शुक्रवार, 18 मई 2012

आपकी नाक नहीं दिल का टुकड़ा है वो

 
अभिनेता आमिर खान बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने अपनी स्टारडम का उपयोग तेल बेचने में करने के बजाए, सामाजिक जागृति का आगाज करने वाले कार्यक्रम 'सत्यमेव जयते" की प्रस्तुति करने में किया। सिनेमा के पर्दे पर भी आमिर ने एक्टर, प्रोड्यूसर के रूप में स्वस्थ मनोरंजन की कैप्सूल में लपेट कर गहरे सामाजिक मुद्दे भी उठाए हैं। इसीलिए जनता को उनके द्वारा उठाए गए सरोकारों की गंभीरता पर यकीन है, उनके स्टार होने का आकर्षण तो है ही। वजह जो भी हो इस कार्यक्रम में बदलाव की बयार बहाने की ताकत है।
'सत्यमेव जयते" की पहली प्रस्तुति में भारत में कन्या भ्रूण हत्या का मुद्दा उठाया गया। इसका असर कितना होगा, कब होगा यह तो समय ही बताएगा। चूँकि अच्छी बातों का असर धीरे-धीरे ही होता है। मगर हाँ प्रतिक्रियाएँ जरुर हौंसला बढ़ाने वाली रहीं। कुछ लोगों ने कसमें भी खाई होंगी, संकल्प भी लिए होंगे कि वे ऐसा नहीं करेंगे? मगर बहुत सारे लोग ऐसे भी होंगे जो शो खत्म होने के बाद ताली बजाकर फिर अपने संकीर्ण स्वरूप में गए होंगे। अत: इस मामले में हृदय परिवर्तन के साथ ही सामाजिक परिवर्तन भी जरूरी हैं। आज भी लड़कियों को लेकर हमारे समाज में जो रुढ़िवादी सोच और कट्टरपंथी बर्ताव है वह लड़कियों को कुछ नहीं समझता। उनका व्यक्तित्व, उनके सपने उनकी मर्जी पर कई आज्ञाओं और पाबंदियों के पहरे हैं।
पिछले दिनों एक पिता ने अपनी बेटी की हत्या कर दी, क्योंकि बेटी अपनी मर्जी से दूसरी जाति के लड़के से शादी करने वाली थी। लड़की के भाइयों ने पिता का समर्थन किया यह कहकर कि उसके दूसरी जाति में शादी करने से बिरादरी में हमारी नाक कट जाती। जैसे कि हत्या करने से नाक ऊँची हो गई हो! पिता यह जघन्य अपराध करके जेल गया तब क्या नाक नहीं कटी? सच तो यह है कि इस पिता ने अपनी पुत्री को और भाइयों ने बहन को 'नाक" ही माना, दिल का टुकड़ा नहीं। जहाँ औरत एक वस्तु होती है, वह दूसरों के रखरखाव में होती है, उनकी दया पर निर्भर, उसकी अपनी मर्जी कुछ नहीं होती। अपने ही जीवन पर उसका अपना हक भी कहाँ होता है, वह तो दूसरों के बनाए नियम-कायदों से संचालित होती है। इसलिए पहली सीढ़ी है नारी सशक्तिकरण। मगर समाज और परिवार तो अक्सर इसी सीढ़ी पर स्त्री को रोक देना चाहता है। ताकि वह घर-समाज पर अवलंबित ही रहे। पिता के रूप में तो तो भी लोग अब पुत्री को आत्मनिर्भर बनाने लगे हैं, मगर ससुराल और समाज की दृष्टि नहीं बदली है। उत्तरप्रदेश में एक भाई अपनी लापता बहन की रिपोर्ट लिखाने पुलिस के पास गया तो डीआईजी ने कहा, 'अगर मेरी बहन भागी होती तो मैं उसे मार डालता या फिर खुदकुशी कर लेता।" यह तो कानून के रक्षक द्वारा सीधे-सीधे ऑनर किलिंग की ताकीद है। सच तो यह है कि यह वह अफसर नहीं बोल रहा था, हमारी संकीर्ण मानसिकता बोल रही थी, जो जन-जन में व्याप्त है और पुलिस भी एक भारतीय जन है। एक और पुलिस वाले ने अपने निकम्मेपन की कैफियत यह कहकर दी कि भागने वाली लड़कियों को ढूँढें कि चोर पकड़ें! भगवान जाने हमारे यहाँ 'लड़की भाग गई" जैसे अपनमानजनक जुमले की सृष्टि क्यों हुई? शायद इसलिए कि हम इस घटना को इस परिप्रेक्ष्य में नहीं देख पाते कि वह बालिग है और उसने अपनी मर्जी से शादी कर ली है। जहाँ माता-पिता लड़की के जीवन का प्रश्न मान कर उसे किसी अवगुणी व्यक्ति से शादी करने की सलाह दे रहे हों, तब तो बात थोड़ी समझ आती है, क्योंकि माता-पिता ने दुनिया देखी है। मगर भारतीय संदर्भों में अक्सर ऐसा नहीं होता, अड़ियल पंथी माता-पिता जात-पात के संकीर्ण विचारों में पड़कर अपनी संतति के जीवन का सौदा कर देते हैं। इससे उनकी तथाकथित नाक रह जाती है संतति का वैवाहिक जीवन उसकी मर्जी का हो या हो।
गाँव की एक नववधु से मिलने का मौका पिछले हफ्ते मिला। देखकर हैरत हुई उसने लंबा सा घूँघट कर रखा था। उससे पूछा, इतना लंबा घूँघट क्यों? तो उसने कहा,'ससुरजी का आदेश है, मैं ही नहीं, गाँव में सभी बहुओं के लिए ये जरूरी है।" पूछा तुम खाना भी ऐसे बनाओगी? तो उसने कहा हाँ? दो-तीन बार तो गिर भी चुकी हूँ। मैंने मेरी माँ से कहा है कि अगली बार थोड़ी पतली साड़ी भिजवाए, जिसमें से बाहर का दिखे। यह पिछले हफ्ते की बात है, पिछली सदी की नहीं। शहरों की लड़कियों पर भी अक्सर यह पाबंदियाँ जाती हैं, जीन्स मत पहनो। यह मत, पहनो वह मत पहनो। भारतीय स्त्रियों को घर, समाज और ससुराल से वस्त्रों संबंधी जबरदस्त पाबंदियों का सामना करना पड़ता है। यूँ अब काफी लड़कियाँ अपना कैरियर भी बना रही हैं। मगर अब भी यह संख्या संतुष्टिदायक स्तर पर नहीं पहुँची है। अपने पैर पर खड़े होने की छूट होना स्त्री सशक्तिकरण में बहुत बड़ी बाधा है। फिर ऐसे सामाजिक नियम भी हमारे यहाँ हैं कि हम बेटी के घर का नहीं खाएँगे। बेटी को पराई अमानत मानकर ही चलेंगे वगैरह। नतीजतन बेटी सशक्त हो पाती है माँ-बाप के बुढ़ापे की लाठी हो पाती है। तब हम स्वयं ही बेटियों की भ्रूण हत्या कर देते हैं कि बेटी तो सहारा बनेगी नहीं, हमें तो बेटा ही चाहिए।
तात्पर्य यही कि सिर्फ कानून बन जाने से कन्या भ्रूण हत्या बंद नहीं हो सकती। स्त्रियों को लेकर हमारे समग्र सोच में परिवर्तन जरूरी है। स्त्री का सशक्तिकरण जरूरी है। 
निर्मला भुराड़िया

4 टिप्‍पणियां: