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नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक 'सर विद्याधर सूरज प्रसाद नायपाल" अपने असंवेदनशील बयानों द्वारा सनसनी फैलाने के लिए कुख्यात हैं। इस बार फिर उन्होंने महिला लेखकों अर्थात लेखिकाओं को कमतर बताने वाला बयान देकर खुद की थू-थू करवाई है। नायपाल महाशय का कहना है, 'महिलाएँ अच्छा नहीं लिखतीं। चूँकि वे भावुक होती हैं, इसलिए उनका नजरिया सीमित होता है और मानसिकता संकीर्ण। वो तो घर की भी नियंता नहीं होती, अत: यह बात उनके लेखन में भी झलकती है। मैं किसी भी महिला लेखक को अपनी बराबरी पर नहीं मानता। आप मुझे नाम हटाकर किसी महिला का लिखा पढ़ने को दें तो भी मैं समझ जाऊँगा कि यह किसी स्त्री ने लिखा है।"
वाह नायपाल साहब वाह, इस बयान पर तो तालियाँ पड़नी चाहिए, पड़ भी रही हैं, मगर सर विदिया के गाल पर। इस बयान के खिलाफ चारों तरफ से तड़तड़ की आवाजें सुनाई पड़ने लगी हैं। मगर नायपाल को इस बयान पर आड़े हाथों लेने वालों में सिर्फ स्त्रियाँ ही नहीं हैं पुरुष लेखक भी हतप्रभ होकर इस बयान के खिलाफ आ गए हैं। जातीय जिंदगी में भी नायपालजी का रिकॉर्ड स्त्रियों के प्रति असंवेदनशीलता का रहा है। उनकी पहली पत्नी पेट्रेशिया उनके सारे लेखन की अघोषित संपादक रही हैं, उनके जीते-जी ही नायपाल के ताल्लुकात मार्गरेट नाम की महिला से रहे। नायपाल की आधिकारिक जीवनी के अनुसार वे लंदन में वेश्यागमन भी करते रहे। पेट्रेशिया को कैंसर हो गया, उस दौरान नायपाल एक पाकिस्तानी पत्रकार नादिरा खानम से मिले, घर में बीमार बीवी और लंबे समय साथ रहने वाली प्रेमिका के बावजूद नायपाल की नादिरा से प्रेम की पींगे बढ़ने लगीं। पेट्रेशिया की मौत के दो महीने बाद नायपाल ने नादिरा से शादी भी कर ली।
खैर आएँ नायपाल साहब के बयान पर। लगता है नायपाल पुरुषों की उस जमात से हैं, जो अक्सर ''औरतों की अक्ल चोटी में होती"" जैसे बयान देकर औरतों को कमतर, तुच्छ, कमअक्ल साबित करने की कवायद करते रहते हैं। इस तरह के लोग मिसोजिनिस्ट अथवा नारी द्वेषी होते हैं। ये स्त्रियों के बारे में धारणाएं बना लेते हैं, फिर उन रूढ़िबद्ध धारणाओं के अनुसार ही सोच और व्यवहार करते हैं। ये स्त्रियों के सामर्थ्य पर सदा शक करते हैं। इनके शक को ध्वस्त करते हुए कोई स्त्री आगे बढ़ जाए तो फिर यह काम औरतों का नहीं, यह काम औरतों के बस का नहीं, तुमसे नहीं होगा, यह आपको नहीं आता, जैसी बातें करके मनोबल तोड़ने की कोशिश करते हैं। ऐसे लोग महिलाओं की योग्यता को खारिज करने के लिए कोई भी कदम उठा सकते हैं।
नायपालजी ने अपने बयान में यह जो कहा है कि औरतें भावुक होती हैं, इसलिए उनका नजरिया संकीर्ण होता है, जरा इस बात की भी मीमांसा करें। सच तो यह है कि भावप्रवणता तो अपने आसपास चल रही सामाजिक, भावनात्मक, वैचारिक और मनोवैज्ञानिक हलचलों को और अधिक सोखने की क्षमता देती है। एक लेखक का और किसी भी इंसान का दायरा इससे बढ़ता है, घटता नहीं। भावप्रवणता स्त्री लेखकों में अधिक होती है, यह कहना पुरुष लेखकों के साथ अन्याय भी होगा। रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र, टॉलस्टॉय ने जिस भावप्रवणता के साथ लिखा है वह सिर्फ स्त्रियों की ही बपौती नहीं है। कर्ण के भनोभावों को शिवाजी सावंत ने जिस शिद्दत के साथ उतारा है वह उनकी मानवीय संवेदनाओं की असीम समझ की परिचायक हैं। गेब्रियल गार्सिया मार्केज ने 'लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा" में प्रेम की तीव्रता की ऐसी कहानी लिखी है, जो बुढ़ापे में भी उसी शिद्दत से बरकरार रहता है, जैसे चौदह साल की उम्र में। कहना न होगा कि संवेदनशीलता तो लेखक को पात्र और पाठक के दिल तक पहुँचने की गहराई देती है। उसे संकीर्ण नहीं, उदार और विस्तृत बनाती है। संवेदनशीलता और करुणा तो मानवता का गुण है इसे स्त्री और पुरुष में बाँटना गलत है। संवेदनशीलता और भावप्रवणता ही इंसान को इंसान बनाती है और लेखक को लेखक! पत्थर दिल क्या खाक इंसान बनेंगे?
निर्मला भुराडिया
ओह कितना दुर्भाग्यपूर्ण लिखा है। शायद कहीं उनके अन्दर औरत को ले कर कुछ कुँठायें होंगी जिन से वो उब्र नही पा रहे। उन्हें पता होना चाहिये जब दिल और दिमाग मिल कर काम करते हैं तभी सही काम होता है। वो0 केवल लेखक होते हैं जबकि महिलायें जमीनी हकीकत और भावनाओं के के समिश्रण से लिखती हैं जिनें उन जैसे पुरुष समझ नही सकते वैसे भी पुरुष ने औरत को समझने की आवश्यकता ही कब समझी है। उसका अंह कभी उसे सही सोचने नही देता। धन्यवाद इस आलेख के लिये।
जवाब देंहटाएंOne who cannot respect women doesn't deserve it too.
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