अपनी बात
इंदौर का एक मंदिर, जो मनौतियों के लिए बहुत प्रसिद्ध है, वहाँ लोग मनौती पूरी होने के लिए धार्ग, नारियल आदि बाँधते हैं। और भी तरह-तरह के टोटके करने वालों की इस मंदिर में भीड़ रहती है, जिनके तहत कोई दीवार पर लड्डू चिपका देता है तो कोई दीवार पर उलटा सातिया मांड देता है, तो कोई दीवार पर गोबर लगाकर उस पर प्रसाद चिपका देता है! ढेर सारे लोग जब मंदिर की दीवार के साथ यह सुलूक करते होंगे तो दीवार, गलियारे आदि में गंदगी का क्या आलम होता होगा- इसकी कल्पना की जा सकती है। फफूँद और मक्खियों का साम्राज्य, गंदगी की चिपचिप,मुट्ठियों में बंद प्रसाद के संग मिला पसीना, कटे नारियल के सिर,कहीं किन्हीं भगवानजी का अभिषेक हुआ हो तो दही, शहद, आम्ररस आदि-इत्यादि पैरों में आते खाद्य पदार्थ! क्या यह पूजा स्थल कहाए? मंदिर के बाहर बिकने वाले प्रसाद की दुकानों में भी पहले बासी, फफूँद लगा,भगवान के यहाँ से घूमकर पुन: दुकान में आया, बदबू वाला प्रसाद भी पाया गया। इन्हीं सब बातों के मद्देनजर प्रशासन ने मंदिर की दीवार पर लड्डू, गोबर इत्यादि लगाने पर रोक लगा दी। और लीजिए धर्मालु (?) झगड़ालू हो गए, प्रतिबंध हटाने के लिए धर्म की दुहाई देने लगे। यह दोष देने लगे कि धर्म के काम पर रोक लगाई जा रही है!
सवाल यह उठता है कि धर्म के नाम पर कब तक हम पाखंड और कर्मकांड को प्रश्रय देंगे? धार्मिक शुचिता के नाम पर हम दुनियाभर की छूत-छात पालते रहे हैं, मगर जब असल हाईजीन,असल पवित्रता का सवाल आता है, तो धर्म और रीति-रिवाज के नाम पर हम गंदगी का साम्राज्य फैला देते हैं। गंगा जैसी जीवनदायिनी नदी में लोग अधजली लाशें और मुर्दे बहा देते हैं। वो मुर्दे फूलकर सतह पर आ जाते हैं। उसी पानी में लोग किनारे पर कपड़े धोते हैं, पशुओं को नहलाते हैं, खुद भी पवित्र (!) डुबकी लगा लेते हैं। ठीक है जब नदियाँ कलकल बहती थीं तो स्वच्छ-पवित्र भी होती थीं। लोग पानी में जाकर मृत व्यक्ति का 'जलदाग' करते थे तो देखते ही देखते मरगमच्छ मृत शरीर को ले जाते थे। एक किस्म का प्राकृतिक एवं पर्यावरण संतुलन था। मगर अब जबकि हमारे द्वारा की गई घोर अस्वच्छता और प्रदूषण के कारण छोटी-बड़ी नदियाँ मैली हो गई हैं तब उनमें क्या फूल सिरान और क्या मुर्दा बहाना? पवित्रता का मतलब ही बहाव है, यदि धर्म की रीतियाँ जमाने के प्रवाह में नई नहीं हुई हैं तो वे सड़ांध ही मारेंगी, दीवार पर चिपके मनौती के लड्डू की तरह! धर्म के नाम पर सड़ी-गली प्रथाओं से चिपके रहना कौन-सा धर्म है? यह तो अधर्म है, अपवित्रता है, हठ है, कूड़मगज भीरूता है।
प्रशासन यदि स्वच्छता की दिशा में कोई कदम उठाता है तो हमें विरोध करने के बजाय उसका समर्थन करना चाहिए। पूजा स्थल पवित्रता और शांति के स्थान होना चाहिए या गंदगी और स्वार्थप्रियता के? मगर हमारे यहाँ तो रिश्वत का पहला पाठ ही यहीं से शुरू हो जाता है कि हे भगवान,तू मेरा फलाँ-फलाँ काम करा देना तो मैं तुझे फलाँ-फलाँ राशि का प्रसाद चढ़ाऊँगा!
- निर्मला भुराड़िया
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