एक विवाह का कार्यक्रम चल रहा है। तरह-तरह के जूस और सॉफ्ट ड्रिंक वितरित किए जा रहे हैं। पाइनेपल जूस, मिक्स फ्रूट जूस, ऑरेंज जूस...। कोलाज, स्कवेश और सोडा भी हैं। दो-तीन बच्चे वहाँ बैठे हैं। फलों के रस और सोडा की ट्रे आने तक उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। मगर जैसे ही बैरा एक ट्रे में फ्लोरेसेंट फिरोजी, इलेक्ट्रिक ब्लू और मेजेंटा कलर के ड्रिंक लाता है, वानर सेना उधर लपक पड़ती है। बच्चे चटखीले रंगों की और आकर्षित हो गए हैं। आगे यह कि एक बच्चे की दादी माँ भी इलेक्ट्रिक ब्लू ड्रिंक की तरफ आकर्षित हो गई हैं और एक छोटे मुन्नाू को इशारा कर रही हैं कि उनकी तरफ भी यह गहरे, चमकते रंग का द्रव्य भिजवाया जाए। एक पुराने ब्रिटिश सीरियल 'आर यू बीइंग सर्व्ड" में एक उम्रदराज स्त्री का किरदार था, जो बहुत प्रसन्नाचित्त और हँसोड़ होती है। उसके पके बाल हमेशा अलग-अलग रंगों में रंगे होते थे, जो बेहद आकर्षित करते थे। ये रंग उसके उल्लासित किरदार को धार देते थे।
रंगों में इंसान को आकर्षित करने की ऐसी ही ताकत होती है, जिसका उम्र से कोई वास्ता नहीं है। वास्ता है तो आपकी उल्लासित मानसिकता से। रंग जीवन में उल्लास भरते हैं, बोरियत को दूर भगाते हैं। रेतीले राजस्थान में आपको रंग-बिरंगी पगड़ियाँ, लहरदार लुगड़े और छींट के घाघरे पहने लोग मिलेंगे। वे हरियाली और फूलों की कमी को मानो कपड़ों के रंगों से पूरा कर लेते हैं। एमएफ हुसैन ने अपनी फिल्म 'मीनाक्षी" में रेत के टीलों के ब्रैकग्राउंड पर नायिका तब्बू की चुनरियों, ग्रामीणों की पगड़ियों, औरतों की नीली गगरियों के माध्यम से रंगों का प्रयोग इतना सुंदर किया गया है कि हर रील कैनवस बन गई है। यह फिल्म रजतपट पर बनी पैंटिंग्स-सी लगती है। एक अन्य चित्रकार जो आकृति केंद्रित कलाकृति से अधिक रंग निर्भर कृतियाँ बनाते हैं, उनसे मैंने एक बार पूछा था कि यह पेंटिंग्स आप क्या सोचकर बनाते हैं, तो उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी कि किसी कलाकृति के लिए उनकी कल्पना और उनके विचार न आकृतियों में आते हैं न शब्दों में, वे तो रंगों में आते हैं। अत: उन्हें पता होता है किसके बाद क्या रंग लगाना है कि वे अपने मन की बात अभिव्यक्त कर दें।
सामान्य व्यक्ति भले कैनवस पर न सही, मगर कई बार अपने परिधानों में रंगों के माध्यम से अपने आप को अभिव्यक्त करता है। अधिकांश लोगों को खिलते हुए रंग पसंद आते हैं। जिन्हें लाल-हरा पसंद न हो वे गुलाबी, पीला या आसमानी चुनते हैं, मगर रंगों की भाषा हर कोई पसंद करता है। मगर एक अजीब-सी परंपरा है, जो अलिखित है पर है जरूर। समाज यह अपेक्षा करता है कि जैसे-जैसे उम्र बढ़े व्यक्ति हल्के, धूसर रंग पहनना शुरू कर दे! चटख रंग जवानी के साथ ही छोड़ दिए जाएँ। बुजुर्ग महिलाओं के लिए खरीदारी करना हो तो लोग अक्सर डिजाइन में सपाट और रंगों में दबे वस्त्रों की खरीदारी करते हैं। कुछ ऐसी मानसिकता बना ली गई है कि शोख और कलात्मक पैटर्न या डिजाइन वाले वस्त्र पहनना मानो उम्र की गरिमा के खिलाफ हो। इस तथाकथित गरिमा की जिद भारतीय समाज में और बढ़ जाती है यदि स्त्री वैधव्य प्राप्त कर ले। तब तो सफेद और दबे हुए रंग पहनना उसकी नियति बन जाती है। कहीं न कहीं भीतर की बात यह है कि समाज स्त्री को केवल उपभोग की वस्तु मानता है। यदि वह समाज के अनुसार पुरुषों को आकर्षित करने की उम्र में या सामाजिक स्थिति (यहाँ पढ़ें वैधव्य) में नहीं है तो उसका अपने मन की तृप्ति के लिए, स्वयं के चाव के लिए, अपनी पसंद की अभिव्यक्ति के लिए सुंदर रंगों के वस्त्र पहनना लगभग अपराध-सा हो जाता है। यही वजह है कि भारतीय समाज में 'बूढ़ा घोड़ा लाल लगाम" या 'शौकीन बूढ़ा टाट की कमीज" जैसी कोई कहावत नहीं है। उम्र और वैवाहिक स्थिति से जुड़े रंगों के बंधन स्त्रियों के लिए अधिक हैं। जबकि रंगों का आशावादी उजास, रंगों का बोरियत भगाने वाला उत्साह, रंगों से मिलने वाला जोश, रंगों से अभिव्यक्त होने वाली गर्मजोशी बढ़ती उम्र में तो और भी जरूरी है। आशा है कि इस कोण से भी हम बात को सोचेंगे।
निर्मला भुराड़िया
रंगों के माध्यम से समाज से जुडी गहरी बात लिए आपके विचार.......
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट की खबर हमने ली है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - रोज़ ना भी सही पर आप पढ़ते रहेंगे - ब्लॉग बुलेटिन
जवाब देंहटाएंbahut gahan vishleshan kiya hai
जवाब देंहटाएंआपके यहाँ आकर अच्छा लगा।
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