जरा सोचिए कभी आपको अपने नन्हे से बच्चे को चुटकुला सुनाने की इच्छा हो तो, कैसे सुनाएँगे? न तो वह भाषा की गुत्थियाँ समझता है, न जीवन के वे विरोधाभास जो हँसी उत्पन्ना करे। दरअसल, वह जीवन के बारे में कुछ भी नहीं समझता। मगर फिर भी हम उसे मनोरंजन व हास्य रस से वंचित नहीं रख सकते। अत: सदियों से हमने अपनी-अपनी संस्कृति के अनुरूप उसे चुटकुला सुनाने का कोई न कोई तरीका निकाल रखा है। जैसे यह कि हम उसकी नन्ही हथेली अपने एक हाथ से पकड़ेंगे, दूसरे हाथ की उँगली उसकी नन्ही हथेली पर गोल-गोल घुमाते हुए कहेंगे कोई ऐसी अटपटी बात, 'आला-गोला, दूध कतोला, पीजा।" फिर उसकी उँगलियों पर गिनाएँगे ये मम्मी की, ये पापा की, ये दादा की, ये दादी की... वगैरह। और फिर खास बात यानी चुटकुले का पंच आएगा अंतिम पायदान पर- हम बच्चे के हाथ पर अपनी उँगलियाँ चलाते हुए कहेंगे आया-आया, रामजी का घोड़ा आया... आया... आया। आया-आया कहते हुए जब हमारी उँगलियाँ बच्चे की काँख तक पहुँचने को हांेगी तो गुदगुदी की प्रत्याशा में बच्चा हँसने लगेगा। पारंपरिक बुद्धिमत्ता में नन्हे बच्चे से संवाद करने के कई तरीके हैं। वे भाषा पर इतना निर्भर नहीं करते जितना कि स्पर्श, ध्वनि, मुखमुद्रा, देहमुद्रा आदि पर निर्भर करते हैं। बच्चे की बात कहने और बात सुनने दोनों की समझ इन्हीं पर निर्भर करती है, क्योंकि उसके पास अनुभव, दुनियादारी, शब्द आदि की संपदा नहीं है। मगर हाँ, इस उम्र में उसकी संवेदनाएँ हर तरफ से खुली होती हैं, बेहद ग्रहणशील होती हैं। आस-पास की हर हरकत, आस-पास वालों का व्यवहार उस पर गहरा असर करता है। इसीलिए हम बच्चे से बातचीत करने में देहमुद्रा और व्यवहारजनित भाषा का उपयोग अधिक करते हैं, जैसे छोटे बच्चे के साथ 'ता" या पिकी बू खेलना। इसमें आपको ता कहते हुए अपना चेहरा एक बार छुपाना है, एक बार उजागर करना है। बच्चे को यह होममेड सिनेमा इतना रोचक लगता है कि वह साथ खेलने वाले से बार-बार यह गेम दोहराने को कहता है। बच्चा थोड़ा बड़ा होता है मगर इतना बड़ा नहीं कि भाषा में गुँथे उपदेश समझ सके, तब उसे मनोविज्ञान की भाषा के जरिए समझाया जाता है जैसे कोई बच्चा गिर गया, उसे चोट तो नहीं लगी पर वह गिरने भर से आहत है, तो माँ-बाप इस घटना से ध्यान भटकाने के लिए उसे कहेंगे, 'देख-देख चींटी मर गई।" और बच्चा खुद को भूलकर चींटी को ढूँढने लगेगा। तात्पर्य यही कि बच्चे की संवेदनाएँ अत्यंत जाग्रत होती हैं और ऊपर जो उदाहरण आए उन सब में उसकी नर्म, नाजुक संवेदनशीलता का सकारात्मक उपयोग था। मगर बच्चा बहुत कोमल और अपने आस-पास कहे-सुने, घटित होने वाले वाकयों, आवाजों, स्पर्शों आदि के प्रति बेहद संवेदनशील होता है। यह बात उस वक्त भी समझ कर रखना जरूरी है जब हम उसके साथ नकारात्मक व्यवहार कर रहे हों, क्योंकि उस पर बेहद बुरा असर पड़ सकता है। जैसे आज्ञा मनवाने के लिए लोग बच्चे को डराते हैं कि 'बिल्ली आ जाएगी, तुझे काट खाएगी।" 'बाबा आ जाएगा, तुझे उठा ले जाएगा।" 'चुप हो जा नहीं तो तुझे बाथरूम में बंद कर दूँगी वगैरह।" बच्चा नहीं जानता ये सब धमकियाँ हैं। उसके मन में किसी अज्ञात बाबा का, तीखे पंजे वाली काली बिल्ली का भयानक और विकराल स्वरूप समा जाता है। हो सकता है कि उसकी कल्पना में तब जो भयानक बिल्ली आए वह सामान्य आकार की भी न हो, दैत्याकार विराट स्वरूप हो। इस तरह हम बच्चों में हैदस भर देते हैं। बड़े होकर बचपन की ये बातें किसी बात का फोबिया बन जाती हैं। यह भी हो सकता है कि ऐसा बच्चा कल को आक्रामक या फिर परले दर्जे का दब्बू किशोर बन जाए। हम, जो बच्चों को पढ़ाने के लिए अच्छे-अच्छे स्कूल ढूँढते हैं, उन्हें व्यक्तित्व निर्माण की कक्षाओं तक में भेजते हैं, वे यह सामान्य सी बात क्यों भूल जाते हैं कि बच्चे के साथ नकारात्मक व्यवहार करना, उसके व्यक्तित्व को बिगाड़ना है। स्वयं के ही किए-धरे पर चोट करना है।
निर्मला भुराड़िया
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें