कलंक नहीं मन की समस्याएँ
मनुष्य का मस्तिष्क अत्यंत जटिल बुनावट रखता है। कई छुपी हुई परतें और नलिकाएँ इसमें हैं तो कई रसायन भी इसके भीतर दौड़ लगाते रहते हैं। मस्तिष्क के रसायनों के खेल से ही हमारा आचार व्यवहार संचालित होता है, अगर यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यूँ तो सामान्य मनुष्य में सबकुछ ठीक-ठाक ही चलता है,मगर कभी-कभी प्रकृति दिमागी व्यवस्था में कोई पेंच डालकर भेजती है तो कभी परिस्थितियों की मार रसायनों का खेल बिगाड़ देती है। नतीजा होता है मनोरोग। मनोरोग होना एक जैविक-कुठाराघात है,यह रोगी का दोष नहीं है, न ही उसका उपराध। लेकिन, फिर भी भारत में लाखों की संख्या में मनोरोगियों की चिकित्सा इसलिए नहीं हो पाती कि परिवार वाले, अपने वाले व्यक्ति का रोग समाज से छुपाते हैं। इस चक्कर में उसे दबाते रहते हैं और रोग बढ़ता ही जाता है। अपने परिजन की बीमारी समझने और सत्य को स्वीकार करने में भी कई लोग कोताही करते हैं, वे समाज को और खुद को कैफियत देते रहते हैं कि नहीं हमारा व्यक्ति तो सामान्य है, उसे ऐसा कुछ नहीं है। इस तरह वे 'डिनायल मोड' में चले जाते हैं। वे स्वयं से झूठ बोलते हैं, खुद को धोखा देते हैं और मरीज का नुकसान करते हैं। मरीज के हित में कोई बाहरी व्यक्ति समझाइश देना चाहे तो मरीज तो ठीक ही है यह कैफियत देने के अलावा परिजन बुरा भी मान सकते हैं। परिवारजनों का यह रवैया मरीज पर दुर्भाग्य बनकर टूटता है, क्योंकि छुपाने और इलाज न करवाने की वजह से मरीज का रोग बढ़ता ही जाता है।
एक और तरह के परिजन होते हैं। ये वे लोग होते हैं, जिन तक चेतना पहुँची ही नहीं होती है। वे अपने मरीज को लेकर चिकित्सक के पास नहीं जाते, बल्कि झाड़-फूँक इत्यादि करवाते हैं। देवी आने से लेकर भूत चढ़ने या भूत-प्रेत नजर आने जैसे संदेह हजारों की संख्या में मरीजों को होते हैं। मरीज के ऐसे किसी भी दिमागी भ्रम से जूझने की व्यवस्था आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने की है, लेकिन लोग चिकित्सक के पास जाने की बजाय अंधविश्वासों की शरण में जाते हैं, जहाँ मरीजों के साथ अज्ञानतावश क्रूरतापूर्ण तरीके से तथाकथित इलाज किया जाता है। जैसे दक्षिण के एक मंदिर में मरीज द्वारा पेड़ पर कील ठुकवाई जाती हैं, वह भी मरीज के कपाल से ठोक-ठोककर। यहाँ मरीजों के माथे से खून निकलने लगता है, वे बेहोश होकर गिर जाते हैं। कहीं शरीर में आए भूत-प्रेत भागने के नाम पर मिर्ची की धूनी दी जाती है, कहीं पानी में सिर डुबोया जाता है तो कहीं मरीज का झोंटा पकड़कर खींचा जाता है और पिटाई की जाती है। इन सब चीजों से मरीज के ठीक होने का तो कोई सवाल ही नहीं, उसके हालात और बिगड़ जाते हैं। उसकी बीमारी नियंत्रण से बाहर हो जाती है।
हम जिस सदी में रह रहे हैं, उस सदी में मनोचिकित्सा विज्ञान ने काफी प्रगति कर ली है। मस्तिष्क के रसायनों को व्यवस्थित करने वाली औषधियाँ, मस्तिष्क की लहरों को दर्ज करने वाले उपकरण, व्यवहार चिकित्सा, परामर्श चिकित्सा, मरीज की विचार प्रक्रिया के पैटर्न समझने और उन्हें वैज्ञानिक तरीके से सुधारने वाली कॉगनीटिव थैरापी,पर्सनल थैरापी, ग्रुप थैरापी, आर्ट थैरापी आदि कई चीजों का सुसंगत मिश्रण करके मनोचिकित्सक इलाज करता है। अत: दिमागी परेशानी के मरीज की अच्छी चिकित्सा आज के युग में संभव है। आज हम इतने निरुपाय नहीं है कि झाड़-फूँक के अलावा कोई तरीका ही न बचे। न ही हमें इतना अज्ञानी होना चाहिए कि बाबा-ओझाओं की शरण में जाएँ।
काफी कुछ मानसिक परेशानियाँ इलाज से ठीक हो सकती हैं, कुछ जिद्दी मनोरोग हैं, वे नियंत्रित हो सकते हैं। दवा लेने और चिकित्सा करवाते रहने पर मरीज सामान्य जीवन जी सकता है और रोग के अधिक बढ़ जाने से बच सकता है, लेकिन चूँकि ऐसे रोगों में मरीज से बड़ी भूमिका परिवार और समाज की है। अत: समाज यह समझे कि मनोरोगी की अवस्था खिल्ली उड़ाने के लिए नहीं है।
परिवार मरीज के रोग पर झेंपे-शर्माए नहीं, उसे दबाए नहीं, बल्कि इलाज करवाए। मनोरोगी होना कोई अपराध नहीं, फिर ग्लानि क्यों? यह किसी की गलती नहीं, फिर शर्म क्यों? हाँ, यह हो सकता है कि मरीज चूँकि मरीज है, अत: वह दवा लेने और चिकित्सा करवाने में आना-कानी कर सकता है। इस आना-कानी को परिजन तवज्जो न दें और चिकित्सक से ही तरीका समझें कि ऐसे में मरीज को दवा कैसे दें। बस मरीज के इस व्यवहार को आड़ बनाकर चिकित्सा न रोकें। मरीजों को आपकी उपेक्षा, उपहास की नहीं, समझदारी, सहयोग और चिकित्सा की जरूरत है।
-निर्मला भुराड़िया
हमारे यहाँ के कुछ लोगों की मानसिकता ही ऐसी हैं... पर फिर भी अब सुधार आ रहा हैं इस सन्दर्भ में।
जवाब देंहटाएंमैं खुद भुक्तभोगी हूँ .मेरे दो परिचितों के बच्चों का जीवन ऐसे ही बर्बाद हो गया .सच कोई सुनना ही नहीं चाहता .सच बोला तो उन लोगों ने दूरी बना ली .शिक्छा का अभाव ही दोषी है .
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