मेरी एक परिचित के तीन बेटे हैं। तीसरा बेटा बेटी की चाह में हुआ है। जब ये तीनों बच्चे दस-पंद्रह साल के आसपास के रहे होंगे, तब ये परिचित बीमार पड़ीं। अस्पताल से आने के बाद भी लंबे अर्से तक वे अक्सर थकान से ग्रस्त रहती थीं। ऐसे में अक्सर छोटे-मोटे कामों के लिए अपने बेटों में से किसी को आवाज लगा देती थीं, कि जरा जाना स्टोर रूम से पापड़ का थक्का ले आना या चूल्हे पर दूध चढ़ा देना वगैरह। इनके बच्चों को छोटे-छोटे घरेलू कामों की अच्छी ट्रेनिंग थी। साथ ही यह बोध भी था कि माँ को कुछ शारीरिक कष्ट है तो हमें सहायता कर देना चाहिए। कभी-कभी कोई मेहमान आते तो लगभग हँसी उड़ाते कि वे लड़कों से लड़कियों वाले काम करवा रही हैं! मगर उनके हँसी उड़ाने को परिवार ज्यादा तवज्जो नहीं देता था। लड़कों के पिता ने भी हमेशा माँ का हाथ बँटाने पर बेटों का हौसला ही बढ़ाया, कोई विपरीत कमेंट नहीं किया, लेकिन यह परिवार हमारे सामाजिक रवैए का प्रतिनिधित्व नहीं करता। हमने तो हर चीज को औरताना और मर्दाना में बुरी तरह बाँट रखा है। काम तो काम संवेदनाओं तक को हमने इस तरह लड़का-लड़की में बाँटा है कि हम ये तक भूल जाते हैं कि कोई भी व्यक्ति लड़का या लड़की बाद में है, इंसान पहले है।
अक्सर पुत्रों पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे माँ-बाप के सुख-दु:ख की बातें उस तरह नहीं सुनते जैसे बेटियाँ सुनती हैं। वैसे तो यह आरोप गलत है, बेटों में भी भावनात्मकता होती है। हाँ, हमारा समाज जरूर इनसे यह उम्मीद करता है कि वे कड़क बने रहें। उन्हें संघर्ष के काबिल बनाने के नाम पर उन्हें भावनात्मकता से काटकर रखा जाता है। जैसे मान लीजिए कोई बेटा परिवार के साथ बैठकर गपशप करता है तो कोई न कोई कह ही देता है क्या औरतों के बीच बैठा रहता है हमेशा! सीरियल साराभाई वर्सेज साराभाई में ममाज बॉय को दब्बू और कमजोर बताया गया है। उसे बड़े नाटकीय ढंग से आवाज पतली करके और कमर हिलाकर चलते हुए बताया गया है। जैसे कि माँ को प्यार करना सिर्फ स्त्रियों का ही गुण हो और पुरुषों के लिए भावनात्मक कमजोरी हो। माँ-बेटे के अलावा पिता और पुत्र के बीच भी सुख-दु:ख की बातें करने का चलन कम ही है। इसकी वजह पुरुष स्वभाव नहीं है, क्योंकि भावनाएँ तो सबके भीतर होती हैं और होना चाहिए, पर अक्सर पिता और पुत्र मन की बातें करने के बजाए करियर, व्यापार ऐसे ही मुद्दों पर बातें करते हैं, क्योंकि हमारी सामाजिकता पिता और पुत्र के बीच भी भावनात्मक तरलता के बजाए रोके गए आवेगों की सख्त दीवार की अपेक्षा करती है। बेटों में भावनात्मक जड़ता पैदा करने वाला यह समाज ही एक दिन उन पर संवेदनहीन और माँ-बाप के सुख-दु:ख न समझने वाला होने का इल्जाम लगा देता है। यह गलत है। बेटों में कोमल भावनाओं के विकसित होने को उनकी कमजोरी नहीं मानना चाहिए, बल्कि यह तो अच्छे इंसान होने का सबूत है। परिवार तो व्यक्ति की ताकत है, परिवार से जुड़ाव तो व्यक्ति को अधिक आत्मविश्वासी और अधिक पुख्ता नींव वाला बना देता है। कमजोर नहीं बनाता। तो फिर बेटों की भावनात्मकता से क्यों घबराना?
* निर्मला भुराड़िया
अच्छा विश्लेषण!!!
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