बुधवार, 9 मई 2012

न हीरो करे बीए, न माँ चलाए मशीन!

 
'मेरे पास माँ है।" फिल्म दीवार का यह संवाद अमर हो गया है। सैंतीस सालों में भी यह संवाद धुँधलाया नहीं है, बल्कि इस संवाद की शक्ति देखते हुए आधुनिक काल का विज्ञापन जगत तक इसे भुना रहा है। एक तराजू में सारे ऐश्वर्य, धन दौलत और दूसरी में माँ। सिनेमा के सौ सालों में फिल्मी माँ हमेशा एक ताकतवर किरदार रही है। भले इस किरदार का रूप, रंग, चरित्र-चित्रण बदला हो, मगर नायक-नायिका के मनों पर उसकी ताकत वही रही है।
एक काल था जब फिल्मी माँएँ टाइप्ड होती थीं। वह रोती-धोती थी, सिलाई मशीन चलाकर बच्चों का पेट पालती थी। खाँसते-खखारते कार्य करती और अपनी टीबी जैसी बीमारी बच्चों से छुपाती थी। पुत्र यानी हीरो बीए पास करके आता तो वह उसे खीर बनाकर खिलाती थी। बहरहाल यहाँ परिश्रमी त्यागमयी माँ हीरो की ताकत अवश्य हुआ करती थी। यह रोल इतना टाइप्ड था कि इसे करने के लिए अभिनेत्रियाँ भी लगभग सुनिश्चित थीं। इन खास तरह की माँओं के रोल निरुपाराय, दुर्गा खोटे, लीला मिश्रा आदि की झोली में पड़ते थे। हाँ 'मदर इंडिया" वाली नर्गिस भी थीं जिन्होंने अपने आदर्श के लिए, बेटे को ही खत्म कर दिया! मगर आज जो फिल्मी माँएँ रही हैं वे फिल्मी पर्दे पर होकर भी फिल्मी माँएँ नहीं हैं। वे त्यागमयी, परिश्रमी, बच्चों के लिए कुछ भी कर गुजरने वाली अब भी हैं, क्योंकि माँएँ होती ही ऐसी हैं। मगर आज उनका चित्रण बेहद वास्तविक है। आज फिल्मी माँओं के कई रंग रूप हैं। फिल्म 'जाने तू या जाने ना" में हीरो इमरान खान की माँ के रोल में रत्ना पाठक शाह जीन्स कुर्ता पहनती हैं। वह बेटे को उसकी पसंद का खाना जरूर बना कर खिलाती है, मगर किसी-किसी दिन बेटे की बारी भी आती है माँ को कुछ बना कर खिलाने की! मगर इसका मतलब यह नहीं कि बेटा उसके दिल के करीब नहीं है या वह बेटे के लिए त्याग और श्रम नहीं करती। वह सिंगल मदर है और बेहतरीन तरीके से उसने बेटे का पालन-पोषण किया है। बेटा उससे दिल की बातें शेअर करता है, क्योंकि वह एक अंडरस्टैंडिंग मदर है। इस तरह फिल्म 'हम-तुम" में किरण खैर ने रानी मुखर्जी की माँ का रोल किया है। अकेली रानी के परदेस रहने, प्रेम में अनिश्चितता आदि परिस्थितियों में माँ उसके साथ डटी रहती है वह अपनी बेटी के दिल की चाहतों को अपनी वर्जनाओं से ऊपर रखती है। माँ का किरदार अब टाइप्ड नहीं है, वह कहानी के प्रवाह के साथ बढ़ता है। फिल्मी माँ आज भी नायक और नायिका की शक्ति है, मगर उसका रहना-सहन बदला है। भारतीय स्त्रियाँ आज चारदीवारी से निकली हैं, वे व्यावसायिक और अकादमिक तौर पर अधिक सक्षम हुई हैं। यही चीजें फिल्में परदे पर भी प्रतिबिंबित हो रही हैं। चूँकि अब फिल्मी माँ की छबि टाइप्ड नहीं है अत: अपने यौवनकाल में ग्लैमरस रोल करने वाली नायिकाएँ भी माँ के रूप में पर्दे पर उतरने में वैसा गुरेज नहीं करती जैसा पहले करती थीं। उस काल में माँ का रोल करने के बजाए अभिनेत्रियाँ रिटायर होना या अंधेरों में खो जाना पसंद करती थीं। अब रति अग्निहोत्री और जीनत अमान भी हीरो-हीरोइन की माँ की भूमिका करती हैं।
फिल्मी माँओं के संदर्भ में एक और बड़ा और स्वागत योग्य परिवर्तन हुआ है। पहले की फिल्मों में नायिका को कमसिन, कुँआरी, अनछुई ही बताया जाता था। भीतर ही भीतर इसका कारण था स्त्री को महज उपभोक्ता वस्तु समझना। उस समय नायिका को इतने कम वस्त्रों में चाहे बताया जाता हो, मगर उसका वर्जिन ही होना जरूरी होना उसे पुरुषों के उपभोग की वस्तु ही बताता था। उस वक्त कहानी की माँग पर यदि नायिका के साथ कोई बच्चा बताना है तो वह उसका छोटा भाई, भतीजा, भतीजी या पड़ोसी का बच्चा बताया जाता था। जैसे ज्वैल थीफ में वैजयंती माला का भाई, चितचोर में जरीना वहाब के साथ हमेशा रहने वाला मास्टर राजू। यह श्र्ाृंखला अनंत है। लेकिन अब किसी हीरोइन को, जिससे कि हीरो का चक्कर चल रहा है आराम से किसी बेटे या बेटी की माँ बताया जाता है। बल्कि नायिका का प्रेम पाने के लिए हीरो को पहले उसके बच्चों का दिल जीतना होता है। नहीं तो बात बन नही सकती। जैसे फिल्म प्यार इम्पॉसिबल में प्रियंका चोपड़ा हीरोइन है और वह : साल की बेटी की माँ बनी है। फिल्म पार्टनर में लारा दत्ता बच्चे की माँ बनी है। अब ये विश्व सुंदरियाँ भी माँ के रूप में पर्दे में आने में गुरेज नहीं कर रहीं। पहले तो कहानी में ऐसी गुंजाइश नहीं होती थी। होती तो कोई ग्लैमरस हीरोइन बच्चे की माँ का रोल करना अपने करियर के खिलाफ समझती। फिल्मी माँओं के संदर्भ में यह भी एक बड़ा परिवर्तन है। 
निर्मला भुराड़िया  

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