा के अनुसार किया ही जाता था- तो पंडितजी थोड़ी और खीर ग्रहण कर ही लेते थे। मगर जब पिछली बार पंडितजी उस परिवार में आए तो उन्होंने 'थोड़ा-और' का आग्रह नहीं स्वीकारा। कहने लगे, 'जजमान अब हमारी अवस्था हो गई है। अब हम उस तरह नहीं खा-पी सकते।' जजमान ने अब पंडितजी के साथ आए उनके पुत्र की ओर मनुहारपूर्वक रुख किया। उसने कुछ कहा नहीं, बस संकोचपूर्वक अपनी हथेली खीर की कटोरी पर रख दी ताकि अब और न परोसी जाए। उसे मौन देख पंडितजी ने ही कहा- 'भई, हम तो साइकल पर आते थे तो सब पचा लेते थे पर अब इसके पास तो मोपेड है.... फिर यह शर्माता भी है। हम बड़ी मुश्किल से इसे यहाँ लाए हैं....।' असल बात भी पंडितजी ने साइकल वाली बात के पीछे-पीछ बता ही दी थी। सच ही है, वर्ण व्यवस्था के हिसाब से जब कर्म विभाजन नहीं है, जब व्यक्ति आधुनिक शिक्षा प्राप्त है और अनी रोटी (या खीर-पूरी) खुद कमा सकता है, तो यह अब पूरी तौर पर संभव है कि जजमान के यहाँ सिर्फ किसी एक खास जाति का होने की वजह से श्राद्ध-जीमने जाना उसे सहज न लगे। एक तो किसी के यहाँ भोजन पर जाना फिर 'ब्राह्मण: भोजन: प्रिया:' या भोजन-भट्‍ट जैसी उपाधि पाना किसे रुचेगा? जाहिर है श्राद्ध में 'जीमने' के लिए इस खास जाति के उम्मीदवार अब कम हो गए हैं। लेकिन कर्मकांडों के पूर्ववत चलने की वजह से श्राद्ध-पक्ष में उनकी डिमांड अब भी काफी है। नतीजा? अखबारों में इस तरह के विज्ञापन देखने को मिल रहे हैं कि 'श्राद्ध-पक्ष में ‍िजमाने को 'इतने-इतने' बटुक उपलब्ध हैं- भोजन कराना है तो फलाँ-फलाँ नम्बर पर, फलाँ-फलाँ संस्था से सम्पर्क करें।'

कितने लोग हैं जिन्होंने ऐसी सूचनाओं में छुपी विडम्बना और हास्यास्पदता को पकड़ लिया होगा? अगर पकड़ लिया है तो फिर इसका इलाज भी जरूरी है। अब समय बदल गया है। अब 'एक साहूकार के सात बेटे थे' और 'एक गाँव में एक दरिद्र ब्राह्मण रहता था' जैसी कहानियाँ अति-प्राचीनकाल के घेरे में आती हैं। अब न साहूकार के सात बेटे हैं न ब्राह्मण के साथ दारिद्रय शब्द पूँछ की तरह लगा है या जोंक की तरह ‍िचपटा है। क्योंकि अब यह नहीं है कि ब्राह्मण आदमी केवल ज्ञानार्जन ही करेगा या रीति-रिवाज ही सम्पन्न कराएगा। वह अपने नैसर्गिक रुझान के अनुसार कोई अन्य व्यवसाय भी चुन सकता है। फिर समाज द्वारा अपने पुरखों की स्मृति में ‍िजमाने के लिए 'ब्राह्मण' को ही ढूँढ निकालने और जिमाने की जिद क्यों? ऐसे और भी वंचित हमारे वर्तमान सामाजिक परिवेश में हो सकते हैं, जिन्हें प्रेमपूर्वक भोजन उपलब्ध कराने पर आपके पुरखों की आत्मा के साथ ही साथ उस वंचित की स्वयं की आत्मा भी तृप्त होगी!

-निर्मला भुराड़िया

मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010

नेताजी यानी कानून को ठेंगा!

एक छुटभैए नेताजी के घर कोई समारोह था। समारोह करने के लिए उन्होंने कोई विशेष स्थल किराए पर नहीं लिया। वैसे लेते भी तो उनसे किराया माँगने की हिम्मत कौन करता? यह उनकी 'जनसेवक' होने की धाक ही है, ‍िजसकी वजह से वे जनता के इस्तेमाल के लिए निश्चित सुविधाओं का इस्तेमाल स्वयं करते हैं, वह भी 'फ्री फंड' और मूँछों पर ताव देते हुए। खैर, फिलहाल तो वे इतनी-सी असुविधा भी नहीं उठाना चाहते थे ‍िक किसी आयोजन स्थल तक भी समारोह का लवाजमा ले जाएँ। सो उन्होंने अपने भव्य बंगले के सामने से गुजरने वाली रोड पर ही तंबू ठोक लिया। वह भी पूरी रोड पर इस तरह कि चौपहिया, दुपहिया वाहन तो क्या पैदल आदमी भी वहाँ से न गुजर पाए। उसके बाद वहाँ खाने-पीने स्टॉल, कुर्सियाँ, भकाभक रोशनी लगाई गई और हाँ, फुल आवाज में लाउड स्पीकर भी। राहगीरों को और कॉलोनी के अन्य नागरिकों को इससे खासी असुविधा हुई। मगर उनके 'नेता' होने की वजह से उनके तंबू ठोंकने और कानफोड़ू भोंगा बजाने के इस विशेषाधिकार को कोई माई का लाल चुनौती नहीं दे सकता था। देता भी तो क्या कर लेता, कानून तो वे अपनी जेब में रखते हैं। जो काम सीधे रास्ते होता है उसे भी कानून तोड़कर करने से ही उनकी महत्ता बढ़ती है! आखिर पता तो चले उनके पास पॉवर है। वैसे भी सीधे रास्ते काम करना, लाइन में लगना, समारोहों में समय पर पहुँचना, अपने पैसे से टिकट खरीदकर कोई कार्यक्रम देखना, छोटे-मोटे टैक्स देना आदि-इत्यादि कानून-अनुशासन का कोई भी काम नेता तो क्या देश के ‍िकसी भी वीआईपी के लिए शान के खिलाफ है- ऐसी लगभग मान्यता ही बन गई है। आप वीआईपी हैं यानी आप कानून तोड़ने का जीता-जागता लाइसेंस हैं!

कोई भी कहेगा इसमें जनता का क्या दोष? तो ठीक है इस पर हमारा बस नहीं ‍िक सही लोगों को ही वोट दें। अक्सर विकल्प नहीं होता और हमें नागनाथ और साँपनाथ में से एक को चुनना होता है। मगर वोट देने की बेचारगी छोड़ दें तो हम आगे होकर नेताओं का जरूरत से ज्यादा महिमा मंडन करते हैं। उनके कानून तोड़ने पर ऐतराज की बात तो दूर, हमें जब पिछले दरवाजे का कोई काम करना होता है, तो हम नेताओं को ही ढ़ूँढ़ते हैं। उनसे उनके विशेषाधिकारों का इस्तेमाल अपने हक में करवाने में पीछे नहीं हटते। बड़ी बातें छोड़ें तो भी कई छोटे-छोटे उदाहरण हमारे आसपास घटित होते हैं। जैसे होली के दिन कुछ लड़के एक पार्क में पेड़ पर कुछ शाखाओं पर कुल्हाड़ी चला रहे थे। उन्हें जब टोका ‍िक लकड़ी काटना ठीक नहीं है, तो उन लड़कों ने स्थानीय पार्षद के घर की तरफ उँगली उठाकर बड़ी ढिटाई से उत्तर दिया 'उन अंकल' से पूछ लिया है। गोया 'जनसेवक' से पूछने के बाद कानून तोड़ना गैरकानूनी नहीं रह जाता!

इसी तरह एक कवयित्री कुछ दिनों पूर्व आईं। उन्हें अपने संग्रह का विमोचन करवाने के लिए कोई 'नेता ही' चाहिए था। भले फिर वह किसी भी पार्टी का हो, किसी भी विचारधारा का हो, साहित्य समझता हो, न समझता हो। बस दबदबे वाला हो। इन ‍िदनों किताबों का विमोचन हो, पुस्तक प्रदर्शनी, पेंटिंग एक्जीबीशन या ब्यूटी पार्लर का उद्‍घाटन, लोग नेताओं को ही बुलाना पसंद करते हैं। अब नेताओं के ‍िजम्मे परियोजनाओं के ‍िशलान्यास करना और रोता पत्थर छोड़ देना ही नहीं रह गया है। जहाँ जनता उन्हें महिमा मंडित नहीं करती वहाँ वे स्वयं को महिमा मंडित कर लेते हैं- पार्टी फंड से! जो निर्माण कार्य उनके कर्तव्यों में आते हैं और जो उन्हें करना ही चाहिए उनके श्रेय के भी खूब गाजे-बाजे होते हैं, हाथ जोड़े मुख-मुद्राओं के पोस्टर लगते हैं। नेताओं द्वारा कानून तोड़ना एक सामाजिक परंपरा बन चुकी हैं।

- निर्मला भुराड़िया

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

असोका तो फैसन है!

एक श्रीमान हैं। उम्र लगभग पचास के आसपास। वैसे तो साधारण आदमी हैं पर अपने उच्चारण और अटपटे वाक्य विन्यास के लिए (कु) ख्यात हैं। बेचारे गाहे-बाहे अपने ही बच्चों की हँसी के पात्र भी बनते हैं। क्योंकि बोलते हुए वे सारे 'श' को 'स' बना डालते हैं। शशि उनके लिए 'ससि' है। सुशीला, श्यामा क्रमश: सुसीला, स्यामा! उनके घर में एक स्वीटी भी है, जिसे श्रीमानजी भरसक प्रयास करने के बाद भी 'सीटी' ही उच्चार पाते हैं। श्रीमानजी को हर बात का हिन्दी-अँगरेजी साथ बोलने की आदत है। मसलन वे 'सुबह मार्निंग वॉक' पर जाते हैं। उनके सिर में हेडेक होता है! बात के अंत में वे कहते हैं 'खैर, एनी वे'। मेहमान की आवभगत में वे पूछते हैं, 'आपके लिए फल-फ्रूट लाऊँ?'

सच में इन श्रीमानजी को किसी अच्छी वाग्मिता कक्षा की सख्त जरूरत है। या चाहें तो वे अपने बाल-बच्चों के सुझावों पर ध्यान देकर ही अपनी बोली की फूहड़ता सुधार सकते हैं। वैसे ये श्रीमानजी अपने किस्म के अकेले नहीं हैं। इस तरह के श्रीमानजी और श्रीमतीजी हमारे आसपास और भी हैं, जिनकी अटपटी बोली पर कटाक्ष करने में मालवा, निमाड़ के कई व्यंग्यकार हाथ साफ कर चुके हैं। व्यंग्य लेखक तो व्यंग्य लेखक, आम आदमी भी इनके शब्दों और वाक्यों को पकड़कर हँसने से नहीं चूकता। क्योंकि इनकी मजेदार भूलें स्पष्ट नजर आती हैं। मगर आप मानें या न मानें, श्रीमानजी वाली बीमारी ग्राम्य और कस्बाई परिवेश से आगे बढ़कर महानगरीय, फैशनपरस्त लोगों में भी मौजूद है। आजकल फिल्मकारों में एक नया ट्रेंड चला है। फिल्म के हिन्दी नाम के साथ उस नाम के अँगरेजी अनुवाद का पुछल्ला लगाने का। जाल-द-ट्रेप, धुंध-द फॉग, सन्नाटा-द सायलेंस, तलाश-द हंट, बाज-ए बर्ड इन डेंजर।

है न मजेदार बात। गोया अनुवाद न किया तो दर्शक को समझ ही नहीं आएगा कि ये 'जाल' क्या बला है। और यह परंपरा लगभग रू‍ढ़ि का रूप धारण कर चुकी है। इसके अतिरिक्त फिल्म वालों ने अशोक को 'असोका' बना ‍िदया। इनके भाई-बंध, जोड़ीदारों, बिरादरों यानी अन्य फैशनपरस्त शहरियों ने वात, पित्त, कफ को 'वाटा, पिटा, कफा' बना ‍िदया है। बुद्ध को बुद्धा, राम को रामा, महावीर को महावीरा तो ये वीर कभी के बना चुके हैं। मगर श्रीमानजी पर जैसे हम हँसते हैं, इन पर हँसने का साहस हममें नहीं है। जब उसी बात के लिए श्रीमानजी हँसी के पात्र हैं, तो ये 'श्रीमंत' क्यों नहीं? सच तो यह है कि हमारी गुलाम मानसिकता हमें चमकते लोगों की फूहड़ताओं पर सवाल उठाने से रोकती है।

जिन लोगों में तर्क, मौलिकता और कल्पना शक्ति का जर्बदस्त अभाव है, वे भौड़ें, नकलची और भेड़ वृत्ति अपनाने वाले रू‍ढ़िवादी सुरुचि संपन्नों को जमात में क्यों माने जाएँ? मगर यह भी हो रहा है। हम किसी और की भाषा का इस्तेमाल करें और उसका गलत उच्चारण करें तो गँवार माने जाएँगे। जाहिर है हम जॉन को जान नहीं कहेंगे। मगर हमारी भाषा का गलत उच्चारण करने वाले उल्टे आधुनिक माने जाते हैं। 'बुद्ध' को 'बुद्धा' कहने वाला अपने आप को आधुनिक समझता है।

- निर्मला भुराड़िया