एक बहुत घिसा-पिटा चुटकुला है- दो मक्खियाँ गली में खड़ी एक मोटरसाइकल के आसपास मंडरा रही थीं। उनमें से एक जाकर आईने पर बैठ गई, दूसरी ड्राइवर सीट पर। बताओ उनमें से कौनसी नर थी कौनसी मादा? पहले सीधा उत्तर होता था जो आईने पर बैठी वह मादा और जो चालक की जगह बैठी वह नर! मगर जी नहीं अब यह फटा जोक ही फेंकने लायक नहीं हो गया है, इसके अंत में नई पहेली भी व्यर्थ हो गई है। महिलाएँ बहुतायत से चालक की सीट पर बैठी दिखाई देती हैं। कार, स्कूटर, मोपेड, साइकल ही नहीं महिला एक ड्राइवर, ट्रेन ड्राइवर, टैक्सी चालक, विमान चालक आदि भी हैं। उधर श्रृंगार प्रियता का जहाँ तक सवाल है पुरुषों के मेकअप की एक बड़ी रेंज बाजार में आ गई है। इनमें सनस्क्रीम, एंटीएजिंग क्रीम, कोल्ड क्रीम, मॉइश्चुराइजर आदि ही नहीं हैं बाकायदा फाउंडेशन, कंसीलर, लिप कलर, लिप ग्लॉस आदि भी हैं। बाजारवाद यदि पुरुषों के लिए भी गोरेपन की क्रीम लाया है तो पुरुषों का रवैया भी "मैं तो सज गया रे सजनी के लिए" हो रहा है।
पहले हिन्दी में महिला दर्शकों के लिए रोने-धोने वाली फिल्में बनाई जाती थीं। विज्ञापनों में लिखा रहता था साथ में रुमाल लेकर आएँ। हिन्दी फिल्में आज भी ग्लीसरीन के आँसुओं और चाशनी भावुकता से भरी होती हैं। मगर महिला दर्शकों को खींचने के लिए अब पुरुष नायकों को भी सिक्स पैक एब बनाने होते हैं। हीरोइनें ही नहीं हीरो भी, कहानी की तथाकथित माँग पर अंग प्रदर्शन करते नजर आते हैं। यानी भारतीय स्त्री के लिए "इच्छा" शब्द उतनी बड़ी वर्जना नहीं रहा। कुछ ही समय पहले की बात है जब स्त्रियाँ पेंट-शर्ट पहन लेती थीं तो कहा जाता था- क्या मर्दों के कपड़े पहन लिए। जैसे कि ऊपर से ब्रह्माजी ने निश्चित करके भेजा हो कि फलाँ कपड़े स्त्री पहनेगी, फलाँ पुरुष। हालाँकि आज भी कई लोगों का यही खयाल है! मगर "जेंडर-बेंडर" तो हो चुका है। आज आपको शादी-ब्याह, पार्टियों में ऐसे कई पुरुष मिल जाएँगे जो जरी की कढ़ाई वाली रंगीन, सजीली शेरवानी के साथ दुपट्टे जैसा कुछ गले में धारण किए रहते हैं। नोंकार जूतियाँ, चेन, कड़ा, ब्रॉच पहने, बालों का पोनीटेल बनाए या कंधे तक बाल रखे पुरुष भी आपको मिलेंगे। कुछ सालों पहले ऐसा करने पर उन्हें जनाना वेशभूषा पहनने का ताना मिल सकता था। स्त्री-पुरुष विभाजन की रेखा और भी कई मामलों में धूमिल हो रही है। इसमें कोई किसी की बराबरी नहीं कर रहा। बस ये कि सभी को एक इंसान होने का हक है, जेंडर कोई भी हो। कोई भी कम या कोई भी ज्यादा नहीं है।
मगर उपरोक्त बातों का मतलब यह नहीं कि सब कुछ ठीक-ठाक हो गया है। मनोवैज्ञानिक स्तर पर बहुत सा भेदभाव अब भी मौजूद है। हालाँकि किसी के यहाँ कन्या जन्म लेने पर अब यह नहीं होता कि सौ प्रतिशत मामलों में मुँह लटक ही जाएगा, मातम मनेगा। अब किसी के यहाँ बेटी होने पर तीन प्रकार से प्रतिक्रिया मिलती हैं। एक तो यह कि लोक दिखावे के लिए ही सही "लक्ष्मी आई है" कहना पड़ता है, क्योंकि बेटी होने का मातम मनाने पर अब लोग लानतें भेजते हैं। दूसरी यह कि कुछ पालकों को सचमुच खुशी भी होती है, संतान बेटा हो या बेटी। यानी बिटिया होने पर लड्डू खिलाने और बधाई स्वीकार करने वाले भी हैं। मगर सबसे खौफनाक है प्रतिक्रिया नंबर तीन, पहली बिटिया हो जाए तो अगले गर्भधारण में जन्मपूर्व लिंग जाँच करवाने के लिए क्या तिकड़म भिड़ाएँगे, इसकी तैयारी होने लगती है! दुःखद सत्य यह है कि तमाम कानूनों की उपस्थिति के पश्चात प्रतिक्रिया नंबर तीन यानी भ्रूण लिंग जाँच करवाने की इच्छा रखने वाले पालकों और परिवार वालों की संख्या ज्यादा है। धूमधाम वाली देवी-पूजाओं और महिलाओं की प्रगति की तेज रफ्तार के बावजूद ऐसा क्यों है यह सचमुच सोचने की बात है।
महिलाओं के प्रति हिंसा, दहेज-प्रताड़ना, महिलाओं को "डायन" बताना, नेतृत्व में बहुत कम हिस्सेदारी देना आदि बहुत चीजें हैं, उनकी योग्यता को स्वीकार करने में अहंकार आड़े आना, जिन पर पार पाना अभी बाकी है। दहेज-कानून का दुरुपयोग करने वाले भी हैं, मगर हर वक्त इसका हवाला देना उन महिलाओं के सच को नहीं ढँक सकता जो सचमुच प्रताड़ित हैैं। हमारे यहाँ महिला-कल्याण के लिए कई कानून भी हैं, योजनाएँ भी हैं। इस सबसे काफी कुछ निकल भी रहा है। मगर अब भी बहुत तगड़ी सामाजिक इच्छाशक्ति की जरूरत है ताकि ग्रामीण, कस्बाई और छोटे शहरों की स्त्रियाँ अशिक्षा, अन्याय और रूढ़िवाद की चपेट से मुक्त हो सकें। इन सबको शिक्षा, स्वास्थ्य और सहज जीवन का अधिकार मिले।
- निर्मला भुराड़िया
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