स्वच्छता और स्वास्थ्य
का गहरा
संबंध है।
आप किसी
भी देश
में, किसी
भी जलवायु
में रहते
हों हाईजीन
का खयाल
रखना जरूरी
होता है
अन्यथा बीमारियाँ
फैलती हैं।
विकासवाद संबंधी
एक ताजा
अनुसंधान पिछले
दिनों पढ़ने
में आया,
उसके अनुसार
इवोल्यूशन या या विकासवाद की
प्रक्रिया में मनुष्य में जुगुप्सा
नामक भाव
पैदा ही
इसलिए हुआ
ताकि वह
गंदगी से
दूर रहे
और स्वयं
को स्वस्थ
रखे।
भारत चूँकि गर्म
जलवायु वाला
देश है,
यहाँ जीवाणु
फटाफट गुणन
करते हैं,
संक्रमण तुरंत
फैलते हैं
अत: हमारे
लिए तो
हाईजीन का
खयाल रखना
बाकियों से
अधिक ही
जरूरी है,
कम नहीं।
होता खैर
इसका उल्टा
ही है,
हम लोग
जमकर गंदगी
फैलाते हैं
और तरह-तरह की
बीमारियों को न्यौतते हैं। इस
मामले में
अपनी पारंपरिक
बुद्दिमत्ता से हम कोसों दूर
चले आए
हैं और
हाईजीन संबंधी
नए उपायों
के पास
अभी हम
पहुँचे नहीं
हैं। त्रिशंकु
बने हम
गंदगी में
झूल रहे
हैं और
बीमारियों को बुला रहे हैं।
एक समय था
जब भोजन
तैयार करने
की जगह
को हमारे
यहाँ मंदिर
की तरह
पवित्र समझा
जाता था।
स्त्रियाँ स्नान करे बगैर रसोई
में प्रवेश
नहीं करती
थी। हाईजीन
की वैज्ञानिक
समझ उस
वक्त के
अकादमिक पढ़ाई
न करे
हुए लोगों
के लिए
आसान हो
जाए इसलिए
उसे धर्म-परंपरा में
गूँथ कर
चलाया जाता
था। मसलन
हमने अपनी
दादी नानियों
को अक्सर
यह या
ऐसी ही
कोई बात
कहते सुना
होगा कि
हम रात
को जूठे
बर्तन नहीं
रखते, उन्हें
मांजकर ही
रखते हैं।
ऐसा न
करो तो
जूठे बर्तन
श्राप दे
देते हैं!
इसी तरह
बड़े-बूढ़े
कहते थे
परंडे (पीने
का पानी
रखने की
जगह) में
पितर रहते
हैं, इसलिए
इसकी पवित्रता
व सफाई
बेहद जरूरी
है। इसी
तरह और
भी कई
कहावतें, किंवदंतियाँ
मिल जाएँगी
जो हाईजीन
से संबंध
रखती हैं।
मगर इनमें
से अधिकांश
चलन इसलिए
गायब हुए
कि इनमें
से साफ-सफाई की
भावना तो
निकल गई
और महज
कर्मकांड रह
गए। अर्थ
समझे बगैर
बात को
अपनाने से
जो होता
है, वही
यहाँ भी
हुआ मसलन
परंडे में
पितर रहते
हैं वाली
बात से
सहम कर
लोगों ने,
पवित्रता के
प्रतीक स्वरूप
मटके के
आसपास लाल
कपड़ा तो
लपेट दिया
मगर भीतर
पानी स्वच्छ
है कि
नहीं, पानी
कब बदला
था यह
ध्यान नहीं
रखा।
हाथ धोकर खाना
खाने या
खाने-पीने
की वस्तुओं
को हाथ
लगाने की
पुरानी प्रथा
लगभग समाप्त
सी हो
चली थी।
लेकिन अब
संयुक्त राष्ट्र
की ओर
से ग्लोबल
हैंडवॉशिंग डे मनाए जा रहे
हैं। इनमें
भारतीय स्कूलों
के बच्चे
भी शामिल
हैं। जिन
स्कूलों में
हाथ धोने
का महत्व
बताया जा
रहा है,
वहाँ के
बच्चे घर
आकर अपने
पालकों को
भी कह
देते हैं
कि पहले
वे हाथ
धोएँ, फिर
खाएँ या
परोसें।
भारत में पानी
की किल्लत
ही नहीं
है, स्वच्छ
पानी की
भी किल्लत
है। आज
सरकारों से
यह अपेक्षा
की जाती
हैं कि
वे स्वच्छ
जल मुहैया
करवाएँ और
नागरिकों से
यह कि
वे जलाशयों
को गंदा
न करें।
गंगा को
पवित्र कह
कर उसकी
कसम खाने
से कुछ
नहीं होता।
जो सच्ची
कसम खाएगा
उसे अपने
जल स्त्रतों
को पवित्र
भी रखना
होगा, वर्ना
कमस झूठी
पड़ जाएगी।
यही नहीं
भारत का
दुर्भाग्य यह है कि आज
भी बहुत
से ग्रामीण
हल्कों में
टॉयलेट नहीं
है, अत:
स्त्रियों को बहुत कष्ट उठाने
पड़ते हैं।
यह सेनिटेशन
की दृष्टि
से अनुचित
तो है
ही। इसी
के चलते
मध्यप्रदेश में एक दुल्हन रूठ
गई थी,
यह कहकर
कि जब
तक टॉयलेट
नहीं बनेगा
वह ससुराल
नहीं जाएगी!
इस लड़की
का साहस
सचमुच सराहनीय
है। भारत
में कुछ
एनजीओ भी
यूनीसेफ के
साथ मिलकर
एक सराहनीय
काम कर
रहे हैं,
वह यह
कुछ स्थानों
पर उन्होंने
सेनिटरी नैप्कीन
वेंडिंग मशीन
लगाई है,
ताकि ग्रामीण
और कस्बाई
किशोरियों को सस्ते और साफ-सुथरे सेनिटरी
नैप्कीन्स मिल जाएँ और वे
संकमणग्रस्त न हों। लेकिन यह
सिर्फ सामाजिक
और अंतरराष्ट्रीय
संगठनों की
ही जिम्मेदारी
नहीं है।
देश की
महिलाओं एवं
सभी नागरिकों
की इच्छाशक्ति
व भरपूर
प्रयास 'सेनिटेशन
व हाईजीन"
को अच्छा
बनाने में
जुड़े, तभी
हम स्वच्छ
व स्वस्थ
रह सकेंगे।
निर्मला भुराड़िया
इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - ज़िंदा रहना है तो चलते फिरते नज़र आओ - ब्लॉग बुलेटिन
जवाब देंहटाएंहम कितना भी कह लें हाईजीन परंतु लाना बहुत ही मुश्किल काम है। हमारी आधी से ज्यादा जनता जिस हालत में रहती है, जहाँ टॉयलेट भी नहीं होता।
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