वाशिंगटन डीसी, होटल लिंकन स्यूट। मैं यहाँ हफ्ते भर के लिए ठहरी हूँ। वैसे ही अमेरिका कई राष्ट्रीयताओं वाला देश है। जगह-जगह के अप्रवासियों से ही मिलकर यह देश बना है, किन्तु वाशिंगटन डीसी चूँकि राजधानी है, यहाँ िभन्न-विभिन्न लोगों की आमदरफ्त अधिक ही है। इस होटल लिंकन स्यूट में एक विशेष व्यवस्था है। यहँ रोज शाम को ठंडा दूध और चॉकलेट-क्रीम कुकीज लॉबी में एक काउंटर पर रख दिए जाते हैं, बगैर दाम चुकाए सेवन के लिए। पास ही रखी होती है थप्पी वाशिंगटन पोस्ट एवं अन्य अखबारों की। उसके साथ ही कुछ लोग लॉबी में बैठकर गपियाते भी हैं। अत: होटल में ठहरने वाले अपने कमरों से निकलकर अपनी शाम लॉबी में ही बिताना पसंद करते हैं। पेमेंट काउंटर पर शाम को जिन तीन व्यक्तियों की ड्यूटी होती है, उसमें से एक युवक मोरक्को का है। वह जैसे ही खाली होता है झपटता हुआ आता है। बातें करने की कोशिश करता है। भारत के बारे में मुझसे पूछता है, मोरक्को के हालात के बारे में बताता है। इधर-उधर की पूछते-सुनते हुए भावनात्मक मूड में पहुँच जाता है तो यह कहकर अपना बोझ भी हल्का कर लेता है कि होम िसक फील करता है।
एक और व्यक्ति से मुलाकात होती है, वह रास्ताफेरियन है। रास्ताफेरियन अफ्रीकी अश्वेत समुदाय का एक धड़ा है। इस अफ्रीकी-अमेरिकन व्यक्ति की हेयरस्टाइल कुछ विशेष तरह की है। पहले ही घुँघराले, कंधे तक के बालों की टें भी उसने मोड़-मोड़कर रस्सी की तरह बटी हुई है। जब उससे उसके बालों के बारे में पूछा तो उसने बताया यह दिखावट के िलए नहीं है। इस हेयर स्टाइल का आध्यात्मिक महत्व है। उसने बताया, यह हमारा ध्यान करने का एक तरीका है। रोजाना बालों की ढेर सारी लटें एकाग्रता से बटने में हमें कम से कम आधा-पौन घंटा तो लगता है! वे लोग कर्लर लगाकर यह स्टाइल नहीं बनाते क्योंकि फिर यह स्टाइल रखना िसर्फ प्रतीकात्मक होगा। इसका असली उद्देश्य यानी 'ध्यान' पूरा नहीं होगा। है न दुनिया रंग-बिरंगी! ऐसी-ऐसी जीवन पद्धतियाँ हैं दुनिया भर में अलग-अलग लोगों की कि जानकारी प्राप्त करने का भी अपना मजा है। ऐसे में लोग जानकारी देते ही नहीं लेते भी हैं। एक मैक्सिकन महिला ने मुझसे मिर्ची-धनिए की चटनी बनाने की विधि पूछी और गंभीरता से बाकायदा उसे अपनी जेबी डायरी में नोट भी की। जब मैंने मालवी नाम कोथमीर की चटनी बताया तो उसने प्रसन्नतापूर्वक दोहराया 'कॉट्म्यीर वाऊ'।
भूटानी लड़की कर्मा के देश में तो बहुत से लोग हिन्दुस्तान के सास-बहू सीरियल भी देखते हैं। कर्मा ने आश्चर्य से पूछा था िक क्या हिन्दुस्तान के परिवार ऐसे ही होते हैं? 'अरे नहीं बढ़ा-चढ़ाकर कहानी िदखाते हैं,' मैंने तुरंत कहा क्योंकि यह कैफियत देने का अच्छा मौका िमल गया था। देश की छबि का सवाल जो था। युद्धग्रस्त बोस्निया से अमेरिका आकर सेटल हुआ टूर गाइड था तो लंदन से अमेरिका आकर बस गई महिला भी थी, जिसे अजनबियों को भी 'हाऊ आर यू टूडे' पूछने की प्रवृत्ति अखरती थी। तात्पर्य यही कि आप यात्राओं पर जाते हैं, तो दुनिया के और लोगों का िमजाज और संस्कृति भी जानते हैं। कुछ अपनी कहते हैं, कुछ उनकी सुनते हैं।
दरअसल यह सब बात इसलिए िनकली है कि पिछले िदनों एक टूर एंड ट्रेवल कंपनी के िवज्ञापन में एक अजीब बात देखी। उसमें यह प्रावधान था िक आप फलाँ जाति-समुदाय के हैं तो ऐसा टूर अरेंज किया जाएगा िक आपकी जाति के लोग ही आपके सहयात्री हों, मैनेजर, प्रबंधक आदि भी आपकी जाति के लोग हों। बाहर की यात्रा में भी अपनी ही जाति के लोगों का साथ करेंगे यह कूपमंडूकत्व के साथ ही कट्टरपन का भी प्रतीक है। यह ठीक है कि सुपरिचित लोगों के साथ होने की बेतकल्लुफी अलग ही होती है। पर उसका आधार मित्रता भी तो हो सकती है जाति-समुदाय ही क्यों? इस वक्त देश में जातिवाद को लेकर जो राजनीतिक, सामाजिक हालात हैं उनके चलते तो आम जनता को और अधिक उदार और लचीला होने की जरूरत है। फिर क्या घर से बाहर निकलकर भी हम परिचय का दायरा न बढ़ाएँ, उसी घेरे में घूमते रहें? हम कहीं जाते हैं तो पत्थर-चूने की इमारतें देखने ही नहीं जाते वहाँ के इतिहास, संस्कृति और रहन-सहन से भी रूबरू होते हैं। दूसरों की गलतियों से सबक भी लेते हैं।
लंदन में िनर्वासित अफगानों के समुदाय में एक अफगान जब दूसरे अफगान से मिलता है तो पराए देश भी वह 'अपना अफगान भाई' नहीं होता। वहाँ भी उनमें यह भेदभाव और नफरत का नजरिया बरकरार रहता है कि फलाँ तो पश्तून है, फलाँ हाजरा है, फलाँ ताजिक है... वगैरह। इतनी मुश्किलों के बीच भी वे एक नहीं हो पाते। बाहरी ताकतें उनके इसी जातिगत विद्वेष को उनके पतन का हथियार बना देती हैं। हम भारतीयों को भी यह बात समझना होगी। बात-बात में जात का हवाला देना छोड़ना होगा। यह समझ भारतीय घरों से ही विकसित हो सकेगी।
- निर्मला भुराड़िया
विचारोत्तेजक है .मैंने अपने वाल पर इसका लिंक भी दिया है .
जवाब देंहटाएं