शनिवार, 10 जुलाई 2010

पेट खाली सिर पर दूध?

अपनी बात

एक सामूहिक भोज का आयोजन था। आयोजक-मेजबान भोजन करने वालों को मनुहार कर-करके परोस रहे थे 'एक और लड्‍डू हो जाए' शैली में! एक श्रीमतीजी के पास बैठी एक युवती मनुहार (?) में परोसा गया यह अतिरिक्त लड्‍डू छोड़कर उठने लगी तो श्रीमतीजी ने टोक ‍‍दिया-जूठा नहीं छोड़ते, पाप लगता है। युवती ने फिर आनाकानी की तो श्रीमतीजी ने अपना लेक्चर जारी रखा कि कुछ लोग तो भूखे मरते हैं, तुम जूठा छोड़ती हो। अपनी संस्कृति में तो जूठा छोड़ना बहुत बुरा माना जाता है, अन्न श्राप देता है वगैरह-वगैरह! युवती ने समझाने की कोशिश की कि दीदी वैसे मैं जितना चाहिए, उतना ही लेती हूँ, पर वो जबर्दस्ती परोस गए इसलिए थाली में ही छोड़ना पड़ रहा है, क्योंकि भूख तृप्त होने के बाद भोजन डस्टबीन में जाए या पेट में, एक ही बात है। श्रीमतीजी को युवती के इस उत्तर पर भी आपत्ति हुई कि उसने एक तो जूठा छोड़ा, ऊपर से मनुहार को जबर्दस्ती कहा! अत: उन्होंने नए जमाने की इस युवती को अपने तथाकथित संस्कार में प्रशिक्षित करने की ठानी और वे युवती को द्रोपदी के अक्षय पात्र की कहानी सुनाने लगीं कि कैसे उसमें चिपके हुए चावल के एक दाने से भरपूर चावल बन जाता था।

दरअसल, श्रीमतीजी ने जो कथा सुनाई वह दिलचस्प तो थी और संदेश देने वाली भी थी, मगर श्रीमतीजी ने स्वयं ने ही कथा को सिर्फ रटा भर था, समझा नहीं था, संदेश ग्रहण नहीं किया था। क्योंकि श्रीमतीजी अगले जिस कार्यक्रम में जाने वाली थी वह दुग्धाभिषेक का था! है न दोहरा मापदंड! अभी तो श्रीमतीजी और उनकी संस्कृति कह रही थीं अन्न का अपव्यय न करो और फिर उन्हीं की संस्कृति खाने-पीने की चीजों से प्रस्तर प्रतिमा का स्नान करवाएगी। सब्जियों-फलों के बंगले से भगवान की झाँकी लगाएगी! छ:क्विंटल आम के रस से मूर्ति का अभिषेक होगा। उनकी उसी संस्कृति में जहाँ जूठा छोड़ने से पाप लगता है,उनके उसी देश में जहाँ भूखे बच्चे दूध के लिए रोते हैं, वहाँ दूध, दही, शहद, आमरस से भगवान का अभिषेक! सोचिए क्या ऐसा करने पर पाप नहीं लगता? आत्मग्लानि नहीं होती? शायद नहीं होती, क्योंकि हमने धर्म को आत्मशुद्धि, आत्मग्लानि और मनुष्यता के स्तर पर नहीं सोचा सिर्फ कर्मकांड के तौर पर अपनाया है। हमारी संस्कृति में जो कुछ अच्छा है, उसे तर्कों के साथ माँजते भी चलें, जो कुछ होता आया है, उसे अंधश्रद्धा के साथ न अपनाएँ तो शायद संस्कृति का ज्यादा भला हो!

- निर्मला भुराड़िया

1 टिप्पणी:

  1. हमारे भूखे नंगे देश में ही यह हो सकता सकता हे .
    आपके लेखन कि हिम्मत को दाद देनी पड़ेगी .
    लेखन कटु सत्य हे .

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