स्वप्न विश्लेषक मधु टंडन ने एक अद्भुत किताब लिखी है, ड्रीम्स एंड बियॉन्ड। यह पुस्तक सपनों की बायलॉजी, दुनियाभर की हर संस्कृति में मिलने वाला स्वप्नों का पौराणिक विवेचन, स्वप्न और मनोविज्ञान, स्वप्नों के विश्लेषण आदि कई मुद्दों पर बात करती है। इसमें एक बच्चे से किशोर होते लड़के का स्वप्न और उसका विश्लेषण दिया गया है। स्वप्न काफी लंबा है उसकी व्याख्या और भी लंबी पर सार में कहें तो सपने में स्कूल में कंचे खेलते हुए यह लड़का एक उग्र शेर को देखता है। अचानक पिता स्कूल में आ जाते हैं। उनके पास बंदूक है। वे लड़के को शेर से बचाने के लिए गोली चलाते हैं जिसे शेर निगल जाता है। पिता-पुत्र अब शेर के पेट में हैं, पिता बेटे की गर्दन पर लगे सिंह दंत को सहलाते हैं। फिर पिता-पुत्र शेर के पेट से निकलकर भारतीय शास्त्रीय नृत्य देखने चले जाते हैं। इस स्वप्न के विश्लेषण का सार यह है कि शेर पुत्र में उपजती यौन ऊर्जा का प्रतीक है जिससे पुत्र उत्साहित भी है पर अचंभित भी, पसोपेश में भी, थोड़ा भयभीत भी। पिता उसकी मदद के लिए आए हैं। वे उसे परिवर्तन को समझने में सहयोग करना चाहते हैं।
हर संस्कृति में तरह-तरह के रस्मो-रिवाज हैं, जो बच्चे से किशोर होते युवक और युवतियों के लिए किए जाते हैं। किशोर या किशोरी इसमें उत्सवमूर्ति होते हैं। जैसे अफ्रीका के एक आदिवासी कबीले में किशोर होती लड़की को परागकणों से स्नान करवाया जाता है। एक अन्य कबीले में लड़के को मुँह पर नकाब पहनाकर, रातभर के लिए एक कमरे में, बैठा दिया जाता है। कहीं स्वीट सिक्सटीन की पार्टी दी जाती है तो कहीं रजस्वला होने पर पुत्री को साड़ी भेंट की जाती है, तो कहीं पुत्र को पवित्र धागा पहनाया जाता है। कई मनोविश्लेषक इन सब रिवाजों में दकियानूसीपन नहीं देखते अपितु वय:संधिकाल के परिवर्तन से समायोजन बैठाने के लिए रचित रिवाज मानते हैं, जो पारंपरिक बुद्धिमत्ता के तहत विकसित हुए होंगे। लेकिन रिवाज जैसे-जैसे पुराने होते चलते हैं उनके भीतर के गहन अर्थ खो जाते हैं, रह जाते हैं महज कर्म-कांड। यही वह समय होता है जब नए जमाने के नए तरीके खोजना होते हैं।
आज हम जिस जमाने में रह रहे हैं और की-बोर्ड पर उँगली रखते ही जितना ज्ञान उपलब्ध है, जितना एक्सपोजर आज के किशोरोंें को है उसके चलते, उन्हें अपने बदलते शरीर से परिचित करवाने की वैसी आवश्यकता नहीं बची जैसी पुराने समय में थी। उन्हें पता होता है कि परिवर्तन तो होंगे और क्या-क्या परिवर्तन होंगे, या हो रहे हैं। लेकिन पता होने के बावजूद बदलते मन और शरीर से सचमुच सामंजस्य बैठाने की बारी आने पर उथल-पुथल तो वय:संधि के मोड़ पर खड़े हर किशोर या किशोरी में होगी ही। आज के जमाने में इनसे पार पाने के लिए रस्मो-रिवाज, आज्ञाकारिता आदि से अधिक उन्हें आवश्यकता होगी माता-पिता से मित्रवत व्यवहार की। पुत्र को पिता बदलती देह-मन की जटिलता से तादात्म्य बैठाने में मदद करे और पुत्रियों को माता, यह वय:संधि की माँग होती है। मगर नए समय में मित्र बने बगैर यह नहीं हो सकता। आज के किशोरों की दुनिया सिर्फ माता-पिता तक ही सीमित नहीं है। दोस्ताना व्यवहार न मिलने पर वे माता-पिता के पास बैठेंगे ही नहीं, तो किशोरों के मन को पढ़ने और बाँटने का मौका कैसे मिलेगा? यही नहीं, माता-पिता द्वारा सिर्फ अपनी ही थोपने के बजाए नए जमाने के मनोरंजन, नई तकनीकों, नए चलन में रुचि लेना भी आवश्यक है ताकि बच्चों के लिए उनका साथ प्रासंगिक बना रहे। यह कोरी आज्ञाओं का युग नहीं है आदान-प्रदान का युग है। भावनाओं, संवेदनाओं, संस्कारों, विचारों सभी का आदान-प्रदान तभी संभव है जब नई आँख से चीजों को देखा जाए।
किशोरों को बिगड़े होने का दोष देने के बजाए उनमें हो रहे परिवर्तनों का वैज्ञानिक आधार भी समझा जाए, इसके लिए दुनिया में कई प्रयोग हो रहे हैं। पिछले दिनों वैज्ञानिकों ने जब किशोरों के मस्तिष्क के चित्र (ब्रेन इमेजिंग) लिए तो यह पाया कि टीनएजर्स के दिमाग में इस अवस्था में कई परिवर्तन होते हैं, क्योंकि उम्र के इस काल में मस्तिष्क अपने आप को पुनर्संयोजित करता है। इस बात की विकासवादी व्याख्या यह है कि इस उम्र में इंसान घर की सुरक्षा से निकलकर बाहर की दुनिया में जाने की तैयारी करता है, अत: प्रकृति उसे जोखिम लेने में सक्षम व साहसी बनाती है। मगर यही परिवर्तन किशोरों को दु:साहसी, सनसनीपसंद और बागी भी बनाते हैं। इस समय काम आती है बड़ों की समझ, जो किशोरों को दोष देने के बजाए उनको समझें तो उनका विद्रोह सकारात्मक ऊर्जा और जोश में बदल सकता है।
निर्मला भुराड़िया
Hamare sare riti-rivaj ek gahre arth liye hue he!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लेख
जवाब देंहटाएंउत्तम और सारगर्भित आलेख
जवाब देंहटाएंVery interesting :)
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पोस्ट. ज्ञानवर्धक आलेख.
जवाब देंहटाएंसादर