गुरुवार, 22 जुलाई 2010

महंगाई का काम खोटा अब बटुवा पड़े छोटा!


अपनी बात

सन्‌ १९७४ में एक फिल्म आई थी, रोटी, कपड़ा और मकान। फिल्म का शीर्षक ही आम व्यक्ति की रोजमर्रा की जिंदगी और उसकी कठिनाइयों से ताल्लुक रखता था। फिल्म प्रेमी आम जनता की नब्ज पर हाथ रखने के लिहाज से यह शीर्षक उस जमाने में उपयुक्त ही था। इस फिल्म में एक गाना भी था, जो महँगाई से त्रस्त आम आदमी की परेशानी को स्वर देता था। यह गाना था... "बाकी कुछ बचा तो महँगाई मार गई"। यानी व्यक्ति के पास बहुत सारे रोने थे, कोई कसर बाकी रहती थी तो वो महँगाई पूरी कर देती थी। यह उस जमाने का गाना है, जब दस पैसे का सिक्का अब भी चलन में था। यानी रुपए के दसवें टुकड़े में भी क्रयशक्ति थी। अधिकांश लोग पैदल, साइकल पर या ताँगे में चलते थे। यानी पेट्रोल-डीजल की जरूरत तो थी, पर उतनी आम जरूरत नहीं। घरों और ऑफिसों में एसी, कूलर भी इतने बहुतायत में नहीं थे। अतः बिजली का खर्च उतना नहीं था। फिर भी महँगाई का दंश आजादी के बाद २७ साल के हो चुके देश को चुभता था, मगर तकरीबन उसी दौर का एक गाना था, "समझो और समझाओ थोड़ी में मौज मनाओ, दाल-रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ," लेकिन अब जो महँगाई है उसमें तो दाल-रोटी ही महँगी हो चुकी है। आज की नायिका तो, "तेरी दो टकिया की नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाए" का ताना देने की बजाय खुद भी साथ में कमा रही है या यह बात समझ रही है, "सैंया तो खूबे कमात है, महँगाई डायन खाए जात है।"


इन दिनों महँगाई संबंधी यह गाना, "महँगाई डायन, खाए जात है", काफी चर्चित हो रहा है। आमिर खान प्रॉडक्शन की फिल्म "पीपली लाइव" का यह गीत मध्यप्रदेश के लेखक-शिक्षक, लोक गायक गयाप्रसाद प्रजापति ने लिखा है। इसे गाया भी बड़वाई गाँव की मंडली ने है। फिल्म का प्लॉट भी ग्राम केंद्रित है और इसमें आम किसान की परेशानी कटाक्ष के माध्यम से वर्णित की गई है। इस गाने के चर्चे फिल्म रिलीज होने के पहले ही शुरू हो गए हैं।


प्रचार माध्यम जहाँ इसके बारे में बात कर रहे हैं, वहीं सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर, ब्लॉग्स पर आम युवा अपनी प्रतिक्रियाएँ व्यक्त कर रहे हैं। चूँकि महँगाई इस वक्त अपने उच्चतम (आशा करें इससे ऊँचा नहीं) स्तर पर है, अतः इस गाने ने आम आक्रोश को स्वर दिया है। सुनते हैं भारतीय जनता पार्टी ने इस गाने के अधिकार माँगे हैं ताकि वह इसे अपना चुनावी गीत बनाकर सरकार को ताना दे सके, चूँकि केंद्र में अभी कांग्रेस की सरकार है। सच पूछा जाए तो जनता को इससे वास्ता नहीं रह गया है कि किसकी सरकार है। वह तो सिर्फ यह जानती है कि जमाने बदले, सरकारें बदलीं, फिल्म निर्माता बदले, गाने के अन्य बोल बदले, पर "महँगाई" का दंश कहाँ बदला। वह तो और विकराल हुआ। अब तो जनता यही चाहती है कोई भी आए- जाए, उसका नाम कोई भी, कोई भी झंडा, कोई भी ब्राण्ड हो बस वह मुद्रास्फीति को बस में करे। ताजा खबर है कि रुपए को भी अब डॉलर, पौंड, येन, यूरो की तरह प्रतीक चिन्ह मिल गया है। रुपए की अंतरराष्ट्रीय पहचान पर हम सभी भारतीयों को गर्व होगा, मगर साथ ही रुपए का अवमूल्यन भी न हो यह भी हर भारतीय चाहेगा। सखी के सैंया तो खूब कमात हैं, पर उतने में ठीक से दाल-रोटी भी न आत है- अभी तो यह आलम है।

- निर्मला भुरा‍ड़िया

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