एक स्त्री ने छू दिया... और हनुमानजी रो पड़े। रोते हुए हनुमानजी को दिखाने के लिए टीवी चैनल पिल पड़े। 'चमत्कार, चमत्कार', भावविभोर दर्शक दीदे फाड़-फाड़कर टीआरपी (दर्शक संख्या की रेटिंग) बढ़ाने लगे। कुछ काम-धाम छोड़कर पूजा-पाठ में मगन हो गए, तो कुछ रोते भगवानजी को देखने के लिए भीड़ लगाने लगे, धक्का-मुक्की करने लगे। भारत में इन दिनों यह 'ऊलजलूल डॉट कॉम' बहुत चल रहा है। कुछ कह भी नहीं सकते भगवान की, धर्म की निंदा कर दी कहकर तथाकथित श्रद्धालु, धार्मिक आपके गले पड़ जाएँगे। जबकि उनके लगे तो हमको पड़ना चाहिए कि भैया आपकी आस्था की रक्षा तो इसमें है किआपको रोना आए तो आपके भगवानजी आपको बल दें, न कि खुद रो पड़ें। मगर इधर धर्म का काम आस्था बढ़ाना है कहाँ? धर्म की ड्यूटी मजमा जुटाने,भोले धर्मालुओं को प्रवचन की अफीम खिलाकर दुनिया के गुलगपाड़ों से दूर रखने की हो गई है, ताकि उन्हें न्याय की माँग, सामाजिक जागरूकता से दूर रखा जा सके। इसलिए सिर्फ हनुमानजी ही नहीं रोते, कभी कोई चरण पादुका अपने आप चल पड़ती है, कभी कोई नागिन प्रकट हो जाती है। 'दु:खों की खान है भौतिक सुख' कहने वाले प्रवचनकार करोड़पतियों की जीवन शैली जीते हैं। भरपूर सुख-संपदा जुटाते हैं। चूँकि हम धर्म का मामला हो तो जायज (नाजायज) मुद्दों में भी ऐतराज नहीं उठाते। धर्म शब्द आगे जुड़ गया हो तो गलत बात की निंदा से भी डरते हैं। अत: धरम के नाम पर बुरे करम करने वालों को हरी झंडी मिल जाती है। आप ऐसे लोगों के हौंसले देखिए, तिरुपति में एक व्यक्ति भगवान को पचास लाख रुपए के नकली नोट चढ़ा गया! क्या कहें गुरु, भगवान को ही चला रहे हो? सच तो यह है जब हम वंचित को उपेक्षित कर भगवान को दूध-स्नान करवा रहे होते हैं तब हम भी भगवान को चला रहे होते हैं।
यह ठीक है कि इंसान जब-जब हार जाता है, अपनी दुनियावी शक्तियों के जरिए दु:खों से पार नहीं पा सकता, तब वह उच्च शक्तियों की शरण में जाकर राहत महसूस करता है। कहीं कोई है,जो न्याय का पक्ष लेगा, दर्द से उसका त्राण करेगा यह बात उसे साहस देती है। यह एक सकारात्मक आस्था हो सकती है। लेकिन ऐसा होता नहीं है। धर्म विश्वास के बजाय अंधविश्वास में तब्दील हो जाता है। हम यह सोचने लगते हैं धर्म एक शॉर्टकट है, जिसकेजरिए बगैर किए ही सब-कुछ हो जाएगा। चमत्कारों पर भरोसा, अकर्मण्यता का स्वीकार, चुनौतियों से पलायन, ऊपरी शक्तियों पर दैनंदिन निर्भरता, जीवन संघर्ष से बचने के लिए धर्म कीरेत में मुँह छुपाने का शुतुरमुर्गीपन इत्यादि बढ़ाने के लिए हमारे पास रूढ़िवादी, कट्टरपंथी,निहित स्वार्थी बैक्टीरियाओं की पूरी फौज तैयार है, जो भोले-भाले लोगों को संक्रमित कर अपनी कॉलोनी बढ़ा रहे हैं। और इन भोले लोगों में स्त्रियों की संख्या अधिक है। क्योंकि इक्कीसवीं सदी में भी उन्होंने अपने जागरूकता का घेरा सीमित रखा है। जिसमें कामकाजी और डिग्रीधारी स्त्रियाँ भी शामिल हैं, इस बात का बुरा माने बगैर वे डिग्रियों के साथ ही चेतना, ज्ञान और सामान्य जागरूकता भी बढ़ाएँ तो समाज के पुनर्निर्माण में बेहद मददगार हो सकती हैं। क्योंकि माहौल ऐसा हो गया है कि कर्म पर विश्वास, मानवता पर विश्वास, इंसानी क्षमताओं पर विश्वास घटाने के लिए हम हर चोट कर रहे हैं। प्रयत्न के ऊपर चमत्कारों को तरजीह, मनोबल के ऊपर बाहरी शक्तियाँ जुझारूपन के ऊपर पलायन... शायद यही देखकर हनुमानजी को रोना आ गया! उन्हें पता है इंसान कुछ करता-धरता तो है नहीं, 'सुनियो अरज हमारी' कहता अभी इधर ही आ धमकेगा!
- निर्मला भुराड़िया
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें