मंगलवार, 25 जनवरी 2011

पुरूष है, पत्थर नहीं!

इंसान भावनाओं का पुतला है। तरह-तरह के उद्वेग, प्रतिक्रियाएँ, संवेग और संवेदनाएँ हमारे भीतर होती हैं। भीतर की ये हलचलें कई बार अभिव्यक्ति चाहती है। दबाने पर ये ज्वालामुखी भी बन सकती हैं और गलत समय पर गलत जगह फूटकर नुकसान भी पहुँचा सकती हैं। इसीलिए मानव समाज ने ऐसी परंपराएँ भी विकसित की हैं, जो भावनाओं को अभिव्य‍क्त करने का मौका देती हैं, उद्वेगों को खुलकर प्रकट होने का अवसर देती हैं। विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों में इनके अलग-अलग रूप देखे जा सकते हैं। जैसे एक संप्रदाय में मातम मनाने का एक दिन तय है, जिस मौके पर लोग रोते, चिल्लाते और छाती पीटते हैं। कुछ संस्कृतियों में ऐसे त्योहार होते हैं, जिनमें लोग एक-दूसरे पर टमाटर फेंकते हैं। होली के दिन का तो सूत्र वाक्य ही रहता है, 'बुरा न मानो होली है' और इस दिन लोग रंग लगाते हैं, पुराने कपड़े पहनते हैं। होली की ठिठोली भी होती हैं, होली का हुड़दंग भी। कालांतर में इसमें बुराइयाँ भी आई हैं, मगर निश्चित ही ये त्योहार इन बुराइयों के लिए इजाद नहीं किए गए थे। खास बात होती है मिलना-जुलना और खुलकर अभिव्यक्त करना। परंपराओं में नृत्य और संगीत के द्वारा भी स्वयं को अभिव्यक्त किया जाता है। वहीं घ‍ड़ियाल और शंख बजाकर ध्वनि भी की जाती है। बंगाल के कुछ घरों में तो मुँह से आवाज निकालकर ही शंख सी ध्वनि करने का भी रिवाज है, लोग जोर से 'ऊलू लू लू' करके आवाज करते हैं। युवाओं की टोली जब कोई खेल देख रही होती है तो जोश की अभिव्यक्ति के लिए हू-हू की आवाजें खूब करती है। यह सब भावनाओं का विरेचन है। भीतर के संवेगों का बाह्य प्रगटन है।

अपने मन को दुरुस्त रखने के लिए इंसान ने ही तरह-तरह की प्रणालियाँ विकसित की लेकिन वहीं कई स्थानों पर उद्वेगों को व्यर्थ ही दबाने के लिए सामाजिक बंधन भी लागू कर दिए। तात्पर्य यह नहीं कि आवेश आने पर व्यक्ति किसी का गला घोंट दे। मगर सामान्य भावनाओं पर झूठी शान के पहरे भी यहाँ लगाए जाते हैं। कई बंधन तो जेंडर स्पेसिफिक भी होते हैं, लिंग के आधार पर तय कर दिए जाते हैं, व्यक्ति और स्थिति-परिस्थिति के आधार पर नहीं। जैसे कि लड़कियों का ठहाका लगाकर हँसना बुरा माना जाता है, लड़कों का रो देना एक किस्म की सामाजिक वर्जना से ग्रस्त है। स्त्रियों के ठहाके पर तो आपत्तियाँ कम हो चली हैं, मगर पुरुषों के रोने से जुड़ी वर्जनाएँ टूटी नहीं हैं। गहरे सामाजिक संस्कार, वर्जनाओं, पुरुष के रुदन से जुड़े उपहास की वजह से खुद पुरुषों में ऐसी भावनाएँ विकसित हो जाती हैं कि वे रोने को कमजोरी मानने लगते हैं। जबकि ऐसा नहीं है, रोना संवेदना की निशानी है। पत्थर क्या खाक रोएँगे? उन्मुक्त ठहाका हो या खुलकर रोना, यह व्यक्ति के दिल में फँसे गुबार को उलीच देता है। छाती साफ कर देता है। बेटी की बिदाई पर रोता बाप क्या खराब लगता है? उस वक्त तो हमको उसमें स्नेहिल-कोमलता के दर्शन होते हैं। फिर हम बाकी स्थितियों-कोमलता के दर्शन होते हैं। फिर हम बाकी स्थितियों में पुरुष के रोने को उपहास की दृष्टि से क्यों देखते हैं? बहादुर होने का अर्थ कोमल संवेदनाओं रहित होना नहीं है। और न ही कोमल होने का अर्थ कमजोर होना है।

- निर्मला भुराड़िया

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