सोमवार, 20 दिसंबर 2010

पहली फिल्म 'माय फैमिली'

एक किशोर वय का लड़का है; जिज्ञासु, उत्सुक एवं बुद्धिमान। वह दुनिया का अच्छे से अच्छा साहित्य पढ़ता है, साथ ही अपने आसपास के समाज को, संसार को जानने-समझने की कोशिश करता है। उसने नया-नया वीडियो कैमरा खरीदा है और शौकिया डॉक्यूमेंट्री बनाना चाहता है। उसने सोचा क्यों न पहली डॉक्यूमेंट्री बनाई जाए 'माय फैमिली'। उसने लिए वह ऐसे किसी त्योहार का इंतजार कर रहा है, ‍िजस ‍िदन पूरा परिवार इकट्‍ठा हो; चाचा-चाची, ताऊ-ताई, बुआ, मौसी उन लोगों के बच्चे आदि। दादी तो घर पर साथ ही रहती है। अत: उसने सोचा क्यों न दादी के शॉट्‍स तो लेकर ही रख लिए जाएँ। लड़के की माँ उसके इस आइडिया से सहमत हैं, बल्कि इससे आगे का सुझाव भी दे देती है, 'तुम बनाओ दादा-दादी की प्रेम कहानी, आखिर हम सब उसी कहानी का ‍विस्तार हैं। दादा-दादी का शाश्वत और अमर प्रेम ही है तुम्हारी 'माय फैमिली।'

लड़का दादी के पास पहुँचता है। दादी हारसिंगार के फूलों की माला बना रही है। लड़के ने दादी को कई बार सुबह फूल चुनते और माला बनाते देखा है, पर शायद अपनी व्यस्तताओं के चलते कभी ध्‍यान नहीं दिया। इस बारे में पूछा तो कभी नहीं। आज पूछा तो दादी माँ पहले तो थोड़ा तुनकी और वो ताना भी दिया जो वे घर में सभी को देती हैं, 'अच्छा तो आज तुझे फुरसत ‍िमल गई दादी से बात करने की।' पोते ने हँसकर टाल ‍िदया, 'छोड़ो भी दादी...' और सुलह हो गई। दरअसल दादी वह हार दादाजी की तस्वीर के लिए बनाती हैं। रोज फूल चुनकर ताजा, अपने हाथों का बना हार वे पति की तस्वीर को पहनाती हैं, वे नहीं चाहतीं कि एक बार चंदन हार लटकाकर काम खतम कर दिया जाए। दरअसल दादी हार नहीं प्यार गूँथती हैं। और तो और, दादी कभी-कभी गुजर चुके दादाजी की तस्वीर से बात करते भी नजर आती हैं। एक बार तो वह तस्वीर में बैठे दादाजी पर नाराज भी हो रही थीं कि मुझे छोड़कर पहले क्यों चले गए। उन्होंने पोते को बताया ‍िक जब दादाजी जीवित थे तब वे दोनों झगड़ा भी बहुत करते थे, पर शाम तक फिर हेल-मेल हो जाता था, क्योंकि ऊपरी झगड़ा होता था मनमुटाव नहीं। दादी ने और भी ढेर सारी बातें बताई और पोते को गेब्रियल गार्सिया मरक्वेज के उपन्यास 'लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा' की याद आ गई, जिसमें प्रेम को दो प्रेमियों की बड़ी उम्र भी बाधित नहीं करती। यह कहानी तो उससे भी आगे थी। इस प्रेम कहानी को तो मृत्यु ने भी बाधित नहीं किया था। ... और पोता इससे बहुत प्रभावित हुआ, उसने उत्सुक होकर दादी से पूछा, 'मुझे आपकी जैसी लड़की मिलेगी, जो मुझे हमेशा चाहे...। दादी ने टके-सा जवाब दिया, 'हाँ जरूर मिलेगी, यदि तू अपने दादाजी जैसा लड़का साबित हुआ तो... तुझे पता है यदि में पहले जाती तो वो मेरे लिए माला बनाते मिलते...' और दादी ने नम हो आई आँखें पोंछी।

'ओ हो दादी तो ये पतिव्रता होने की बात नहीं है, आपसी प्रेम की बात है' पोते ने कहा। 'बिलकुल यही है,' दादी ने जवाब दिया।

पोते के पास अगले सवाल भी थे, 'पर दादी पहले तो सभी अरेंज मैरेज होती थी, अब लव मैरेज होती है। तुम क्या सोचती हो दोनों में से कौन सी वाली में प्यार पक्का रहता है।' दादी अब हँसने लगी थी, 'लोग यूँ ही झगड़ते हैं कोई कहता है अरेंज मैरेज ठीक होती है, कोई कहता है लव मैरेज ठीक होती है। दोनों में से कोई भी तरीका हो, खास बात तो है आपसी समझ। पर, इसका मतलब यह भी नहीं ‍िक तुम ऐसी लड़की चाहो जो ‍िक बस तुम्हारी तुक में तुक मिलाए। आपसी समझ का मतलब आपसी समझ से ही है। सिर्फ लड़की द्वारा हाथियार डालने से नहीं है।' 'पर, दादी विज्ञापन में तो लड़की के लिए लिखते हैं, 'सुंदर, सुशील, वगैरह...।'

दादी ने जवाब दिया, 'मगर असल में तो तुम्हारे दादाजी सुंदर, सुशील, वगैरह... पुरुष थे, जिसने मेरे जैसी अपनी बातों पर लड़ने वाली स्त्री से भी प्रेम किया।' अब हार पूरा बन चुका था। दादी ने उठकर तस्वीर पर हार डाल दिया। पोते ने शॉट ले लिया था और जिंदगी के बारे में एक विचार भी। ताली एक हाथ से नहीं बजती। सुलझे हुए दाम्पत्य में पुरुष के अवदान को नहीं नकारा जा सकता।

- निर्मला भुराड़िया

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