शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

अन्न की कसम!


अपनी बात

निमाड़ के एक छोटे से गॉंव में एक मजदूर के यहॉं की एक शादी मैंने अटैंड की ती और ये जाना कि सचमुच उत्सव मनाना किसे कहते हैं। उत्सव मनाने के लिए शान-शौकत, खर्चा, दिखावा नहीं, बल्कि उल्लास चाहिए। यही उल्लास वहॉं छलक पड़ रहा था। औरतें रंग-बिरंगे लुगड़े-घाघरे पहनी थीं। जिन्होंने साड़ियॉं पहनी थीं वे लाल-जामुनी चटख रंगों की थीं, बड़े-बड़े फूल-पत्तों की डिजाइन वाली। अलबत्ता लड़कियॉं अब घाघरा-ब्लाउज में नहीं थीं, सलवार-कमीज में थीं, एक-आध बच्ची ने तो फ्रॉक के साथ जीन्स भी पहन रखी थी और वो बालों में रंग-बिरंगी पिनें लगाई थीं। हाथ भर-भर के चूड़ियॉं और चॉंदी के झैले-झुमके, पायजेब लगभग सभी ने पहने थे। एकाध शहर रिटर्न ने लिपिस्टिक भी पोत ली थी, जो होंठ के साथ-साथ दॉंत पर भी लगी थी। आलता सभी ने लगाई थी।


ग्रामीण पुरुषों में धोती-कुरता के साथ, पैंट-शर्ट वाले भी थे, पर उनमें से अधिकांश ने पगड़ियॉं बॉंध ली थीं। अजब-गजब से रंगों वाली पगड़ियॉं, फ्लोरेसेंट ग्रीन से लेकर चमकदार मोतिया और पीले रंग तक की । लगता था चारों तरफ रंगों की बौछार है और जब ढोलक की थाप लगी तो स्त्रियों ने नाचना और गाना शुरू किया। फिर तो वो समॉं बॅंधा कि पूछो मत। मैं सोच ही रही थी खुशी किस चिड़िया का नाम है, यह ये ग्रामीण लोग हम शहरी लोगों से अधिक जानते हैं, जबकि उनका जीवन संघर्ष हमसे अधिक है। इतने में एक नजारा देखा। जिस महिला का नाचना खत्म हुआ था, उस पर दूसरी महिला ने कुछ वारा जो नोट तो नहीं था। पता चला उसने मुट्‌ठी भर गेहूँ वारा था। दरअसल ये लोग रुपए नहीं, अन्न वारते हैं। उसी दौर में निमाड़ के एक वकील साहब ने बताया कि निमाड़ के आदिवासी व ग्रामीण क्षेत्रों में यह प्रथा है कि किसी घटना में किसी को न्याय की शपथ दिलवाना है तो ये लोग अन्न की शपथ लेते हैं। किसी धार्मिक पुस्तक पर हाथ रखकर शपथ लेने की बजाय मुट्‌ठी में अन्न भरकर "जो कुछ कहूँगा सच कहूँगा' कहते हैं। वहॉं यह मान्यता है कि मुट्‌ठी में अनाज हो उस वक्त व्यक्ति झूठ नहीं बोलेगा, क्योंकि अन्न ही ब्रह्म है। शहरी जीवन में भी तो "थाली पर बैठकर झूठ नहीं बोलूँगी', "अन्न-जल हाथ में हैं'..... इत्यादि जुमले चलते हैं। दरअसल अन्न एक बुनियादी जरूरत है। जीवित रहने की पहली आवश्यकता है, मगर इस वक्त पूरी दुनिया में अन्न की किल्लत हो गई है। कहा जाता है कि न तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा। वैसे ही भोजन के लिए दंगे होंगे, बल्कि होने भी लगे हैं। मगर दुनिया की बड़ी ताकतों की रुचि रोटी से ज्यादा बम बनाने में है। खैर हम तो भारत पर आएँ।


बचपन में हम निबंध रटते थे भारत एक कृषि प्रधान देश है। यह किताबी बात अब सचमुच किताबी हो गई है। जो कभी मुख्य रोजगार हुआ करता था, उसे राजनीतिक तो छोड़ो, कोई सामाजिक प्रोत्साहन भी नहीं है। अतः गॉंव की नई पीढ़ी भी गॉंव में रुकने को तैयार नहीं। उन्नति का मापदंड हो या अच्छा करियर, हम प्रबंधन को ही तवज्जो देते हैं, सामाजिक सम्मान देते हैं। हर किसी को प्रबंधन में जाना है, पर जब उत्पादन ही नहीं होगा तो प्रबंधन किस चीज का? क्या अन्न की जगह हम कागज खाएँगे? विकास के आँकड़े लाने वाले भाई लोग आँकड़ों ही आँकड़ों में अच्छी पैदावार की मायावी तस्वीर भी दिखा देते हैं। सरकार ने कृषकों को कर्ज माफी भी दी है, पर क्या उससे सामाजिक परिदृश्य बदल जाएगा? चीन और जापान में स्मॉल फॉर्म मैनेजमेंट क्रांति हुई है, जबकि हमारे छोटे किसान जमीन बेचकर दिहाड़ी मजदूर हो गए हैं और महानगरों की झोपड़-पटि्‌टयों में गुजर-बसर कर रहे हैं। जो कृषि कर रहे हैं, उन्हें अच्छे बीज, खाद, मिट्‌टी के रखरखाव की तकलीफें हैं। बहुत-सा अनाज तो पोस्ट हार्वेस्ट टेक्नॉलॉजी के अभाव में नष्ट हो जाता है। दरअसल इस देश को पुनः एक हरित क्रांति की आवश्यकता है। मैनेजमेंट की जरूरत उत्पाद को वैज्ञानिक तरीके से मैनेज करने के लिए है। ग्रामीण युवाओं का इसमें बहुत योगदान हो सकता है, बशर्ते राजनीतिक और सामाजिक इच्छा शक्ति हो। आधुनिक कृषि एक सम्मानजनक करियर हो तो ग्रामीण युवाओं को प्रोत्साहन मिलेगा। अभी तो आईआईटी, आईआईएम पर टूट पड़ने वालों की जय का जमाना है। हमारा युवा तो इस तरह तैयार किया जा रहा है कि भई कूड़े के ढेर में से रोटी बीनते बचपन को देखो तो नाक पर कॉर्पोरेट सूट की टाई दबाकर निकल जाओ। नेता भी कुछ करने-धरने वाले नहीं। हॉं, ये हो सकता है अपने खोखले नारों में वे सड़क, बिजली, पानी के साथ अन्न भी जोड़ लें।


- निर्मला भुराड़िया

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

रूठ न जाना चिड़िया रानी!


अपनी बात

बहुत दिन नहीं बीते होंगे शायद हमारी दादी मॉंओं-परदादी मॉंओं के ही जमाने की बात होगी। उन दिनों की औरतें घर के बीचों-बीच बने चौक में बैठकर घट्‌टी पीसा करती थीं। वे पीसते-पीसते गाना गातीं, नीले आसमान को ताकती इतने में फुर्रऽऽ से कोई चिड़िया आती और औरत की मुट्‌ठी से फिसले दाने चुगने लगती। चिड़िया को देखकर औरत खुश हो जाती और कुछ और दाने जान-बूझकर ही उसकी ओर बिखेर देती और झर्रऽऽ करती कुछ और चिड़ियाएँ इस भोज में आ जुटतीं। फिर आया दादी मॉंओं-मॉंओं का जमाना। भीतर के चौक से उठकर स्त्रियॉं अब खुले आँगन में आ गई थीं। यहॉं वे चुगतीं-बिनती-दाने बिखेरतीं तो सहज ही भूरी घरेलू चिड़ियाएँ आतीं, जातीं और दाना खातीं। यह सब वो वक्त थे जब नन्हे बच्चे खाली समय में चिड़ियों से बातें करते थे। उनकी यह दोस्ती उसी समय से प्रारंभ हो जाती थी जब बाबा उन्हें गोद में उठाकर बहलाते थे, देख 'नन्नू' चिड़ी आई चिड़ी। बड़ा होते-होते नन्नू देखता था चिड़िया को कुंडी में नहाते और बदन फुरफुराकर पानी के छींटें उड़ाते। मुन्नी देखती थी चिड़िया को धूप का टुकड़ा पकड़ने की व्यर्थ कोशिश करते। हमारे घर-परिवार से जुड़ी यह गौरेया कभी भी छत, आँगन, बरामदे या खिड़की से हमारे घरों में आ धमकती थी और तस्वीरों के पीछे या छोटे मचान पर रखे डिब्बों की आड़ में घोंसले बना लेती थी। लोग इसके नन्हे बच्चों के आगमन की प्रतीक्षा करते थे।


भारतीय जनजीवन में पैठी यह भूरी घरेलू चिड़िया हमारे अनगिनत किस्सों-कहानियों, लोकगीतों और शायरियों का अंग बन चुकी है। मगर धीरे-धीरे यूँ हुआ कि हमारी यह प्यारी चिड़िया महज किस्सों में ही रहने लगी। शहरी भारतीयों के घर आना उसने लगभग बंद कर दिया। चिड़िया करे भी क्या? चुगे-चुगाए दाने अब पॉलीथिन में बंद मिलते हैं, जो उसे नसीब नहीं होते। एयरकंडीशन ने घरों की खिड़कियॉं सील कर दी हैं, बहुमंजिला इमारतों के चलते आँगन नहीं रहे। कीटाणुनाशकों ने उसके बच्चों को खिलाए जाने वाले कीट खत्म कर दिए हैं। हर जगह शोर है, प्रदूषण है, पैक घर-दरवाजे और खिड़कियॉं हैं। सो वह शहर वालों से रूठकर चली गई हैं। आगे खतरा यह है कि कहीं वह लुप्त न हो जाए।


एक भारतीय पर्यावरण विज्ञानी ने इस नन्ही चिड़िया को बचाने की जिम्मेदारी ली है। हालॉंकि खतरा इतना बड़ा है कि उनका प्रयास चिड़िया के जितना ही नन्हा है, मगर बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि नन्ही, छोटी-सी होकर भी चिड़िया धरती के पर्यावरण व प्राणी श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस श्रृंखला से जुड़ी सभी चीजों को समय रहते न सहेजा गया तो पृथ्वी का विनाश हो जाएगा साथ ही मनुष्य का भी। इसी बात को ध्यान में रखते हुए अंतरराष्ट्रीय पत्रिका 'टाइम' ने एक विशेष स्टोरी की है 'हीरोज ऑफ द एवयारनमेंट' जिसके तहत अपने-अपने तई पर्यावरण के लिए काम करने वाले कुछ लोगों की प्रोफाइल दी गई है। इसी में भारत के मोहम्मद दिलावर के बारे में भी है।


नासिक में रहने वाले मोहम्मद दिलावर लुप्त होती चिड़ियाओं को बचाने और इस बारे में लोगों को जागृत करने के प्रयास में लगे हैं। घरेलू चिड़िया की विलुप्ति को दिलावर एक अशुभ संकेत मान रहे हैं। पर्यावरणीय रूप से अशुभ। और शायद हम सभी लोगों को उनकी इस बात से सहमत होना पड़ेगा कि चिड़िया को बचाने के अभियान में अभी से हम लोग न लगे तो हमारे बाल-बच्चे नहीं जान पाएँगे कि चिड़िया आखिर किस चिड़िया का नाम है।मुहम्मद दिलावर का यह सोचना है कि पर्यावरण के हित में सरकार और समुदाय को तो प्रयास करना ही चाहिए, मगर लोगों को व्यक्तिगत तौर पर भी कुछ न कुछ करना चाहिए। दिलावर के कई प्रयासों की कड़ी में एक यह है कि उन्होंने चिड़ियाएँ आकर घोंसला बना सकें। नासिक के आसपास के इलाकों में ही उन्होंने हजारों ऐसे बॉक्स नॉन प्राफिट बेसिस पर बेचे हैं। ये बॉक्स उन परिवारों ने खरीदे हैं, जो ये चाहते हैं कि उनके बच्चे चिड़ियाओं को चहचहाते देखें। इसी तरह सामान्य लोग चिड़ियों के लिए पानी की कुंडी रखें, चुग्गा डालें, पेड़-पौधे और बागड़ लगाएँ, हरियाली और पर्यावरण की कद्र करें तो गोरैया और उसके जैसे कई प्रसन्नचित, मददगार प्राणी हमारे जीवन को सुंदर बनाए रखेंगे।


- निर्मला भुराड़िया

बुधवार, 28 जुलाई 2010

बच्चों की दीक्षा क्यों?

दुनिया में जब लोकतंत्रों का आगमन नहीं हुआ था तब राजाओं और धर्मगुरुओं का आज्ञातंत्र चलता था। इनकी आज्ञा ही कानून होती थी, भले फिर वह सही हो या गलत। उनसे असहमति या उनका विरोध करने का तो सवाल ही नहीं था। और तर्क? उसके लिए तो जगह ही नहीं थी। राजाज्ञा से तथाकथित अपराधी को जिंदा जला देना, चोरी करने का शुबहा होने पर हाथ काट देना, सिर धड़ से अलग कर देना आदि बर्बर सजाएँ देना आम बात थी। धार्मिक कट्‌टरताओं के चलते सही बात कहने वाले को जहर का प्याला पीना होता था। धर्मगुरुओं के खिलाफ जाकर पृथ्वी गोल है चपटी नहीं कहने वाले का भी यही हश्र हुआ। उन्हीं बर्बर युगों में भारत में सती प्रथा भी थी। मगर उस युग में धर्मांधता, कट्‌टरपन, तानाशाहियों, बंद समाज के चलते भी राजा राममोहन राय जैसे लोगों ने सती प्रथा का विरोध किया। असके लिए उनके असीम साहस की प्रशंसा की जाना चाहिए। क्योंकि हममें से अधिकांश तो इक्कीसवीं सदी के अपेक्षाकृत शिक्षित, स्वतंत्र समाज में भी कुप्रथाओं का विरोध करने से डरते हैं। धार्मिक कट्‌टरता के खिलाफ आवाज उठाने में घबराते हैं। यह तो उन लोगों की बात हुई जो तर्कों को समझते हैं फिर भी आवाज नहीं उठाते, मगर ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो स्वयं ही अंधश्रद्धा से ग्रस्त हैं। यह भय उन्हें कुप्रथाओं संबंधी किसी भी विवेचना से रोकता है कि कहीं यह धर्म की आलोचना तो नहीं होगी! ऐसा सोचना धार्मिक प्रवृत्ति नहीं पापबोध है, क्योंकि कुप्रथाओं की ओर इंगित करना आलोचना नहीं विवेचना है। और धर्म हो या दुनिया की कोई भी चीज वह समय-सपेक्ष है। नए समय के सन्दर्भों में पुरानी चीजें भी पुनर्व्याख्या चाहती है। जब पुरानी चीजें आडम्बर, पाखंड और कुप्रथाओं का रूप ले चुकी हैं तो उन्हें बदल डालने में या नए सिरे से समझने में कोई आपत्ती नहीं है।

इसी सन्दर्भ में कुछ समय पहले घटी एक घटना की ओर ध्यान जाता है। रिद्धिश्री नामक जैन साध्वी बड़े नाटकीय तरीके से गायब हुईं। समाज ने इस घटना को धर्म के लिए कलंक माना। रिद्धिश्री उर्फ समता के सन्दर्भ में अपमानजनक शब्दों में बातें की जाने लगीं। शब्दावली यूँ बदली किवे रिद्धिश्री से सीधे आरोपी हो गईं। ठीक है एक पूज्य व्यक्ति का यह आचरण समाज की नजर में कलंक हो सकता है। लेकिन क्या किसी ने सोचा कि एक युवा स्त्री को प्रेमी के साथ घर बसा लेने जैसी सामान्य इच्छा के लिए ऐसा नाटक क्यों करना पड़ा? उसका अपराध यह था कि वह सांसारिक जीवन में लौटना चाहती थी और उसे अनुमति नहीं मिली, क्योंकि यह धर्मसम्मत नहीं था। मगर जब एक चौदह वर्ष की अवयस्क बालिका को दीक्षा दे दी गई थी, तो क्या वह कदम 'मानवधर्म सम्मत' था? अब वह वयस्क होने के पश्चात, अपनी खुद की समझ विकसित होने के पश्चात स्वनिर्णय से स्वइच्छा का जीवन जीना चाहती है, तो वापसी के द्वार पर लौह कपाट बंद हैं। यह तो कैद हुई धर्म कहाँ हुआ! और जो नाटक हुआ वह धर्म की मर्यादा तोड़ने का परिणाम नहीं बाल दीक्षा जैसी कुप्रथा का परिणाम माना जाना चाहिए। कहते हैं मोह के बाद मोहभंग आता है फिर आता है वीतराग। तब इंसान चाहे तो स्वेच्छा से किसी भी प्रकार की दीक्षा ले सकता है। अपने जीवन के साथ कोई भी प्रयोग कर सकता है। (हालाँकि प्रयोग सफल न होने पर पीछे लौटने के दरवाजे तो उसके लिए भी खुले होने चाहिए) खैर! बात है बच्चों की।

जैन धर्म में दीक्षा के बाद का जीवन बेहद कठिन है। कई बार बच्चे यह समझे बगैर दीक्षा ले लेते हैं। 1987 में इंदौर में एक पूर्व जैन साध्वी इंदुप्रभा अपना साध्वी जीवन छोड़कर ग्राम दूधिया के श्री राधेश्याम के साथ चली गई थी। इंदुप्रभा ने उस वक्त जो बयान दिया था वह आज भी गौर करने लायक है। उन्होंने कहा था, "मैं दुल्हन की तरह सजने की लालसा में साध्वी बनी थी। तब दीक्षा की कठोरता आदि के बारे में कुछ मालूम नहीं था। न ही दीक्षा की गूढ़ता के बारे में समझती थी। दुल्हन की तरह सजकर शोभायात्रा निकाले जाने की उमंग में मैं साध्वी बन गई।" उल्लेखनीय है कि दीक्षा पूर्व व्यक्ति को सजाया जाता है, गाजे-बाजे से, धूम-धाम से शोभायात्रा निकाली जाती है। बड़े-बड़े लोग आकर चरण वंदना करते हैं। हालॉंकि यह वीतराग के पहले का आखिरी मोह होता है इसलिए ऐसा किया जाता है। मगर बच्चों को सिर्फ महिमामंडन दिखता है इसके आगे के बारे में वह जानता भी है तो समझता नहीं।बात सिर्फ इतनी भर भी नहीं है कि बच्चे या बच्चियॉं भव्यता से मोहित होकर दीक्षा ले लेते हैं। बाल दीक्षा थोपा-थोपी और "धार्मिकों (?) की राजनीति" के कुत्सित घेरे में भी चली गई है। जिस पर मुँह खोलने से भी लोग डरते हैं। पीछे वही डर "धर्म" (?) के खिलाफ कैसे बोलें। या फिर है कि जिस पर धर्म का ठप्पा लगा है वह सब अच्छा ही है। आँख मूँदकर उसे मान लो। लोगों की ऐसी ही धर्मंधता और भय के चलते आचार्य लोग राजनीति करने लगे हैं। 1998 में आचार्यों में से ही एक यति श्री विनयसागरजी महाराज ने इस ओर इंगित किया था। उन्होंने कहा था, "श्वेताम्बर जैन समाज के विभिन्न गच्छों के आचार्यों में अपनी शिष्य संख्या बढ़ाने के लिए चलने वाली होड़ में बाल दीक्षाएँ बढ़ रही हैं।" यानी धर्मगुरुओं में भी अहंकार और गलाकाट प्रतिस्पर्धा है कि किसने कितने शिष्य बनाए। इस प्रतिस्पर्धा की बलि चढ़ते हैं मासूम। क्योंकि उनके दिमाग में बाद डाल देना और उन्हें राजी करना अपेक्षाकृत अधिक आसान है।

बाल दीक्षा के और भी कारण हैं, जो कि सचमुच दिल दहला देने वाले हैं। ऐसे उदाहरण भी हुए हैं जहॉं दो बेटियों वाले गरीब पिता ने सोचा एक को तो दीक्षा दिला दें तो मिले दहेज से मुक्ति- महिमामंडन का महिमामंडन।

और ये कोरे इल्जाम नहीं हैं। जीते-जागते प्रकरण हैं। बस यही कि जब कोई सबूत सामने लाए जाने की कोशिश हो तो कुछ धार्मिक आचार्य और तथाकथित आस्था पर कोई सवाल न करने के पक्षधर अंधश्रद्धालु बिगड़ जाते हैं। मीडिया तक में इन मामलों की विवेचना को धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप माना जाता है। कुप्रथाओं पर चोट को धर्म की निंदा समझकर लोग कानों परहाथ रख लेते हैं या बोलने वाले का मुँह तोड़ देने की धमकी देते हैं। नतीजा जबरिया दीक्षाएँ भी हो जाती हैं पर जनता में और मीडिया में धुआँधार मुद्दा नहीं बनता। न सिर्फ यह कि स्वस्थ बहस नहीं हो पाती, हम अत्याचार देखते रह जाते हैं। 1994 की ही एक खबर है कि राजस्थान में एक नाबालिग लड़की को उसकी मॉं की इच्छा के खिलाफ जबरन साध्वी बनाए जाने पर लड़की की मॉं ने बीस हजार लोगों के समक्ष मिट्‌टी का तेल छिड़क कर आग लगा ली थी तथा प्रशासनिक अधिकारी मूकदर्शक बने रहे। उस वक्त राज्यसभा में शून्यकाल में जनता दल की कमला सिन्हा ने यह मामला उठाया था। जाहिर है बात आगे बढ़ी नहीं। क्योंकि राजनेता धर्म-संप्रदाओं, जातियों के थोकबंद वोट बैंकों से डरते हैं और मीडिया विज्ञापनदाताओं से!
और कुप्रथा की चपेट में आए व्यक्ति को न कोई रास्ता मिलता है न मददगार, क्योंकि बागड़ें खुद खेत का रही हैं। फिर रास्ता क्या? देखिए- 1994 में ही नासिक में जैन साध्वी श्रीयशजी ने आत्महत्या कर ली थी। शव के पास पत्र पड़ा था जिसमें लिखा था, "इस जिंदगी से तो मौत भली।"

ऐसे ही वाकयों के चलते कुछ लोग बाल दीक्षा को कुप्रथा मानकर इसके खिलाफ आगे भी आए हैं। उन लोगों के जिक्र से शायद आमजन को इस बारे में कुछ हौसला मिले या अपनी राय प्रकट करने की प्रेरणा मिले। तकरीबन पॉंच-छः साल पहले उस समय आत्मवल्लभ जैन श्वेतांबर संघ के अध्यक्ष श्री देवेन यशवंत ने बेबाकी है कहा था, "गरीबी और आचार्यों की गुटबाजी दो ऐसे कारण हैं, जिनकी वजह से जैन धर्म में दीक्षा के लिए वैराग्यभाव परिपक्वता की शर्त का पालन नहीं किया जा रहा।" कुछ लोगों ने तो बाल दीक्षा की प्रवृत्ति के खिलाफ न्यायालयों में याचिकाएँ भी दायर कीं।

1987 में दिल्ली के एक वकील ने जैन समाज के अंतर्गत बाल दीक्षा रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट में भारत सरकार व मध्यप्रदेश सरकार सहित अनेक राज्य सरकारों के खिलाफ याचिका दायर की थी। याचिका में कहा गया था, "नाबालिग बच्चों को दीक्षा दिलाना न केवल संविधान व राष्ट्रीय शिशु नीति के खिलाफ है बल्कि इससे मानव अधिकार घोषणा पत्र का भी हनन होता है।" याचिका में यह भी स्पष्ट किया गया था कि लड़कों से ज्यादा नाबालिग लड़कियों को इसलिए दीक्षा दिलाई जाती है कि उनके माता-पिता शादी के लिए दहेज की मॉंग पूरी करने में असमर्थ होते हैं। 1998 में भी राजस्थान उच्च न्यायालय में राकेश शर्मा नामक एक व्यक्ति ने एक याचिका दायर की थी। जैन समाज ने याचिका का विरोध करते हुए कहा था - "दीक्षा शास्त्रोक्त है।" याचिकाकर्ता ने अंततः अपनी याचिका वापस ले ली थी। लेकिन 2004 में नौ वर्षीय प्रियाल बगरीचा उर्फ प्रीतवर्षा श्रीजी के मामले में वकील रवीन्द्र पारीख ने एक अनूठी पहल की थी। उन्होंने अपनी याचिका में बच्ची का अभिभावक बनने की गुजारिश की। उनका कहना था, "बाल दीक्षा बच्चों से संपत्ति का अधिकार छीन लेती है इसलिए प्रियाल को सुरक्षा देने के लिए मैं एक कल्याण ट्रस्ट बनाना चाहता हूँ।"

खैर संपत्ति का अधिकार तो क्या फिलहाल तो इन बच्चों का सामान्य मानव अधिकार ही सामने हैं। एक तो यह कि उस जीवन को आजमा लेने के बाद वापस लौटने का अधिकार नहीं। केशलोचन जैसी धार्मिक पद्धतियॉं हैं, जिसमें सारे बाल खींचकर तोड़े जाते हैं, बच्चे को लहूलुहान करके मुंडाई की जाती है। ऐसी और भी कई पद्धतियॉं उस जीवन में शामिल हैं जिनका विस्तार से विवरण यहॉं संभव नहीं है। पर यह तय है कि ये सब झेलने वाला नासमझ, अवयस्क बच्चा हो तो ये बातें क्रूरता की श्रेणी में आ जाती हैं। अब वह समय आ गया है जब हमें "भारतीय समाज" से जुड़ी ऐसी प्रथाओं की पुनर्विवेचना करना चाहिए।

- निर्मला भुराड़िया

सोमवार, 26 जुलाई 2010

असली मुद्दे मीडिया से 'गोल' हैं

मीडिया
औरत, मीडिया और सै....क्स....! क्या कहें? औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया... बाजार ने उन्हें फिर औरत दे दी। भई दुनिया गोल है। वैसे भी बाजार में औरत का अर्थ गोल... कहिए सिर्फ गोलाइयाँ और गोलाइयाँ हैं! वह सिर्फ भूगोल है इस परिदृश्य से उसकी आत्मा 'गोल' है, कहें नदारद है। और औरत के इस भूगोल का जबरदस्त महत्व ही इसीलिए है कि मीडिया बाजार है कोरा बाजार। मीडिया विज्ञापनों से ही चलता है, दर्शकों और पाठक से नहीं! तभी तो आज जो भाईलोग (!) एक रुपए में अखबार बेचने के तत्पर हैं वे कल मुफ्त में भी बाँट सकते हैं। मीडिया का काम तो विज्ञापनों से ही चलेगा। और औरत और सैक्स के बगैर विज्ञापन बगैर नमक की खिचड़ी है, यानी प्रकारांतर से मीडिया भी। तभी तो विज्ञापन शेविंग क्रीम का हो तो भी स्त्री जांघिया पहनकर पुरुष के साथ पधारेगी। उसे ‍शेविंग करने में सहायता करेगी और कल को 'शबाना आंटी' के बचाए दो बकेट पानी से नहाने की बारी आई तो भी कोई अभी-अभी सत्रह की हुई 'मिसी' उस पानी को टब में उड़ेलकर सबके सामने मल-मल कर नहाएगी, मीडिया की दुकान चलाएगी। खैर यह तो बात हुई श्लील-अश्लील की। और सिर्फ सैक्स ही अश्लील नहीं और भी बहुत कुछ हो रहा है मीडिया में ‍िजसे 'वल्गर' कहा जा सकता है। इस पर हम बाद में आएँगे, क्योंकि विषय है औरत, मीडिया और सैक्स। पहले इसी पर बात की जाए।

लाइफ साइंस की ‍िवद्यार्थी रही हूँ, इसीलिए सैक्स शब्द का वही अर्थ ग्रहण नहीं करती जो औरत-मर्द से संबंधित या उत्तेजना से संबंधित है। विज्ञान के विद्यार्थियों को कई बार इसे निर्विकार तरीके से 'एनिमल फिजियोलॉजी' के एक ‍िहस्से की तरह पढ़ना होता है। मगर मनुष्य एक ऐसा एनिमल (प्राणी) है जो प्रकृति की साधारण बातों में भी मनचाही दुष्टताएँ ढूंढ़ लेता है। मनुष्य की इसी दुष्टता पर उंगली रखने की नीयत से एक और विषय का जिक्र कर रही हूँ, जो दुर्भाग्य से आपके सुझाए विषय औरत, मीडिया और सैक्स के दायरे में ही आता है। यह विषय है 'सैक्स डिटरमिनेशन' जी हाँ, लिंग पता करके बेटियों को कोख में मार देने की 'वैज्ञानिक प्रथा' हमरे 'सांस्कृतिक देश' हिन्दुस्तान में इन दिनों जोरों पर है। हालांकि इसे रोकने के ‍िलए कानून बने हैं, मगर ‍िचकित्सकों और पालकों की साँठ-गाँठ से सब संभव है। जेंडर बताना कानूनन मना है तो परम आध्यात्मिक देवी पूजक माता-पिताओं को अपने पेट की देवी को नष्ट करने के लिए धार्मिक शब्दावली में 'जय श्रीकृष्ण' या 'जय माता दी' टाइप के क्लू मिल जाते हैं। ताकि अजन्मा संतान माता दी हो तो घर का पूजा-पाठ निपटाने के बाद पेट में ही 'उनकी' हत्या का इंतजाम कर सकें। अब किस पत्रकार का पेट इतना दु:ख रहा है समाज सेवा के लिए कि 'जेंडर सिलेक्शन' जैसे मखमली नामों वाले विज्ञापनों को ठुकरा कर, अखबार मालिकों की अवज्ञा करके, इस साँठ-गाँठ के सबूत जुटाए और इस दुष्ट स्टोरी को सामने लाए? पत्रकारिता का कोई भी 'बड़ा भाई' उसे समझा देगा 'भैया पत्रकारिता कोई मिशन नहीं है, इस रास्ते पर आगे बढ़ना है तो विधानसभा जाओ, मुख्यमंत्री का इंटरव्यू अपनी टेप में भर लाओ। नहीं तो उनके साथ हेलीकॉप्टर में बैठकर थोड़ी सैर कर आओ, इंटरव्यू वगैरा तो उनका सचिव ही दे देगा।' तो हंस संपादकजी, आपके दिए विषय के दायरे में इस तरह से 'सैक्स' डिटरमिनेशन भी आ गया, क्योंकि तकनीकी तौर पर इस विषय में 'सैक्स' शब्द का इस्तेमाल है।

वह क्या है कि पहले पत्रकारिता को दो 'बीट्‍स' में ही बाँटा जाता था, हार्ड इशूज और सॉफ्ट इशूज। अब इसकी एक और केटेगरी हो गई हैः पॉजिटिव इशूज और ‍िनगेटिव इशूज। पॉजिटिव इशूज यानी वह कंटेट जो आपके प्रजेंटेशन को आकर्षक बनाएँ, रंग-बिरंगा बनाएँ, और निगेटिव इशू यानी ‍जिसमें दुख, उदासी, गरीबी और बुढ़ापा हो। जाहिर है जवान स्त्री की देह, रैंप रिपोर्टिंग, फिल्मी चटखारे, मदमस्त जवानी, अधनंगे आदमी और औरत, सैक्स मुद्राएँ, रिच एंड फेमस, बोल्ड एवं ब्यूटीफुल आदि पॉजिटिव इशूज हैं। जबकि दहेज, जेंडर सिलेक्शन, मध्यमवर्ग की समस्याएँ, मध्यवर्गीय चौखटे ये सब निगेटिव इशूज हैं। अत: इस परिदृश्य में औरत और सैक्स, रेवेन्यू जनरेट करने (आज कमाई) के लिए कितने काम की चीज है!

वैसे मीडिया के ताजा परिदृश्य में हाई न्यूज, सॉफ्ट न्यूज, पॉजिटिव, निगेटिव के अलावा एक और महत्वपूर्ण चीज है, वह है 'सनसनी'। रिपोर्ट सेनसेशनल हो तो पॉजिटिवि निगेटिव का भेद नहीं ‍िकया जाता, पर उसमें दहेज, भ्रष्टाचार, पोल खोल के साथ ही आपको मर्डर, बलात्कार भी जोड़ना पड़ेगा। और ऑफ कोर्स कास्टिंग काऊच भी! और 'काऊच' हो और औरत और सैक्स न हो, यह कैसे हो सकता है? सो आपके ‍िदया विषय इस पॉईंट पर भी सार्थक हुआ।

यदि आप अखबारों में स्त्री छवि की बात कर रहे हैं, खासतौर से कम कपड़ों में स्त्री छवि की तो अब इस विषय को उठाने या इसके पक्ष या विपक्ष में कुछ भी कहने के बजाय इस ‍िवषय को उसके हाल पर ही छोड़ देना चाहिए। न यह भला है, न बुरा है, क्योंकि मीडिया में कम कपड़ों में स्त्री को देखना लोगों की आदत में इस कदर शुमार हो गया है कि शायद अधिकांश लोगों का इस पर ध्यान ही नहीं जाता। वैसे भी मीडिया में औरत देह को समय-असमय उघाड़ने के अलावा भी इतना कुछ अश्लील हो रहा है कि पहले उसे गिनना होगा। भरी दोपहरी में दीप प्रज्ज्वलन कर उद्‍घाटन करके तर्कहीन लोग, एक पौधे को रोपते बारह-बारह हाथ और कैमरे की तरफ देखती उनकी विज्ञप्ति-भिक्षुक आँखें, एक दिन में चार जगह फीता काटते रेडीमेड अध्यक्ष, पार्टी के पैसे से अपने और अपने आकाओं की खींसे निपोरते हुए तस्वीरें छपवाने वाले छुटभैये नेता। खुद का इंटरव्यू खुद लिखकर भेजने वाले और उसे छापने की अनुनय करने वाले लेखक.... कितना कुछ है जो बेहत अश्लील है। औरत की देह ही अश्लील नहीं है।

दरअसल नॉन-इशूज ही इशूज हैं इन दिनों। नेता लोग नॉन इशूज में देश का ध्यान बरगलाए हुए हैं और मीडिया उनके छींकने, खाँसने से लेकर गाड़ी में रवाना होने से पहले एसी चालू करने तक का 'लाइव' परोसकर परोक्ष रूप से उनकी मदद कर रहा है। हाँ कभी-कभी गुड़िया और उसके दो पति होने का धर्म संकट भी उठा देता है मीडिया मगर शर्त यह कि स्टोरी एक्जक्लूजिव हो। नहीं तो द सेकंड सैक्स यहाँ भी उपेक्षित है। (माइंड कीजिए टेक्नीकली सैक्स शब्द यहाँ आ रहा है) क्योंकि यदि स्त्री वाले पक्ष में सनसनी कम हो तो बलात्कारी की फाँसी की लाईव रिपोर्ट मीडिया के लिए ज्यादा काम की होगी। रेपिस्टजी बाकायदा मीडिया के लिए ज्यादा काम की होगी। रेपिस्टजी बाकायदा मीडिया के नायक होंगे जिनकी मरने के पहले अंतिम इच्छा पूछी जाएगी।

औरत, मीडिया और सैक्स के दायरे में यदि मीडिया में काम करने वाली औरतों की परेशानियों, खासकर छेड़छाड़, यौन-प्रताड़ना झेलने संबंधी परेशानियों से मतलब है तो यह कहना पड़ेगा कि मीडिया को 'सेपरेट आऊट' नहीं किया जा सकता। यह किसी भी फील्ड में हो सकता है। इससे बचने के लिए औरत को कोई लौह कवच या चेस्टिटी बेल्ट नहीं चाहिए। उसे चाहिए एम्पॉवरमेंट। मीडिया या कोई भी जगह जहाँ पर औरत अपनी जगह बना लेती है, जहाँ उसकी अपनी ताकत होती है, अपना पॉवर होता है वहाँ मर्दुए दुस्साहस नहीं करते। तभी तो टिड्‍डी दल की तरह छा गई हैं औरतें हर क्षेत्र में। हाँ, जब तक वे सत्ता प्राप्त नहीं करतीं तब तक उनका सफर कठिन होता है। मीडिया क्या, किसी भी क्षेत्र में।

- निर्मला भुराड़िया

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

महंगाई का काम खोटा अब बटुवा पड़े छोटा!


अपनी बात

सन्‌ १९७४ में एक फिल्म आई थी, रोटी, कपड़ा और मकान। फिल्म का शीर्षक ही आम व्यक्ति की रोजमर्रा की जिंदगी और उसकी कठिनाइयों से ताल्लुक रखता था। फिल्म प्रेमी आम जनता की नब्ज पर हाथ रखने के लिहाज से यह शीर्षक उस जमाने में उपयुक्त ही था। इस फिल्म में एक गाना भी था, जो महँगाई से त्रस्त आम आदमी की परेशानी को स्वर देता था। यह गाना था... "बाकी कुछ बचा तो महँगाई मार गई"। यानी व्यक्ति के पास बहुत सारे रोने थे, कोई कसर बाकी रहती थी तो वो महँगाई पूरी कर देती थी। यह उस जमाने का गाना है, जब दस पैसे का सिक्का अब भी चलन में था। यानी रुपए के दसवें टुकड़े में भी क्रयशक्ति थी। अधिकांश लोग पैदल, साइकल पर या ताँगे में चलते थे। यानी पेट्रोल-डीजल की जरूरत तो थी, पर उतनी आम जरूरत नहीं। घरों और ऑफिसों में एसी, कूलर भी इतने बहुतायत में नहीं थे। अतः बिजली का खर्च उतना नहीं था। फिर भी महँगाई का दंश आजादी के बाद २७ साल के हो चुके देश को चुभता था, मगर तकरीबन उसी दौर का एक गाना था, "समझो और समझाओ थोड़ी में मौज मनाओ, दाल-रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ," लेकिन अब जो महँगाई है उसमें तो दाल-रोटी ही महँगी हो चुकी है। आज की नायिका तो, "तेरी दो टकिया की नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाए" का ताना देने की बजाय खुद भी साथ में कमा रही है या यह बात समझ रही है, "सैंया तो खूबे कमात है, महँगाई डायन खाए जात है।"


इन दिनों महँगाई संबंधी यह गाना, "महँगाई डायन, खाए जात है", काफी चर्चित हो रहा है। आमिर खान प्रॉडक्शन की फिल्म "पीपली लाइव" का यह गीत मध्यप्रदेश के लेखक-शिक्षक, लोक गायक गयाप्रसाद प्रजापति ने लिखा है। इसे गाया भी बड़वाई गाँव की मंडली ने है। फिल्म का प्लॉट भी ग्राम केंद्रित है और इसमें आम किसान की परेशानी कटाक्ष के माध्यम से वर्णित की गई है। इस गाने के चर्चे फिल्म रिलीज होने के पहले ही शुरू हो गए हैं।


प्रचार माध्यम जहाँ इसके बारे में बात कर रहे हैं, वहीं सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर, ब्लॉग्स पर आम युवा अपनी प्रतिक्रियाएँ व्यक्त कर रहे हैं। चूँकि महँगाई इस वक्त अपने उच्चतम (आशा करें इससे ऊँचा नहीं) स्तर पर है, अतः इस गाने ने आम आक्रोश को स्वर दिया है। सुनते हैं भारतीय जनता पार्टी ने इस गाने के अधिकार माँगे हैं ताकि वह इसे अपना चुनावी गीत बनाकर सरकार को ताना दे सके, चूँकि केंद्र में अभी कांग्रेस की सरकार है। सच पूछा जाए तो जनता को इससे वास्ता नहीं रह गया है कि किसकी सरकार है। वह तो सिर्फ यह जानती है कि जमाने बदले, सरकारें बदलीं, फिल्म निर्माता बदले, गाने के अन्य बोल बदले, पर "महँगाई" का दंश कहाँ बदला। वह तो और विकराल हुआ। अब तो जनता यही चाहती है कोई भी आए- जाए, उसका नाम कोई भी, कोई भी झंडा, कोई भी ब्राण्ड हो बस वह मुद्रास्फीति को बस में करे। ताजा खबर है कि रुपए को भी अब डॉलर, पौंड, येन, यूरो की तरह प्रतीक चिन्ह मिल गया है। रुपए की अंतरराष्ट्रीय पहचान पर हम सभी भारतीयों को गर्व होगा, मगर साथ ही रुपए का अवमूल्यन भी न हो यह भी हर भारतीय चाहेगा। सखी के सैंया तो खूब कमात हैं, पर उतने में ठीक से दाल-रोटी भी न आत है- अभी तो यह आलम है।

- निर्मला भुरा‍ड़िया

सोमवार, 19 जुलाई 2010

ऊँची मूँछों वाला भैया!

अपनी बात
"मेरे भैया, मेरे चंदा, मेरे अनमोल रतन तेरे बदले मैं जमाने की कोई चीज न लूँ", इस गाने में भाई के प्रति बहन का प्यार है। "फूलों का तारों का सबका कहना है एक हजारों में मेरी बहना है" इस गाने में भाई अपनी भावनाएँ अपनी बहन के प्रति व्यक्त कर रहा है। सामान्य हिन्दुस्तानी परिवारों में भाई और बहन का रिश्ता अटूट होता है। यह मीठा भी होता है, खट्टा-मीठा भी होता है। वे लड़ते-झगड़ते भी हैं, एक भी हो जाते हैं। जब झगड़ा होता है तो बहन को लगता है मम्मी-पापा भाई का पक्ष लेते हैं और भाई को लगता है मम्मी-पापा बहन का पक्ष लेते हैं जबकि मम्मी-पापा के लिए दोनों ही आँखों के तारे होते हैं। एका होते ही भाई-बहन भी यह बात समझ जाते हैं। कुल जमा बात यही कि यह एक अनूठा रिश्ता है।

लेकिन उपरोक्त बात उन परिवारों पर लागू होती है जो सहज, सामान्य, आदर्श परिवार हैं। जिन परिवारों के मुखिया पर सामंतवाद हावी रहता है, जिन परिवारों की रक्त-मज्जा में रूढ़िवाद बहता है, ऐसे परिवारों में भाई और बहन को परिवार द्वारा मिलने वाले बर्ताव में भेदभाव किया जाता है। कुछ लोग यह भेदभाव खुलकर करते हैं, कुछ लोग बदलते जमाने के हक में दिखना चाहते हैं, मगर जमाने के साथ बदलना नहीं चाहते वे लोग सूक्ष्म तौर पर यह भेदभाव करते हैं। वे अपने लड़कों में निरंकुशता विकसित करते हैं और लड़की को नियंत्रण में रखते हैं। स्थिति यहाँ तक आ जाती है कि भाई अपनी बहन का धौंसिया हो जाता है। वक्त आने पर भाई अपनी बहन को टाँग तोड़कर रख देने, फलाँ से मिली तो देख लेने, यहाँ न जाने, वहाँ न जाने जैसी धमकियाँ भी देना शुरू कर सकता है। मूँछ पूरी तरह उगती भी नहीं और वह उन पर ताव देते हुए दीदी का चौकीदार या छोटी बहन का हवलदार हो जाता है।

इन दिनों तथाकथित ऑनर किलिंग की खबरें जोरों पर हैं जिसे डिसऑनर किलिंग या हत्या कहना अधिक उपयुक्त होगा। बहन द्वारा अपनी पसंद से शादी कर लेने पर आहत अहम्‌ भाइयों द्वारा बहन को जीजा सहित कत्ल कर देने की घटनाएँ इक्कीसवीं सदी के प्रजातांत्रिक भारत में जोरों पर हैं। बहन के ऐसे ही हत्यारे एक भाई के प्रति पिता, चाचा, ताऊ आदि ने "गर्व" व्यक्त किया है। जाति पंचायतों द्वारा ऐसे पिताओं, भाइयों, जाति पंचों, समाजजनों का समर्थन किया जा रहा है। देश के नेताओं के मुँह में मूँग भरे हैं (वोट भरे हैं) उनके द्वारा ऐसे जघन्य कांडों का जमकर विरोध नहीं किया जा रहा है। जनता का बहुत बड़ा प्रतिशत भी अपने स्वयं के भीतर रचे-बसे रूढ़िवाद के कारण ऐसे जघन्य कृत्यों का विरोध नहीं कर रहा, बल्कि परंपराओं को तथाकथित रूप से विज्ञानसम्मत बताकर जनप्रवाह को अपने पक्ष में बहाने की कोशिश की जा रही है। मगर जनता को भी यह बात समझना चाहिए कि विज्ञान की तुला पर तौलना है तो चीजों को पूरा तौलें अधकचरा नहीं। वे लोग यह बहाना लाए हैं कि सगोत्र विवाह विज्ञानसम्मत नहीं है, मगर यह सच नहीं है। सच तो यह है कि सगोत्र और सपिंड में अंतर है। सगोत्र व्यक्ति हजारों होते हैं उनका आपस में कोई रिश्ता नहीं है। सपिंड में एक परिवार के लोग आते हैं। आनुवांशिकी वैज्ञानिक जनाब मेंडल के नियम के अनुसार दबे हुए और दंबग जीन (रेसेसिव और डॉमिनेंट जीन्स) का गणित सात पीढ़ियों के आगे लागू नहीं होता।

सच बात तो यह है कि विज्ञान यहाँ सिर्फ बहाना है कोई तथ्य नहीं। तथ्य यह है कि ये वो लोग है जो स्त्री को अपनी संपत्ति मानते हैं। रूढ़ियों को निभाने को अपनी नाक का सवाल मानते हैं, क्योंकि लड़कियों द्वारा रूढ़ियाँ तोड़ने से उनकी आज्ञा भंग होती है! आज्ञा भंग इन्हें सगोत्र के सवाल पर ही नापसंद हो ऐसा तो नहीं। अंतरजातीय विवाह पर, अंतर-सम्प्रदाय विवाह पर, एक ही गाँव में विवाह पर, अपने से नीची (?) जाति में विवाह पर आदि कई मामलों पर ये अपना हक रखना चाहते हैं। कुल जमा बात यही कि युवाओं के सपनों की उन्हें कोई फिक्र नहीं उन्हें तो अपना दंभ, अपना हठ प्यारा है। जमीन की जमींदारी तो खत्म हो गई लेकिन बहनों, बेटियों की जमींदारी वे अब तक कर रहे हैं। समाज, पुलिस, नेताओं, मीडिया सबको इन युवाओं के हक में आगे आना चाहिए जो बालिग हैं और एक प्रजातांत्रिक देश में अपने जीवन के निर्णय स्वयं लेने का हक रखते हैं। जिनके माता-पिता उदार विचारों वाले हैं, जिन युवाओं के रिश्ते अपने माता-पिता से प्रजातांत्रिक हैं, वे अपने माता-पिता से राय यूँ भी करते हैं, उसके लिए दबिश बनाने की जरूरत नहीं होगी।

- निर्मला भुराड़िया

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

छुपाना क्यों? इलाज कराना

कलंक नहीं मन की समस्याएँ

मनुष्य का मस्तिष्क अत्यंत जटिल बुनावट रखता है। कई छुपी हुई परतें और नलिकाएँ इसमें हैं तो कई रसायन भी इसके भीतर दौड़ लगाते रहते हैं। मस्तिष्क के रसायनों के खेल से ही हमारा आचार व्यवहार संचालित होता है, अगर यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यूँ तो सामान्य मनुष्य में सबकुछ ठीक-ठाक ही चलता है,मगर कभी-कभी प्रकृति दिमागी व्यवस्था में कोई पेंच डालकर भेजती है तो कभी परिस्थितियों की मार रसायनों का खेल बिगाड़ देती है। नतीजा होता है मनोरोग। मनोरोग होना एक जैविक-कुठाराघात है,यह रोगी का दोष नहीं है, न ही उसका उपराध। लेकिन, फिर भी भारत में लाखों की संख्या में मनोरोगियों की चिकित्सा इसलिए नहीं हो पाती कि परिवार वाले, अपने वाले व्यक्ति का रोग समाज से छुपाते हैं। इस चक्कर में उसे दबाते रहते हैं और रोग बढ़ता ही जाता है। अपने परिजन की बीमारी समझने और सत्य को स्वीकार करने में भी कई लोग कोताही करते हैं, वे समाज को और खुद को कैफियत देते रहते हैं कि नहीं हमारा व्यक्ति तो सामान्य है, उसे ऐसा कुछ नहीं है। इस तरह वे 'डिनायल मोड' में चले जाते हैं। वे स्वयं से झूठ बोलते हैं, खुद को धोखा देते हैं और मरीज का नुकसान करते हैं। मरीज के हित में कोई बाहरी व्यक्ति समझाइश देना चाहे तो मरीज तो ठीक ही है यह कैफियत देने के अलावा परिजन बुरा भी मान सकते हैं। परिवारजनों का यह रवैया मरीज पर दुर्भाग्य बनकर टूटता है, क्योंकि छुपाने और इलाज न करवाने की वजह से मरीज का रोग बढ़ता ही जाता है।

एक और तरह के परिजन होते हैं। ये वे लोग होते हैं, जिन तक चेतना पहुँची ही नहीं होती है। वे अपने मरीज को लेकर चिकित्सक के पास नहीं जाते, बल्कि झाड़-फूँक इत्यादि करवाते हैं। देवी आने से लेकर भूत चढ़ने या भूत-प्रेत नजर आने जैसे संदेह हजारों की संख्या में मरीजों को होते हैं। मरीज के ऐसे किसी भी दिमागी भ्रम से जूझने की व्यवस्था आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने की है, लेकिन लोग चिकित्सक के पास जाने की बजाय अंधविश्वासों की शरण में जाते हैं, जहाँ मरीजों के साथ अज्ञानतावश क्रूरतापूर्ण तरीके से तथाकथित इलाज किया जाता है। जैसे दक्षिण के एक मंदिर में मरीज द्वारा पेड़ पर कील ठुकवाई जाती हैं, वह भी मरीज के कपाल से ठोक-ठोककर। यहाँ मरीजों के माथे से खून निकलने लगता है, वे बेहोश होकर गिर जाते हैं। कहीं शरीर में आए भूत-प्रेत भागने के नाम पर मिर्ची की धूनी दी जाती है, कहीं पानी में सिर डुबोया जाता है तो कहीं मरीज का झोंटा पकड़कर खींचा जाता है और पिटाई की जाती है। इन सब चीजों से मरीज के ठीक होने का तो कोई सवाल ही नहीं, उसके हालात और बिगड़ जाते हैं। उसकी बीमारी नियंत्रण से बाहर हो जाती है।

हम जिस सदी में रह रहे हैं, उस सदी में मनोचिकित्सा विज्ञान ने काफी प्रगति कर ली है। मस्तिष्क के रसायनों को व्यवस्थित करने वाली औषधियाँ, मस्तिष्क की लहरों को दर्ज करने वाले उपकरण, व्यवहार चिकित्सा, परामर्श चिकित्सा, मरीज की विचार प्रक्रिया के पैटर्न समझने और उन्हें वैज्ञानिक तरीके से सुधारने वाली कॉगनीटिव थैरापी,पर्सनल थैरापी, ग्रुप थैरापी, आर्ट थैरापी आदि कई चीजों का सुसंगत मिश्रण करके मनोचिकित्सक इलाज करता है। अत: दिमागी परेशानी के मरीज की अच्छी चिकित्सा आज के युग में संभव है। आज हम इतने निरुपाय नहीं है कि झाड़-फूँक के अलावा कोई तरीका ही न बचे। न ही हमें इतना अज्ञानी होना चाहिए कि बाबा-ओझाओं की शरण में जाएँ।

काफी कुछ मानसिक परेशानियाँ इलाज से ठीक हो सकती हैं, कुछ जिद्दी मनोरोग हैं, वे नियंत्रित हो सकते हैं। दवा लेने और चिकित्सा करवाते रहने पर मरीज सामान्य जीवन जी सकता है और रोग के अधिक बढ़ जाने से बच सकता है, लेकिन चूँकि ऐसे रोगों में मरीज से बड़ी भूमिका परिवार और समाज की है। अत: समाज यह समझे कि मनोरोगी की अवस्था खिल्ली उड़ाने के लिए नहीं है।

परिवार मरीज के रोग पर झेंपे-शर्माए नहीं, उसे दबाए नहीं, बल्कि इलाज करवाए। मनोरोगी होना कोई अपराध नहीं, फिर ग्लानि क्यों? यह किसी की गलती नहीं, फिर शर्म क्यों? हाँ, यह हो सकता है कि मरीज चूँकि मरीज है, अत: वह दवा लेने और चिकित्सा करवाने में आना-कानी कर सकता है। इस आना-कानी को परिजन तवज्जो न दें और चिकित्सक से ही तरीका समझें कि ऐसे में मरीज को दवा कैसे दें। बस मरीज के इस व्यवहार को आड़ बनाकर चिकित्सा न रोकें। मरीजों को आपकी उपेक्षा, उपहास की नहीं, समझदारी, सहयोग और चिकित्सा की जरूरत है।

-निर्मला भुराड़िया

सोमवार, 12 जुलाई 2010

भोपाल-गंध

अपनी बात
दुर्योग से दो और तीन दिसंबर १९८४ की दरमियानी रात को हम लोग भोपाल में थे। बंगलोर जाने के लिए सुबह पाँच बजे जीटी एक्सप्रेस पकड़ना थी। पहले स्टेशन के वेटिंग रूम में ही समय काटने का सोचा, फिर लगा कुछ घंटों ही सही ठीक से नींद हो जाए तो अच्छा, अतः होटल पेगोड़ा आ गए। देर रात समय की बात होगी, महसूस हुआ रोशनदान से कोई तीखी गंध कमरे में आ रही है। लगा एक-दो मिनट में सेटल हो जाएगी। लेकिन नहीं हुई। तब सोचा दूसरी दिशा की खिड़की खोलकर साँस लें, शायद इस तरफ तो कुछ जल रहा है। मगर गंध तो उस दिशा में भी थी। धीरे-धीरे साँस लेना मुश्किल होने लगा तो दरवाजा खोला जो सीधे बालकनी में खुलता था। मगर राहत नहीं मिली, दम घोटने वाली हवा तो पूरी फिजाँ में थी। बुरी तरह दम घुट रहा था, साँस लेना मुश्किल था। हम लोगों ने एक अटकल यह लगाई शायद दंगा हो गया हो और पुलिस ने अश्रुगैस छोड़ी हो। पति को अस्थमा की शिकायत है तो एंटी हिस्टेमेनिक दवाएँ साथ रहती हैं। तो हम लोगों ने बाथरूम में जाकर नल के पानी से ही एक-एक एंटी एलर्जिक निगल ली थी ताकि एलर्जिक रिएक्शन से बच सकें। इसके अलावा पानी से खूब मुँह धोया और गीला रुमाल नाक-मुँह पर लपेटा इस तर्क के साथ कि गैस कोई भी हो पानी में घुलनशील होगी। मगर दम घुटना बढ़ता गया तो हमने सामान होटल में ही छोड़ दिया और कमरे का ताला लगाए बगैर ही होटल से निकल आए। यूँ कह सकते हैं कि जान बचाने के लिए भागे। सड़क पर आए तो पता चला कि हम अकेले ही नहीं हैं, चारों तरफ अफरातफरी मची हुई थी। सभी लोग जान बचाने के लिए भाग रहे थे। कोई पैदल, कोई स्कूटर पर, बस, कार जिसको जो भी मिला। बूढ़े, बच्चे, स्त्री, पुरुष, जवान सभी रात के आधे-अधूरे कपड़ों में। कोई दौड़ते-दौड़ते पटरियों पर ही मर गया था, कोई खाँस रहा था, कोई रो रहा था, चिल्ला रहा था। पता नहीं था कि यह गैस क्या है? कहाँ से आ रही है? तो कई बेचारे तो यूनियन कार्बाइड की दिशा में ही भाग रहे थे, मौत के मुँह में जाने के लिए। हम लोगों के पास भी अपना कोई वाहन तो वहाँ नहीं था अतः हम पैदल ही बस स्टैंड पहुँचे। वहाँ भी सभी बसें ड्रायवर सहित भाग चुकी थीं। सौभाग्य से एक बस बच गई थी जिसका ड्रायवर सिख था। उसकी बस स्टार्ट नहीं हो रही थी। हम पाँच-सात लोग थे, उन्होंने धक्का लगाया और जाने कैसे बस स्टार्ट हो गई, हम सब बैठ गए फिर बस ने सीहोर पहुँचकर ही दम लिया। उस बस में भी एक यात्री ने हमारे देखते ही देखते दम तोड़ दिया था। दूसरे दिन मेरी आँखें सूजकर बंद हो गई थीं, रोड भी हाथ पकड़कर क्रास करवाना पड़ा था। छाती में भी दर्द था, महीनों तक जिसका इलाज करवाना पड़ा। पता चला स्टेशन पर तो ताँगे के घोड़े तक मर गए थे, मनुष्य तो मनुष्य यानी हम वेटिंग रूम में रुके होते तो नहीं बचते। सो जान तो बच गई, मगर दिमाग में एक चीज रह गई वह थी "भोपाल की गंध"। उस घटना का यह असर हुआ कि अक्सर फैक्टरियों के प्रदूषकों, सड़क पर पड़े कचरे के ढेर आदि में से ऐसा एहसास होता है गंध आ रही है, वही दमघोंटू, जानलेवा गंध, मन ने जिसका नाम भोपाल-गंध रख दिया है।

भोपाल के यूनियन कार्बाइड के कचरे के निपटान की बात इंदौर के समीप पीथमपुर में करने की चल रही है। पीथमपुर के आसपास के रहवासी, ग्रामीण, इंदौर के शहरी स्वयंसेवी संगठन आदि इसके खिलाफ उठ खड़े हुए हैं। नागरिकों की यह जागरूकता और जनकल्याण संघों की यह सकारात्मक आक्रामकता और सक्रियता प्रशंसनीय है। यदि हम जागृत हैं तो हम पर कोई बुरी चीज ऐसे ही नहीं लादी जा सकती। मगर पीथमपुर के भस्मक से उठने वाले संभावित जहरीले धुएँ की तरह और भी चीजें हैं जिनका हम सबको सक्रिय विरोध करना चाहिए। वह है हमारे सभी छोटे-बड़े शहरों में फैला गंदगी का ढेर, जो दिन-रात हमारे आसपास "भोपाल-गंध" उगलता रहता है। हमको बीमार करता रहता है। सभी नागरिकों, नागरिक संघों, रहवासी संघों आदि को यह कचरा, गंदगी न फैलाने, नगरपालिकाओं को कचरा उठवाने, सफाई करवाने में इतनी ही सक्रियता और आक्रामकता दिखाना चाहिए जितनी पीथमपुर में यूनियन कार्बाइड का कचरा नष्ट करने वाले मामले में दिखाई जा रही है। रोजमर्रा की जिंदगी में हम लोगों द्वारा स्वयं फैलाई जाने वाली और न उठवाई जाने वाली गंदगी कितने बैक्टेरिया, कितनी बीमारियाँ, कितनी जहरीली गैसें धीरे-धीरे, न मालूम तरीके से उगल रही हैं यह मालूम रखना भी जरूरी है। नागरिक कल्याण संघों, गृहिणियों, कॉलोनियों के रहवासियों की सकारात्मक आक्रामक सक्रियता से यह भी संभव है।

- निर्मला भुराड़िया

शनिवार, 10 जुलाई 2010

पेट खाली सिर पर दूध?

अपनी बात

एक सामूहिक भोज का आयोजन था। आयोजक-मेजबान भोजन करने वालों को मनुहार कर-करके परोस रहे थे 'एक और लड्‍डू हो जाए' शैली में! एक श्रीमतीजी के पास बैठी एक युवती मनुहार (?) में परोसा गया यह अतिरिक्त लड्‍डू छोड़कर उठने लगी तो श्रीमतीजी ने टोक ‍‍दिया-जूठा नहीं छोड़ते, पाप लगता है। युवती ने फिर आनाकानी की तो श्रीमतीजी ने अपना लेक्चर जारी रखा कि कुछ लोग तो भूखे मरते हैं, तुम जूठा छोड़ती हो। अपनी संस्कृति में तो जूठा छोड़ना बहुत बुरा माना जाता है, अन्न श्राप देता है वगैरह-वगैरह! युवती ने समझाने की कोशिश की कि दीदी वैसे मैं जितना चाहिए, उतना ही लेती हूँ, पर वो जबर्दस्ती परोस गए इसलिए थाली में ही छोड़ना पड़ रहा है, क्योंकि भूख तृप्त होने के बाद भोजन डस्टबीन में जाए या पेट में, एक ही बात है। श्रीमतीजी को युवती के इस उत्तर पर भी आपत्ति हुई कि उसने एक तो जूठा छोड़ा, ऊपर से मनुहार को जबर्दस्ती कहा! अत: उन्होंने नए जमाने की इस युवती को अपने तथाकथित संस्कार में प्रशिक्षित करने की ठानी और वे युवती को द्रोपदी के अक्षय पात्र की कहानी सुनाने लगीं कि कैसे उसमें चिपके हुए चावल के एक दाने से भरपूर चावल बन जाता था।

दरअसल, श्रीमतीजी ने जो कथा सुनाई वह दिलचस्प तो थी और संदेश देने वाली भी थी, मगर श्रीमतीजी ने स्वयं ने ही कथा को सिर्फ रटा भर था, समझा नहीं था, संदेश ग्रहण नहीं किया था। क्योंकि श्रीमतीजी अगले जिस कार्यक्रम में जाने वाली थी वह दुग्धाभिषेक का था! है न दोहरा मापदंड! अभी तो श्रीमतीजी और उनकी संस्कृति कह रही थीं अन्न का अपव्यय न करो और फिर उन्हीं की संस्कृति खाने-पीने की चीजों से प्रस्तर प्रतिमा का स्नान करवाएगी। सब्जियों-फलों के बंगले से भगवान की झाँकी लगाएगी! छ:क्विंटल आम के रस से मूर्ति का अभिषेक होगा। उनकी उसी संस्कृति में जहाँ जूठा छोड़ने से पाप लगता है,उनके उसी देश में जहाँ भूखे बच्चे दूध के लिए रोते हैं, वहाँ दूध, दही, शहद, आमरस से भगवान का अभिषेक! सोचिए क्या ऐसा करने पर पाप नहीं लगता? आत्मग्लानि नहीं होती? शायद नहीं होती, क्योंकि हमने धर्म को आत्मशुद्धि, आत्मग्लानि और मनुष्यता के स्तर पर नहीं सोचा सिर्फ कर्मकांड के तौर पर अपनाया है। हमारी संस्कृति में जो कुछ अच्छा है, उसे तर्कों के साथ माँजते भी चलें, जो कुछ होता आया है, उसे अंधश्रद्धा के साथ न अपनाएँ तो शायद संस्कृति का ज्यादा भला हो!

- निर्मला भुराड़िया

चित्रगुप्त की पर्यावरण डायरी

अपनी बात

कोई भी संस्थान, घटना या उत्पाद कितनी ग्रीन हाऊस गैसेस वातावरण में उत्सर्जित करता है उसे उसका कार्बन फुटप्रिंट कहा जाता है। आम लोग सिर्फ कार्बनडाई ऑक्साइड कहकर भी काम चला लेते हैं। तात्पर्य प्रदूषण फैलाने वाली सभी गैसों से होता है। यानी ‍िकसी व्यक्ति, संस्थान या देश द्वारा ‍िजतना प्रदूषण फैलाया गया वह उसका कार्बन फुटप्रिंट है, पीछे छोड़े गए प्रदूषण की 'पदछाप' है। कार्बन फुटप्रिंट को घटाने के लिए वनों की रक्षा करने, नए पेड़ लगाने, पुराने पेड़ बचाने, सर्य और हवा से प्राप्त प्राकृतिक ऊर्जा के प्रयोग आदि पर इन दिनों बहुत जोर ‍िदया जा रहा है। ‍िदन-प्रतिदिन गर्माती धरती ने दुनियाभर में पारिस्थितिकी जानकारों और पर्यावरण प्रेमियों को चौकस कर ‍िदया है, कुछ हद तक आम लोगों को भी क्योंकि परिणाम तो सभी को भुगतना है सिर्प विशेषज्ञों को नहीं। हाँ विशेषज्ञों का काम आम लोगों को वस्तुस्थिति समझना है जो ‍िक वे अपने-अपने तरीके से कर ही रहे हैं।

भारत में जल, वृक्ष, वन आदि के प्रति प्रेम और संरक्षण धर्म के माध्यम से और संस्कृति में गूँथकर समझाया गया। इस वजह से वृक्ष आम पुरुष ही नहीं आम स्त्री के लिए भी आदरणीय रहे। वे उन्हें सींचती-पूजती भी रहीं। प्राचीन पारंपरिक भारतीय जीवन में तो जीवन की चार में से दो अवस्थाएँ ही वनों में बिताने की कल्पना है। ब्रह्मचर्य यानी प्रकृति के गोद में बसे गुरु आश्रम में शिक्षा-दीक्षा और वानप्रस्थ तो नाम से ही स्पष्ट है। पुराणों में अपने व्यक्तिगत बागीचे में पंचवटी लगाने को भी स्वर्ग के समान कहा गया है। पंचवटी के पाँच पेड़ बताए गए हैं- पीपल, बरगद, बिल्व पत्र, अमालका व अशोक। ये पाँचों पेड़ फलदार और छायादार हैं। अग्निपुराण में वृक्षारोपण व वृक्ष रक्षा को आत्मा का उद्धारक बताया गया है। श्रीमद्‍ भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने अश्वत्थ यानी पीपल की महिमा बताई है। बुद्ध की माँ ने साल वृक्ष की डाली पकड़े-पकड़े बुद्ध को जन्म दिया, तो बुद्ध ने बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त किया। सीता ने अशोक वृक्ष के नीचे विरह के दिन काटे तो बुद्ध की माँ को अशोक वृक्ष के नीचे यह इलहाम हुआ ‍िक वे एक महान संतान को जन्म देने वाली हैं। दक्षिण के कई गाँवों में बरगद ग्राम-रक्षक माना जाता रहा है।

तात्पर्य यही कि भारतीय पारंपरिकता में वृक्षों की महिमा कई तरीकों से बताई गई है, जरूरत पड़ने पर वृक्ष विशेष का नाम लेकर भी। जल स्रोत भी इसी तरह हमेशा से पूजित रहे हैं। ऋषि-मुनियों ने आम व्यक्ति को भले पुण्य के नाम से ही सही जल, प्रकृति और वृक्ष से हमेशा जोड़ा।

अब हम एक अलग ही युग में हैं। यह मशीनों का युग है, रफ्तार का युग है। इस युग में हम विकास के नाम पर हजारों वृक्षों की बलि ले रहे हैं, वनों को साफ किया जा रहा है, जल को प्रदूषित किया जा रहा है। मनुष्य जो कर रहा है वह उसे भरना भी पड़ेगा। भारतीय दर्शन में इसे कर्म और कर्मफल कहा जाता है। इसी तर्ज पर, कार्बन-फुटप्रिंट के आधार पर हम नए शब्द को ईजाद कर सकते हैं- 'कार्बन-कर्मा'। इस कार्बन-कर्मा का हिसाब-किताब यह है कि आप पेड़ काटते हैं, प्रदूषण फैलाते हैं, पर्यावरण को दूषित करने की जो भी हरकत करते हैं तो आप 'कार्बन-पाप' करते हैं। आप पेड़ लगाते हैं, पेड़ सींचते हैं, पेड़ों की रक्षा करते हैं, जल और ऊर्जा की बचत करते हैं तो आप कार्बन-पुण्य करते हैं। तो बस जल्दी से आप मन ही मन एक 'चित्रगुप्त-डायरी' बना डालिए और उसमें अपने कार्बन-कर्मों का ब्योरा रखिए। अपने कार्बन-पाप और कार्बन-पुण्य के हिसाब से आपको 'कार्बन क्रेडिट' अर्थात कार्बन-कर्मफल प्राप्त हो जाएगा।

चलते-चलते : कार्बन-पुण्य का एक उदाहरण-उत्तराखंड में विदा होती बेटी जब मायका छोड़कर जाती है तो घर छोड़ने के पूर्व एक पौधा रोपती है। बाद में बेटी का परिवार उसकी अमानत समझकर पेड़ को सींचता, संरक्षित करता है। 1995 में कल्याणसिंह नामक एक व्यक्ति ने यह विचार दिया। तब से यह रस्म-सी बन गई।

- निर्मला भुराड़िया

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

आगाह करे ओसामा

अपनी बात

निर्देशक सिद्दीक बरमाक ने अफगानिस्तान के उस समय के हालात पर एक फिल्म बनाई है, जब अफगानिस्तान पर तालिबान कट्‍टरपंथियों ने कब्जा कर रखा था। पूरी तरह अफगानिस्तान के असल लोकेशन पर शूट की गई फिल्म 'ओसामा'में हम उन हालात से पर्दे पर रूबरू होते हैं जो हमने अक्सर पढ़े-सुने थे। कैमरा तालिबान कब्जे के उस काल में ले जाता है, जो कि हमारे बहुत नजदीक का अतीत है, जहाँ औरतों के घर से बाहर निकलने पर बंदिश है। बाहर जाना हो तो पिता, भाई, पुत्र, पति जैसा कोई नजदीकी रिश्तेदार साथ में होना आवश्यक है। औरतों के घर के बाहर कार्य करने पर बंदिश है। औरतों के ऐसे किसी भी पुरुष से बात करना वर्जित है जो उनका संबंधी न हो। औरतों के लिए जरूरी है कि वे सिर से पाँव तक बुरके में कैद हों। उनके नाखून तक न दिखें। फ्रेम-दर-फ्रेम ये हालात स्पष्ट होते हैं, ये बंदिशें दिखती हैं और इनके उल्लंघन के लिए तय क्रूर सजाएँ भी। चूहादानी जैसे पिंजरों में कैद कर ले जाई जातीं बुर्कानशीं औरतें, ढोरों की तरह हाँककर तालिबान बनने का प्रशिक्षण देने ले जाए जाते लड़के। धार्मिक स्कूल में धर्म की आड़ में किशोरों का ब्रेनवॉश आदि।

किशोर सुलभ नटखटपन में पेड़ पर चढ़कर खेलने वाले बच्चे को अंधे कुएँ में गिर्री से लटकाने की क्रूर सजा आदि दिल को चीरती है। उन‍ दिनों तालिबान में अफगानिस्तान में कुफ्र कहकर नाचने-गाने पर भी पाबंदी लगा रखी थी। अत: एक दृश्य यूँ आता है। एक घर में स्त्रियाँ शादी का नाच-गानाकर रही हैं, खा-पी रही हैं। भनक लगने पर एक तालिबानी आ जाता है कड़क स्वर में पूछता है कि यहाँ क्या चल रहा है। घर का एक पुरुष दरवाजा खोलकर जवाब देता है घर में मौत हो गई है। इस बीच सभी औरतों ने फुर्ती से बुरका डाल लिया है, ढोल-मंजीरे बंद कर वे समूह में रोने बैठ गई हैं। उन्हें मातम मनाते देख संतुष्ट तालिबान चला गया है।

उपरोक्त हालात में फिल्म की बारह वर्षीय नायिका, उसकी माँ, उसकी नानी भूखे मर रहे हैं, क्योंकि उनके घर में कोई पुरुष नहीं है। सब युद्ध में मर गए। उधर औरतों का कुछ भी करना मना है। ऐसे में बच्ची, लड़के (ओसामा) का वेश धरकर चाय की गुमटी पर काम करने जाती है ताकि पारिश्रमिक के तौर पर शाम को 'रोटी' ला सके। बच्चा बनी बच्ची के तौर-तरीकों को तालिबान शंकास्पद निगाहों से तो देख ही रहे होते हैं कि एक दिन राज खुल भी जाता है। तालिबान की नजर में लकड़ी से बहुत बड़ा अपराध हो गया है और बारह साल की बच्ची तीसरी पत्नी के तौर पर सत्तर साल के मुल्ला को सौंप दी जाती है। तालिबान की नजर में यह न्याय हैं। पुरुष का बुढ़ापे में तीसरी शादी करना भी धर्मोचित है, स्त्री का रोजगार के लिए घर से बाहर निकलना भी गुनाह!

इस फिल्म के बहाने कट्‍टरपंथ की क्रूरताओं पर नजर डाली जा सकती है। यह किसी एक ही धर्म की बात नहीं है। एक खास प्रकार की जड़, निष्‍ठुर, स्वार्थी मानसिकता की भी बात है, जो इस काल में एक धर्म में चाहे ज्यादा दिखाई पड़ रही हो पर बाकी भी इससे अछूते नहीं हैं। कट्‍टरपंथी जहाँ भी जिस भी धर्म में या जिस भी समाज में हैं वे अपने स्वार्थों के लिए धर्म की ऊलजलूल और अपने स्वार्थ की सिद्धि करने वाली व्याख्याएँ कर रहे हैं। संस्कृति, परंपरा और मर्यादा की दुहाइयाँ देकर अपना उल्लू साध रहे हैं। अत: 'ओसामा' जैसी फिल्में कट्‍टरपंथ का हश्र क्या होता है, कट्‍टरपंथ के बीच आम ना‍गरिक की क्या स्थिति होती है, इस बात के प्रति आगाह करती है। जब रूढ़िवाद और कट्‍टरपंथ धीरे-धीरे आम लोगों को अपनी गिरफ्‍त में ले रहा हो तब पता नहीं चलता। अजगर के पेट में चले जाने के बाद पता चल भी जाए तो कुछ हो नहीं सकता। मगर अक्सर हम धीरे-धीरे बढ़ रहे, आहिस्ता-अहिस्ता अपनी चपेट में ले रहे रूढ़िवाद का विरोध करने के बजाय उल्टे उसमें बहने लगते हैं। उधर हरियाणा में गोत्र के नाम पर जाति पंचायतों ने खून-खराबाकिया और इधर एक टीवी सीरियल के विज्ञापन में शादी के लिए उम्र, कद, जाति के साथ ही 'गोत्र' शब्द भी जोर-शोर से चमकने लगा! या यूँ कहें कि विशेष तौर पर जोड़ लिया गया। यह गलत प्रवृत्तियों और कट्‍टरपंथ को बढ़ावा देना नहीं तो और क्या है? आज के जमाने की पढ़ी-लिखी भारतीय स्त्रियों को और सामाजिक तौर पर जागरूक पुरुषों को ऐसी बातों का विरोध करना चाहिए, न‍ कि रूढ़िवाद में और लिप्त होना चाहिए। आम आदमी को क्रमश: चाशनी में लपेटते हुए चढ़े बिना रूढ़िवाद चरम पर नहीं पहुँच सकता।

- निर्मला भुराड़िया

जब धर्मालु हो जाएँ झगड़ालू!

अपनी बात

इंदौर का एक मंदिर, जो मनौतियों के लिए बहुत प्रसिद्ध है, वहाँ लोग मनौती पूरी होने के लिए धार्ग, नारियल आदि बाँधते हैं। और भी तरह-तरह के टोटके करने वालों की इस मंदिर में भीड़ रहती है, जिनके तहत कोई दीवार पर लड्‍डू चिपका देता है तो कोई दीवार पर उलटा सातिया मांड देता है, तो कोई दीवार पर गोबर लगाकर उस पर प्रसाद चिपका देता है! ढेर सारे लोग जब मंदिर की दीवार के साथ यह सुलूक करते होंगे तो दीवार, गलियारे आदि में गंदगी का क्या आलम होता होगा- इसकी कल्पना की जा सकती है। फफूँद और मक्खियों का साम्राज्य, गंदगी की चिपचिप,मुट्‍ठियों में बंद प्रसाद के संग मिला पसीना, कटे नारियल के सिर,कहीं किन्हीं भगवानजी का अभिषेक हुआ हो तो दही, शहद, आम्ररस आदि-इत्यादि पैरों में आते खाद्य पदार्थ! क्या यह पूजा स्थल कहाए? मंदिर के बाहर बिकने वाले प्रसाद की दुकानों में भी पहले बासी, फफूँद लगा,भगवान के यहाँ से घूमकर पुन: दुकान में आया, बदबू वाला प्रसाद भी पाया गया। इन्हीं सब बातों के मद्देनजर प्रशासन ने मंदिर की दीवार पर लड्‍डू, गोबर इत्यादि लगाने पर रोक लगा दी। और लीजिए धर्मालु (?) झगड़ालू हो गए, प्रतिबंध हटाने के लिए धर्म की दुहाई देने लगे। यह दोष देने लगे कि धर्म के काम पर रोक लगाई जा रही है!

सवाल यह उठता है कि धर्म के नाम पर कब तक हम पाखंड और कर्मकांड को प्रश्रय देंगे? धार्मिक शुचिता के नाम पर हम दुनियाभर की छूत-छात पालते रहे हैं, मगर जब असल हाईजीन,असल पवित्रता का सवाल आता है, तो धर्म और रीति-रिवाज के नाम पर हम गंदगी का साम्राज्य फैला देते हैं। गंगा जैसी जीवनदायिनी नदी में लोग अधजली लाशें और मुर्दे बहा देते हैं। वो मुर्दे फूलकर सतह पर आ जाते हैं। उसी पानी में लोग किनारे पर कपड़े धोते हैं, पशुओं को नहलाते हैं, खुद भी पवित्र (!) डुबकी लगा लेते हैं। ठीक है जब ‍नदियाँ कलकल बहती थीं तो स्वच्छ-पवित्र भी होती थीं। लोग पानी में जाकर मृत व्यक्ति का 'जलदाग' करते थे तो देखते ही देखते मरगमच्छ मृत शरीर को ले जाते थे। एक किस्म का प्राकृतिक एवं पर्यावरण संतुलन था। मगर अब जबकि हमारे द्वारा की गई घोर अस्वच्छता और प्रदूषण के कारण छोटी-बड़ी नदियाँ मैली हो गई हैं तब उनमें क्या फूल सिरान और क्या मुर्दा बहाना? पवित्रता का मतलब ही बहाव है, यदि धर्म की रीतियाँ जमाने के प्रवाह में नई नहीं हुई हैं तो वे सड़ांध ही मारेंगी, दीवार पर चिपके मनौती के लड्‍डू की तरह! धर्म के नाम पर सड़ी-गली प्रथाओं से चिपके रहना कौन-सा धर्म है? यह तो अधर्म है, अपवित्रता है, हठ है, कूड़मगज भीरूता है।

प्रशासन यदि स्वच्छता की दिशा में कोई कदम उठाता है तो हमें विरोध करने के बजाय उसका समर्थन करना चाहिए। पूजा स्थल पवित्रता और शांति के स्थान होना चाहिए या गंदगी और स्वार्थप्रियता के? मगर हमारे यहाँ तो रिश्वत का पहला पाठ ही यहीं से शुरू हो जाता है कि हे भगवान,तू मेरा फलाँ-फलाँ काम करा देना तो मैं तुझे फलाँ-फलाँ राशि का प्रसाद चढ़ाऊँगा!
- निर्मला भुराड़िया

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

पवित्र गाय नाली में प्यास बुझाय!

अपनी बात

मध्यप्रदेश के एक शहर की एक कॉलोनी का नजारा करें। कॉलोनी के अधिकांश मकान बहुमंजिला हैं। एक प्लॉट खाली पड़ा है। वह खाली प्लॉट पूरी कॉलोनी का कचरा घर है। यह सुअर और आवारा कुत्तों का भी घर है। रात घिरते न घिरते एक और किस्म के प्राणी, झुंडों में, कॉलोनी में आ जाते हैं। यह हैं गायें। कॉलोनी के ही एक कोने में इन गाय पालकों के घर हैं। तो सांस्कृतिक भाषा में तो यह कहना चाहिए कि गोधूलि बेला (!) में गायें चरकर घर लौटती हैं, पर घर की बजाय वे आसपास की सड़कों पर खड़ी हो जाती हैं। सारी सड़क को गोबरमय कर देती हैं। ऊपर से बारिश हो जाए तो अजीब-सी गंध से पूरी कॉलोनी का सिर गंधाता है। कॉलोनी के लोग परेशान हो जाते हैं, पर कौन बोले? क्योंकि ये गैयाएँ किन्हीं छुटभैए नेता की अमानत हैं। वही गोपालक नेता, जिनके घर इस कॉलोनी के किनारे बने हैं। ये अमानत उनके घर दूध दुहने के लिए ले जाई जाती हैं फिर दिन में शहर में चरने एवं रात में कॉलोनी में विश्राम करने के लिए सड़कों पर छोड़ दी जाती हैं। पर, शहर में चूँकि खेत, खलिहान, चारागाह आदि तो हैं नहीं,अत: ये गाएँ कागज, प्लास्टिक, खाद्य-अखाद्य न जाने क्या-क्या चर कर घर लौटती हैं। आश्चर्य होता है कि यह सब चर कर गाय किस प्रकार का दूध देती होगी और यह दूध पी कैसे लिया जाता होगा? कॉलोनी की सड़क, प्लॉट, पशुओं आदि-इत्यादि को देखो तो एहसास होता है हम लोग कितने घृणित रूप से अस्वच्छ हैं!

इन आवारा गायों के खिलाफ कभी कोई अभियान सफल नहीं हो पाया। उसकी दो वजहें हैं। एक तो यह कि गोपालक राजनीतिक लोग हैं। वो कितनी भी गंदगी करें, उस गंदगी को हटाया नहीं जा सकता। उनकी गलत-सलत बातें भी उनकी पॉवरफुल मूँछों से बँध कर सुरक्षित हैं। दूसरी बात यह कि पॉवरफुल की मूँछ से गाय बाँध कर, गाय की पूँछ से हमने पवित्रता बाँध दी है। एक तोराजनीतिक ऊपर से पवित्र यानी गाय से संबंधित किसी भी बुराई की ओर ध्यान नहीं दिलाया जा सकता। 'पवित्र गाय' का धार्मिक विशेषण देकर उसके साथ खासी संवेदनशीलता को नत्थी कर दिया है। इतना कि 'गाय' का नाम लो तो दंगे हो सकते हैं। या जिनकी दंगा कराने की इच्छा हो वो 'पवित्र गाय' के बहाने दंगा भड़का सकते हैं। गाय के दूध के साथ ही गाय के साथ जुड़ी धार्मिक संवेदना को भी दुहते हैं। अत: जरूरी है कि यह भी देखा जाए कि गाय को पवित्र मानकर गाय के नाम पर दुनियाभर की माथा-पच्ची करने वाले स्वयं गाय के साथ क्या करते हैं? चलिए देखते हैं।

यह सभी जानते हैं कि दूध बछड़े के लिए होता है, उसे पीते हम हैं। खैर इस बात के भी अपने तर्क हैं कि बछड़े को पहले पिलाकर बचा हुआ दूध निकालते हैं या सृष्‍टि का भोजन चक्र ही ऐसा है कि हर प्राणी एक-दूसरे पर निर्भर है। यहाँ तक ठीक है, बिलकुल ठीक! लेकिन पिछले दिनों एक अजीब वाकया मालूम हुआ। एक गाय का बछड़ा मर गया था। गाय बछड़े की ममता में ही दूध देती है। बछड़े की मौत पर गाय दूध देना बंद न करे अत: एक गोपालक ने मृत बछड़े की खाल में रुई भर दी है। दूध दुहने के समय पर मृत बछड़े को गाय के समीप रख दिया जाता है। वह उसे चाटती है तो दूध उतरता है। गाय को दुह कर मरे हुए बछड़े को हटा लिया जाता है! इसी तरह घरों में आपको यह दृश्य दिखेगा कि थोड़ी देर पहले रोटी खानेवाली गाय थोड़ी देर बाद डंडा खाती है। पुण्य की आशा में रोटी खिलाई, पुण्य-वुण्य शायद मिल गया तो अब पवित्र गाय यहाँ-वहाँ मुँह मारने वाली आवारा गाय में तब्दील हो गई, सो इसे हकाला जा सकता है। गोवर्धन पूजा के दिन सजी-धजी गाय की पूजा करने के बाद भी 'हट्‍-हट्‍, जा यहाँ से' का मंत्र, डंडाध्वनि के साथ पढ़ने का पुराना रिवाज है, मगर यूँ कि हम हमारी पवित्र गाय के साथ कुछ भी करें,पर आप कुछ न कहो। गोमूत्र चिकित्सा पर कभी आप सवाल उठा दीजिए। लोग पवित्रता का हवाला देते हुए आपके पीछे पड़ जाएँगे। दुनिया में किसी भी औषधि के गुण-दोषों दोनों पर विचार किया जा सकता है,पर गोमूत्र में पस सेल्स भी हो सकते हैं, इस आशंका पर आपको चुप्पी साधना होगी, क्योंकि गोमूत्र के बारे में तो शुभ-शुभ ही बोलना है। गुण गा सकते हैं तो गाइए नहीं तो चुप रहिए। गोमूत्र व्यवसायी आमजन की इस धर्मभीरूता का बहुत फायदा उठाते हैं।

समयानुसार चीजों की पुनर्व्याख्या न करने के कारण और भी विसंगतियाँ होती हैं। जैसे किसी ज्योतिषी ने बताया कि गाय को चारा खिलाओ पुण्य मिलेगा, तो इन पुण्याकांक्षियों के लिए व्यवस्था आपको शहर में कहीं न कहीं मिल जाएगी। जहाँ एक व्यक्ति ढेर-साचारा लिए बैठा होगा,पास में उसी की गाय बँधी होगी। पुण्याकांक्षी जाएगा, चारेवाले से चारा खरीदेगा और पास खड़ी उसी की गाय को खिला देगा। लीजिए मिल गया रेडीमेड पुण्य (ज्योतिषियों के बढ़ते प्रभाव को देखकर संदेह है कि आधुनिक मॉल्स में ही कहीं पुण्याकांक्षियों के लिए चारा सेंटर न खुल जाएँ, जहाँ अमेरिकी काऊ बॉय के ड्रेसअप में गोपालक गाय के संग खड़े हों!)। अच्छा पता है, यह 'सौभाग्य' से प्राप्त हुआ चारा खाकर पवित्र गौमाता प्यास बुझाने कहाँ जाएँगी? बताने के लिए कोई इनाम नहीं है। मूत्रालयों की सड़क किनारे के गड्‍ढों में आपने मानव-मूत्र के पोखरों में मुँह डाले खड़ी गायों को देखा होगा! क्या इससे गाय की पवित्रता खंडित नहीं होती? क्या सही आलोचनाओं से ही गाय की पवित्रता खंडित होती है?

- निर्मला भुराड़‍िया

संतों की तू-तू, मैं-मैं धर्मालुओं की रोटा-पानी!

अपनी बात

एक प्रसि‍द्ध संतजी (?) का बेटा भी संतगिरी में आ गया है गोया यह कोई पुश्तैनी व्यवसाय हो! वैसे है तो व्यवसायही जिसमें अपार धन और शोहरत है। संत होने के लिए छोड़ना भी कुछ नहीं है सुख-सुविधा, आडंबर, अहंकार कुछ भी नहीं। उल्टे लोग पैर छू-छूकर अहंकार को पोषित करेंगे, तृप्त करेंगे। जिन समाजों के संतों ने विलास के साधन छोड़े,अहंकार तो उन्होंने भी नहीं छोड़े हैं। पिछले दिनों ही संतों की तू-तू, मैं-मैं हो गई थी इस बातर पर कि कौन ऊँचे पाटे पर बैठा, कौन नीचे पर। एक संत ने दूसरे संत पर करोड़ों रुपए जुटाने की मंशा का आरोप लगाया। कोई संत गुस्से में समारोह छोड़ गए, तो कोई रूठ गए इस बात पर कि फलाँ विधि से मूर्ति का अभिषेक क्यों नहीं हुआ। संतों की यह लट्‍ठम-लट्‍ठा और धर्मालुओं के कर्मकांड देखकर तो ऐसा लगता है समाज में कोई समस्या ही नहीं रह गई और समय काटने के लिए बच्चों की रोटा-पानी की तरह बड़े लोग धर्म-धर्म खेल रहे हैं। उक्त आयोजनों में कर्मकांड में शामिल होने के लिए हजारों की संख्या में श्रद्धालु उपस्थित होते हैं, जो अपनी संवेदना और आँसू पत्थरों पर खर्च करते हैं। अखबारों में पंक्तियाँ होती हैं- अभिषक देखकर हजारों की आँखें धन्य हो गईं, नम हो गईं। जनता तो जनता,नेताओं के कर्मकांडी होने का यह आलम है कि पिछले दिनों गाँधीजी की मूर्ति को भी दूध से धो दिया। खुद दूध के धुले बनने पर शायद ही किसी ने ध्‍यान दिया हो।

चलिए अब एक दूसरे प्रकरण की तरफ आएँ जो इससे बिलकुल ही अलग दुनिया का है, भले ही उनके बाशिंदे एक ही देश के हों। किस्सा यूँ है कि गाँव की एक स्त्री बच्चादानी निकलवाने का ऑपरेशन करवाने इंदौर आई थी। यह तय था कि किस अस्पताल में उसका युटेरस निकाला जाएगा, कौन डॉक्टर ऑपरेशन करेगा, गाँव के डॉक्टर ने ही उसे बताकर भेजा था कि फलाँ अस्पताल में फलाँ डॉक्टर के पास ही जाना है। किस्मत से स्त्री के पति को एक पढ़ा-लिखा,संवेदनशील शहरी मिल गया। उस शहरी को दाल में कुछ काला लगा तो उसने उन ग्रामीणों को, जो ऑपरेशन के लिए काफी रकम जुटाकर आए थे, अपने एक मित्र चिकित्सक के पास भेजा। मित्र चिकित्सक ने जाँच करवाई तो पता चला युटेरस निकालने की कतई आवश्यकता नहीं थी। इन चिकित्सक महोदय ने मानवीयता बरतते हुए ईमानदारी से बता दिया कि ऑपरेशन की रिकमेंड फिजूल थी। ग्रामीणों से और बात करने पर पता चला कि यह एक केस नहीं है, गाँव का चिकित्सक, शहर के चिकित्सक से मिला हुआ है और गाँव में कई महिलाओं को बिना बात ही ऑपरेशन रिकमेंड करता है। बाईस-पच्चीस साल की युवतियों की कोख भी इस तरह निकलवाई जा चुकी है।

यह तो सिर्फ एक किस्म का ही उदाहरण है। निर्धनों, अर्द्धशिक्षितों, अशिक्षितों, ग्रामीणों के स्वास्थ्य चेतना का अभाव है। इस बारे में चेतना अभियान चलाना अन्य शहरी, शिक्षित नागरिकों के एजेंडा पर नहीं है। शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, सड़क, पानी ये सब तो कोरे शब्द रह गए हैं,जो चुनावी, राजनीतिक नारों के रूप में ही काम आते हैं। समृद्ध, संपन्नजन चाहें वे नागरिक हों या नेता धर्म की जय करने में लगे हैं। मानव धर्म की जय करने में न उनकी रुचि है, न फुर्सत।

- निर्मला भुराड़‍िया

सोमवार, 5 जुलाई 2010

जरा सोच-समझकर बोलना महाराज!

अपनी बात

योरपीय संघ में भविष्यवाणी करने वाले लोग उपभोक्ता संरक्षण कानूनों के दायरे में जाएँगे। इससे उन्हें अपने कथन की जिम्मेदारी भी लेना होगी। किसी का दावा गलत निकला तो जजमान कोर्ट में भी जा सकेगा! भारत में यह दिन दूर है। या कहें दूर-दूर तक ऐसी कोई योजना नहीं है कि 'फेंक-फाँक' को व्यवसाय बनाने वाले बाज आएँ। अत: हमारे यहाँ अटकल बाजी को बाजार बनाने वालों की जमात मौजूद है। वो भी कई रूपों में। कोई कपाल पर भविष्य पढ़ता है, कोई हथेली में, कोई कुंडली में, तो कोई लक्षणों में। भारतीय पद्धतियों के साथ ही,हमारे यहाँ भविष्य आकलन की कई विदेशी पद्धतियाँ भी चल पड़ी हैं। टैरट कार्ड, फेंगशुई, रुन्स, क्रिस्टल बॉल वगैरह-वगैरह। यह सिर्फ मन बहलाव का ही साधन होता तो भी समझ लिया जाता कि भई ठीक है, अपनी-अपनी मान्यता या समझ है। परंतु फेंक-फाँक अधिकाधिक भारतीयों को निकम्मा बना रही है और भाग्य-निर्भर भी। इससे भी बड़ी मुश्किल तो यह है कि भविष्य बताने, फिर उसे तथाकथित रूप से सुधारने का व्यवसाय ठगी का एक बहुत बड़ा जाल बन गया है। तंत्र-मंत्र, पूजा-पाठ, समस्या उपाय के समाधान के नाम पर लोग समय, पैसा और अपनी मानसिकता जमकर खराब कर रहे हैं। व्यवसायी ठग तरह-तरह के रूपों में आते हैं। कोई शनि महाराज के काले कपड़े पहनकर शनि की दशा ठीक करने का दावा करता है, तो कोई पाठ बिठाने का पैसा लेता है। नारियल, अगरबत्ती भी खुद ही बेच देता है। बड़े-बड़े पंडित टेलीविजन में एयरटाइम पा गए हैं या ज्योतिष की फाइव स्टार दुकानों में सेलिब्रिटीज का भाग्य बाँचते हैं। निश्चित ही वे केवल भाग बाँचकर नहीं रह जाते, 'स्टार' उनका स्थायी 'कस्टमर' हो जाता है और दाएँ मुड़ना भाग्य के लिए अच्छा है कि बाएँ मुड़ना उनसे पूछकर ही मुड़ता है। ये 'गद्गद्गुरु' जगत गुरु की पदवी भी ऑटोमेटिक ही पा जाते हैं साथ ही भोली जनता की भी श्रद्धा के केन्द्र हो जाते हैं, क्योंकि वे उनके रोल मॉडल के भी गुरु हैं। अत: बीच के दौर में पुरातनपंथी मानी जाने वाली यह विधा अब आधुनिक (?) मानी जाने लगी है। और चिकने पन्ने वाली अँगरेजी पत्रिकाओं से लेकर टीवी चैनल और अखबारों तक सारे माध्यम भाँति-भाँति के भविष्य वक्ताओं और भाँति-भाँति के भविष्यवाणी के तरीकों से भरे पड़े हैं, जिनमें यह तक बताया जाता है कि किसी राशि के व्यक्ति को क्या खाना चाहिए, कौन से रंग के वस्त्र पहनना चाहिए। शायद वे थोड़े दिन में यह भी बताने लगें कि किस राशि के व्यक्ति को किस डिजाइनर का डिजाइन किया वस्त्र पहनना शुभ रहेगा। तब शायद डिजाइनरों से भी उनका कमीशन बँध जाए!

कोई यह पूछ सकता है कि इसमें क्या नुकसान है? नुकसान यह है कि हम चिंतकों और समाज सुधारकों के बजाय बहुरूपियों और धंधेबाजों में गुरु और मार्गदर्शक ढूँढने लगे हैं। वे भी आपको ऐसी स्थिति में पकड़ते हैं, जब आप 'मरता क्या करता' वाले हालात में होते हैं और ग्रहदशा ठीक करने के नाम पर कुछ भी पैसा खर्च करते हैं। बाबाओं और तांत्रिकों के चक्कर में आकर लोग कुछ भी ऊलजलूल, उल्टा-सीधा करने को तैयार हो जाते हैं। बच्चों की बलि देने के किस्से भी हिन्दुस्तान में होते हैं, सिर्फ इसलिए कि किसी तांत्रिक ने बता दिया था। चौराहे पर टोटके रखना, कुत्ते को इमरती खिलाना,किसी का कुछ बिगाड़ने के लिए मूठ रखवाना जैसे अजीब और ईर्ष्यालु धंधे भी लोग इसी वजह से करते हैं। और सच तो यह है कि अपना भविष्य सुधारने के लिए कर्म करने के बजाय इन्हीं सब गोरखधंधों में लग जाते हैं। और हाँ, अपना अच्छा करने से ज्यादा चिंता इन्हें दूसरों का बुरा करने की होती है। यह सब अंधविश्वास, असुरक्षित मानसिकता, निकम्मेपन, मूर्खता, ठगी का एक ऐसा जाल है, जिसे तोड़ना आवश्यक है। तो क्यों पहली कड़ी में इन तथाकथित भविष्य वक्ताओं को ही लाया जाए,जिन्हें बोलने के पहले दस बार सोचना पड़े कि वे क्या बोल रहे हैं? जनता को तो भ्रमित मनोवस्था से निकलने की आवश्यकता है ही। हिन्दुस्तान को इस वक्त ज्ञान जागरूकता की आवश्यकता है, अंधविश्वास या भाग्य निर्भरता की नहीं। हमारा मूलमंत्र 'खुद पर भरोसा है' होना चाहिए 'पता नहीं भाग में क्या बदा है' होने की बजाय। हमें असुरक्षा की धुक-धुक नहीं, आत्मविश्वास की ऊर्जा चाहिए। समस्या समाधान की दिशा में कर्म ही काम आता है।

- निर्मला भुराड़‍िया

रविवार, 4 जुलाई 2010

क्यों रोते हो भगवानजी?

अपनी बात

एक स्त्री ने छू दिया... और हनुमानजी रो पड़े। रोते हुए हनुमानजी को दिखाने के लिए टीवी चैनल पिल पड़े। 'चमत्कार, चमत्कार', भावविभोर दर्शक दीदे फाड़-फाड़कर टीआरपी (दर्शक संख्या की रेटिंग) बढ़ाने लगे। कुछ काम-धाम छोड़कर पूजा-पाठ में मगन हो गए, तो कुछ रोते भगवानजी को देखने के लिए भीड़ लगाने लगे, धक्का-मुक्की करने लगे। भारत में इन दिनों यह 'ऊलजलूल डॉट कॉम' बहुत चल रहा है। कुछ कह भी नहीं सकते भगवान की, धर्म की निंदा कर दी कहकर तथाकथित श्रद्धालु, धार्मिक आपके गले पड़ जाएँगे। जबकि उनके लगे तो हमको पड़ना चाहिए कि भैया आपकी आस्था की रक्षा तो इसमें है किआपको रोना आए तो आपके भगवानजी आपको बल दें, कि खुद रो पड़ें। मगर इधर धर्म का काम आस्था बढ़ाना है कहाँ? धर्म की ड्यूटी मजमा जुटाने,भोले धर्मालुओं को प्रवचन की अफीम खिलाकर दुनिया के गुलगपाड़ों से दूर रखने की हो गई है, ताकि उन्हें न्याय की माँग, सामाजिक जागरूकता से दूर रखा जा सके। इसलिए सिर्फ हनुमानजी ही नहीं रोते, कभी कोई चरण पादुका अपने आप चल पड़ती है, कभी कोई नागिन प्रकट हो जाती है। 'दु:खों की खान है भौतिक सुख' कहने वाले प्रवचनकार करोड़पतियों की जीवन शैली जीते हैं। भरपूर सुख-संपदा जुटाते हैं। चूँकि हम धर्म का मामला हो तो जायज (नाजायज) मुद्दों में भी ऐतराज नहीं उठाते। धर्म शब्द आगे जुड़ गया हो तो गलत बात की निंदा से भी डरते हैं। अत: धरम के नाम पर बुरे करम करने वालों को हरी झंडी मिल जाती है। आप ऐसे लोगों के हौंसले देखिए, तिरुपति में एक व्यक्ति भगवान को पचास लाख रुपए के नकली नोट चढ़ा गया! क्या कहें गुरु, भगवान को ही चला रहे हो? सच तो यह है जब हम वंचित को उपेक्षित कर भगवान को दूध-स्नान करवा रहे होते हैं तब हम भी भगवान को चला रहे होते हैं।

यह ठीक है कि इंसान जब-जब हार जाता है, अपनी दुनियावी शक्तियों के जरिए दु:खों से पार नहीं पा सकता, तब वह उच्च शक्तियों की शरण में जाकर राहत महसूस करता है। कहीं कोई है,जो न्याय का पक्ष लेगा, दर्द से उसका त्राण करेगा यह बात उसे साहस देती है। यह एक सकारात्मक आस्था हो सकती है। लेकिन ऐसा होता नहीं है। धर्म विश्वास के बजाय अंधविश्वास में तब्दील हो जाता है। हम यह सोचने लगते हैं धर्म एक शॉर्टकट है, जिसकेजरिए बगैर किए ही सब-कुछ हो जाएगा। चमत्कारों पर भरोसा, अकर्मण्यता का स्वीकार, चुनौतियों से पलायन, ऊपरी शक्तियों पर दैनंदिन निर्भरता, जीवन संघर्ष से बचने के लिए धर्म कीरेत में मुँह छुपाने का शुतुरमुर्गीपन इत्यादि बढ़ाने के लिए हमारे पास रूढ़िवादी, कट्टरपंथी,निहित स्वार्थी बैक्टीरियाओं की पूरी फौज तैयार है, जो भोले-भाले लोगों को संक्रमित कर अपनी कॉलोनी बढ़ा रहे हैं। और इन भोले लोगों में स्त्रियों की संख्या अधिक है। क्योंकि इक्कीसवीं सदी में भी उन्होंने अपने जागरूकता का घेरा सीमित रखा है। जिसमें कामकाजी और डिग्रीधारी स्त्रियाँ भी शामिल हैं, इस बात का बुरा माने बगैर वे डिग्रियों के साथ ही चेतना, ज्ञान और सामान्य जागरूकता भी बढ़ाएँ तो समाज के पुनर्निर्माण में बेहद मददगार हो सकती हैं। क्योंकि माहौल ऐसा हो गया है कि कर्म पर विश्वास, मानवता पर विश्वास, इंसानी क्षमताओं पर विश्वास घटाने के लिए हम हर चोट कर रहे हैं। प्रयत्न के ऊपर चमत्कारों को तरजीह, मनोबल के ऊपर बाहरी शक्तियाँ जुझारूपन के ऊपर पलायन... शायद यही देखकर हनुमानजी को रोना गया! उन्हें पता है इंसान कुछ करता-धरता तो है नहीं, 'सुनियो अरज हमारी' कहता अभी इधर ही धमकेगा!

- निर्मला भुराड़‍िया