एक धारणा रही है कि माइग्रेन शहरी श्रेष्ठीवर्ग और बुद्धिजीवियों की बीमारी है। मगर ग्रामीण चिकित्सक बताते हैं कि ऐसा कुछ नहीं है। यह पीड़ा ग्रामीण हल्कों के लोगों को भी होती है, खासकर स्त्रियों को। ऐसी ही एक खेतिहर स्त्री गर्मी में उल्टी और सिरदर्द से पस्त हो जाती थी, तो उसका पति उसे डॉक्टर के यहाँ ले गया। डॉक्टर ने दवा लिखने के अलावा कुछ सावधानियाँ भी बताईं जैसे उपवास न करना, सुबह का खाना समय पर खाना, जब धूप में जाना ही पड़ जाए तो काला चश्मा पहनकर जाना वगैरह। बाकी सावधानियाँ तो साध ली गईं मगर इस काले चश्मे वाली बात पर सास-ससुर अड़ गए। बोले- बहू काला चश्मा पहनकर घर से बाहर नहीं जाएगी। चिकित्सक ने लाख समझाया कि वह फैशन के लिए काला चश्मा नहीं पहन रही, यह बीमारी से बचाव के लिए है, मगर वे मानने को राजी नहीं थे। उन्हें डर था कि लोग क्या कहेंगे? लोग इसे इस तरह भी देखेंगे कि बहू हाथ से निकल गई है, फैशन-वैशन करती है, जो मर्जी पड़े पहनती है। सास-ससुर अंतत: इस बात पर राजी हो गए कि बहू खेत में न जाए, घर का काम सम्हाले, खेत वे और उनका बेटा देख लेंगे, पर वह काला चश्मा पहनकर निकले यह उन्होंने मंजूर नहीं किया।
यह उदाहरण बहुत कुछ कहता है। गॉगल्स क्यों, वस्त्रों के मामले में भी भारतीय समाज और परिवार अमूमन महिलाओं के लिए स्वयं तय करना चाहता है कि वे क्या पहनें। इसके लिए तरह-तरह की दलीलें दी जाती हैं जैसे फलाँ वस्त्र में मर्यादा है, फलाँ में नहीं। मगर ऐसा नहीं है। वस्त्र क्या है इस पर यह निर्भर नहीं करता, वस्त्र आपने किस ढंग से पहना है इस पर निर्भर करता है कि आपका पहनावा सामाजिक गरिमा के अनुकूल है या नहीं। रैम्प पर आजकल 'सेक्सी साड़ी" शब्द का इस्तेमाल किया जाता है और ट्राउजर-शर्ट शोभनीय हो सकते हैं! लेकिन स्त्रियों की वेशभूषा के मामले में हम लकीर के फकीर ही रहना चाहते हैं। साड़ी की सुंदरता और अनूठेपन से कौन इंकार कर सकता है? अधिकांश भारतीय स्त्रियाँ सजने-धजने का कोई मौका हो, पार्टी हो तो साड़ी पहनना ही पसंद करती हैं। लेकिन मुसीबत तब आती है, जब उन्हें यह कहा जाता है कि शादी के बाद साड़ी ही पहननी होगी, ज्यादा से ज्यादा सलवार-कमीज, जीन्स-ट्राऊजर तो कदापि नहीं। कामकाजी और वाहन चलाने वाली महिलाओं को इससे कितनी ही दिक्कत हो घर वाले नहीं मानते। भले चुन्नाी पहिए में फँस जाए, बारिश में घुटने तक साड़ी उठाकर पिंडलियाँ दिखाते हुए दोपहिया वाहन चलाना पड़े, दौड़कर बस पकड़ने में साड़ी पाँव में आ जाए या गैस जलाते हुए पल्ले के आग पकड़ने का डर हो। मगर नहीं सिले-सिलाए वस्त्र पहनने की अनुमति नहीं। दलील यह है कि पश्चिमी वस्त्र पहनने से संस्कृति पर कुठाराघात होगा! साड़ी चली जाएगी तो हमारी संस्कृति चली जाएगी। भई संस्कृति कहीं नहीं जा रही। जैसे वार-त्योहार पुरुष पारंपरिक कपड़े पहनते हैं वैसे ही महिलाएँ भी इसे सदा पहनेंगी। रही पश्चिमी संस्कृति आने की बात तो यह पूछा जाना चाहिए कि कितने घरों में अब बैठकर खाना बनाया जाता है। नए घर बनाने पर तो स्टैंडिंग किचन ही बनता है न! टॉयलेट में वेस्टर्न कमोड भी होता है। शादियों में खड़खाना होता है। सभी पुरुष पश्चिमी परिधान में ही ऑफिस जाते हैं। लड़कियाँ भी शादी न होने तक अमूमन जीन्स, ट्राऊजर आदि मनचाहे कपड़े पहनती हैं। फिर शादी होते ही संस्कृति कैसे याद जा जाती है? वजह है कंट्रोल। शादी के बाद घर वाले तय करते हैं कि स्त्री क्या पहनेगी और क्या नहीं पहनेगी। ससुराल वाला परिवार स्त्री के वस्त्रों को नियंत्रित करना चाहता है। वहीं जैसे ग्रामीण ससुराली माइग्रेन वाली बहू के काला चश्मा लगाने की बात पर सोच रहे थे कि लोग क्या कहेंगे, बहू क्या कहने में नहीं है। हाथ से तो नहीं निकल गई। फैशन-वैशन करती है। सच तो यह है कि हमने कपड़ों के साथ स्त्री की आज्ञाकारिता नत्थी कर दी है। प्रकारांतर से हम उन्हें बगावत के लिए मजबूर कर रहे हैं। दिल्ली में एक मित्र ने बताया कि वह पेंट-कुर्ता तो पहनती है, मगर उसके कपड़ों का कट और डिजाइन क्या हो यह पति ही तय करता है। यदि वह कहता है 'वी" नेक पहनो और पत्नी ने गोल नेक का शर्ट पहना तो झगड़ा हो जाता है। जहाँ तक छोटे शहरों का सवाल है ठीक है छोटी जगह में लोग बात करते भी हैं। मगर समय के साथ बहुत चीजें बदलती भी हैं। पहला कदम उठाने का साहस भी किसी न किसी को करना पड़ता है। बात में तर्क हो तो परिवर्तन को स्वीकार भी करना होता है।
पहला कदम उठाने का साहस भी किसी न किसी को करना पड़ता है
जवाब देंहटाएं.. और आजकल की लडकियां उठा रही हैं .. उनके पति भी इसमें भरपूर सहयोग कर रहे हैं !!
फिर भी कहने हम बहुत आधुनिक हो रहे हैं......
जवाब देंहटाएंsahi kaha aapne; striyon ko swatantrata ki shuruaat pahnawe se hi karni hogi............
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