मंगलवार, 28 जून 2011

बुलबुले में रहने वाले


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सतरंगी बुलबुले यानी समझो इंद्रधनुष के बाल-बच्चे। हवा के ये गुब्बारे सभी को आकर्षित करते हैं। नन्हे-नन्हे, चमकीले, पारदर्शी, गोलमटोल बुलबुले नहाते हुए साबुन पर भी उतर आएँ तो व्यक्ति एक पल ठहर कर उन्हें देखता जरूर है। बच्चे बुलबुलों को अपनी फूँक से उड़ाकर उन्हें हवा में तैरते हुए देखकर बहुत खुश होते हैं। इसीलिए उनके लिए एक ऐसा खेल उपकरण भी बाजारों में अक्सर दिखता है, जिसमें फूँक मारो तो छोटे-बड़े, सतरंगी बुलबुले उड़ने लगते हैं। उड़ते हुए बुलबुलों को देखना ऐसा आनंद है जिसमें निश्छलता है। बुलबुला सुख का प्रतीक है। लेकिन बुलबुले में रहने वाले उन लोगों को कहा जाता है जो सदा अपने आरामगृह में रहते हैं। जिन्होंने संघर्ष नहीं किया होता है। जिन्होंने ज्यादा ऊँच-नीच नहीं देखी होती है। जिनके अपने उन्हें हथेली पर रखते हैं, वह भी कालीन बिछाकर। ऐसे बुलबुलावासियों को किसी दिन सचमुच के जीवन की वास्तविकताओं का सामना करना पड़े तो उनके लिए संघर्षों से पार पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। और यह घड़ी तो कभी न कभी आती ही है, क्योंकि बुलबुले में चाहे कितनी ही खूबियाँ क्यों न हों, उसमें एक खामी भी है। बुलबुला क्षणभंगुर है। एक दिन वह फूट ही जाता है। तब बुलबुलावासी को सुख-दु:ख के झोंकों का सामना करना ही होता है, जिसके लिए कि उसकी कोई तैयारी नहीं होती। अब तक आभासी जीवन जी रहे व्यक्ति को असल जिंदगी से रूबरू होना ही पड़ता है। कहते हैं बुद्ध के पिता राजा शुद्धोधन ने अपने पुत्र के लिए ऐसा महल बनवाया था जो बाकी दीन-दुनिया से अलग-थलग हो। वे नहीं चाहते थे कि बेटे को पता चले कि दुनिया में दु:ख, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु जैसी चीजें भी हैं, अत: उन्होंने उसके महल में सब युवाओं को नियुक्त किया। बूढ़ों को कभी भी राजकुमार के सामने आने नहीं दिया जाता था। मृत्यु की कोई खबर उन्हें नहीं दी जाती। महल में भोग-विलास के सब साधन और नाना प्रकार के सुख उपलब्ध करवाए गए। मगर कभी न कभी दु:खी, मृत, रोगी और बूढ़े जर्जर मनुष्यों से बुद्ध का सामना हो ही गया। जिससे उन्हें बहुत गहरा झटका लगा।

सच यही है कि सच की खुरदुरी जमीन पर चलने का स्वावलंबन, इंसान को असीम आत्मविश्वास देता है। चलता है वह गिरता है। जो गिरता है वह उठता भी है। जो चलता ही नहीं, उसकी पालकी जिस दिन टूट जाए वह हतप्रभ रह जाता है। आभासी जिंदगी से एक न एक दिन बाहर आना ही पड़ता है। बुलबुले के भीतर की आभासी जिंदगी के अलावा इन दिनों एक और प्रकार का आभासी जीवन उभरकर आया है। टीवी और कम्प्यूटर का वर्चुअल वर्ल्ड। यह वर्चुअल वर्ल्ड थोड़ी देर के लिए सुखद हो सकता है, उपयोगी भी वह है ही, मगर सदा इसी में रहने के अपने नुकसान हैं। कई गृहिणियाँ सदा टीवी से चिपकी रहती हैं। अपने असली संसार से ज्यादा वे टीवी सीरियलों के नकली और षड्यंत्रकारी संसार में रहती हैं। कुछ टीन एजर मैदानी खेल भी खुद खेलने की बजाय उन्हें वीडियो पर खेलते हैं, कम्प्यूटर के आभासी पुतलों को दौड़ा-दौड़ाकर। किसी के यहाँ मेहमान पहुँच जाएँ तो भी मेजबान टीवी देखते रहते हैं। पार्टियों में जाकर भी लोग एक-दूसरे से मिलने-जुलने की बजाय अपने-अपने मोबाइल से कहीं न कहीं बात करते रहते हैं। सहयात्रियों से बतियाने का प्रचलन भी कम हो गया है क्योंकि सामने बैठे असल आदमी से बात करने की बजाय लोग टेक्सटिंग करने, यानी दूर कहीं बैठे व्यक्ति से एसएमएस के जरिए वार्तालाप करने में मशगूल हो जाते हैं। इससे इंसान की जीवंतता की घड़ियाँ कम हो रही हैं और मशीनी घड़ियाँ बढ़ रही हैं। अधिक से अधिक समय तक मशीनी जीवन में व्यस्त रहने के कारण शारीरिक और मानसिक दोनों ही परेशानियाँ बढ़ रही हैं। मिलने-जुलने, हँसने-बोलने और सामाजिकता से वंचित लोग जीवन की छुअन खो रहे हैं। अत: मनोवैज्ञानिक अब सुझाने लगे हैं कि पर्दे पर दौड़ने वाली हलचलों से कुछ देर हटकर जीवन की असल हलचलों को भी थोड़ा महत्व दिया जाए। सच है आभासी और वास्तविक जिंदगी में तालमेल बैठाना आज की आवश्यकता है।

- निर्मला भुराड़िया

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