दक्षिण भारत के कुक्के सुब्रह्मण्यम मंदिर में तकरीबन चार सौ सालों से भी ज्यादा समय से हर साल एक घिनौनी और अमानवीय रस्म अदा की जा रही है- "ऊरुलू-सेवे।" इस रस्म के तहत सवर्ण जातियों द्वारा खाना खाकर छोड़ी गई जूठी पत्तलों पर दलित समुदाय के लोग लोट लगाते हैं। इस मान्यता के तहत कि ऐसा करने से उनके त्वचा रोग ठीक हो जाएँगे। समझा जा सकता है कि ऐसी मान्यता क्यों विकसित हुई होगी। सवर्णों के जातिवादी दंभ और दलितों में अपने भी एक मनुष्य होने के सत्य से अपरिचय के कारण। ताज्जुब तो यह है कि आज भी यह रस्म जीवित है। उसके कई कारण हैं। पहला तो यह कि आजादी के इतने सालों बाद और संविधान में समानता के बावजूद वर्णभेद किसी न किसी रूप में मौजूद है। दूसरा कारण यह है कि समय के साथ भारतीय समाज में अंधविश्वास और रूढ़िवाद बढ़ा ही है, घटा नहीं। फिर व्यक्ति किसी भी वर्ण का हो, शिक्षित हो, अशिक्षित हो, अमीर हो, गरीब हो यहाँ अधिक से अधिक लोग रूढ़ियों में जकड़े हैं। कुप्रथाओं में लिप्त हैं।
पहले तो आज भी मौजूद वर्ण भेद की बात करें। बेंगलुरू की एक ब्राण्ड स्ट्रेटजी और मार्केटिंग कंसल्टेंसी फर्म ने किस उपभोक्ता के पास कितनी क्रय शक्ति है। कौन कितनी अच्छी चीजखरीदने की कूवत रखता है या कितनी साधारण चीज खरीदता है, इसका विभाजन ब्राह्मण, क्षत्रिय, दलित के आधार पर किया है। इसमें जन्म के आधार पर नहीं, बल्कि ऊँची खरीद या हलकी खरीद के कारण व्यक्ति को "जात" बाँटी गई है। इस सवर्णवादी मानसिकता में ब्राह्मण वह कहा जाता है, जो ऊँचे ब्राण्ड खरीदता है! क्षत्रिय वह जो दिखावे पर खर्च कर सकता है। और... कहना नहीं चाहिए! दलितों के पास भले ही वोट बैंक होने की राजनीतिक ताकत आ गई है, मगर हिन्दुस्तान के गाँव-कस्बों से आज भी अस्पृश्यता गई नहीं है। मध्यप्रदेश में मुरैना के एक गाँव में पिछले दिनों सुनीता नामक दलित महिला अपने पति को खाना परोस रही थी। एक रोटी बच गई, जो उसने एक कुत्ते को खिला दी। कुत्ता रामपाल नामक राजपूत का था। रामपाल दलित महिला पर सरे आम चिल्लाया कि उसने अपने हाथ से रोटी खिलाकर उसके कुत्ते को अछूत कर दिया है। यही नहीं, पंचायत बुलाई गई, जिसने यह फैसला दिया कि कुत्ता अब अस्पृश्य हो गया है और अब से दलित बस्ती में ही रहेगा। वर्णभेद के रंग में रंगी और भी बातें होती हैं, जैसे वरुण गाँधी की मँगनी की खबर पर एक अखबार ने लिखा कि वरुण जवाहरलाल नेहरू के बाद नेहरू परिवार के पहले ऐसे व्यक्ति होंगे, जो एक ब्राह्मण से शादी कर रहे हैं। ऐसे ही फिल्म दबंग में सलमान खान प्रेमिका के पिता से विवाह में अपनी कन्या देने के आग्रह स्वरूप अपने गुण गिनाता है "मैं" ये हूँ, मैं वो हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ। आज भी लोग दान करते हैं तो वे यह नहीं देखते कि सामने वाला जरूरत मंद है या नहीं? वे यह देखते हैं कि सामने वाला ब्राह्मण हो। ब्राह्मण भी निर्धन और जरूरतमंद हो सकता है, यह अलग बात है।
जूठी पत्तलों पर लोट लगाने वाले आयोजन में अब दलितों के साथ ही अन्य लोग भी आने लगे हैं। वजह यह है कि वर्णवाद तो पूरी तरह गया नहीं, रूढ़िवाद जुड़ गया सो ऊपर से। जूठी पत्तलों पर लोट लगाने से त्वचा रोग ठीक हो जाएँगे, जैसे कई अंधविश्वास विज्ञान चेतना से दूरी और तर्क को तिलांजलि देने की वजह से हैं। कई लोग ऐसे मिल जाएँगे, जो रोगों की सही चिकित्सा करवाने की बजाय उल-जलूल टोटकों में उलझ जाते हैं। इक्कीसवीं सदी तकनीकी, विज्ञान और चिकित्सा का युग है। इस युग में भी हम भारतीय आधुनिक ज्ञान को नहीं अपनाते तो यह चेतना की कमी ही है।
- निर्मला भुराड़िया
जात पात का यह कुचक्र जाने कब खत्म होगा. लगता ही नहीं कि हम इक्कीसवीं सदी में हैं
जवाब देंहटाएं