बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

मिट्टी के कौए

नेवले और साँप की लड़ाई के बारे में बहुत कुछ कहा जाता है। नेवला साँप से नहीं डरता। दरअसल नेवला एक ऐसी जड़ी-बूटी के बारे में जानता है, जो साँप का जहर उतारती है। साँप से लड़ाई के पश्चात नेवला भाग कर जंगल में जाता है, उक्त जड़ी के इस्तेमाल के लिए। ग्रामीण अंचलों में रिवाज रहा है नेवले का पीछा करके इस जड़ी को लाने का, ताकि किसी मनुष्य को साँप के काटने पर नेवले की जानकारी का अपने लिए इस्तेमाल किया जा सके। अधिकांश पशु-पक्षियों में ऐसी अद्वितीय क्षमताएँ होती हैं, जो इंसानी क्षमताओं से बहुत ऊपर है। जैसे कबूतरों में अद्भुत दिशा बोध होता है, उनके मस्तिष्क में निहित विशिष्ट चुम्बकीय अवयव के कारण। कुत्तों की घ्राण शक्ति का इस्तेमाल मनुष्य जासूसी के लिए करता ही आया है। बिल्लियों में भी भूम्कप, तूफान आदि प्राकृतिक आपदाओं का पता लगा लेने की अद्भुत शक्ति होती है। कहते हैं बिल्ली के मुँह में नाक के छिद्र के करीब एक विशेष अवयव होता है। इसे जेकबसन्स ऑर्गन कहा जाता है। इसके जरिए न सिर्फ बिल्ली की सूँघने की क्षमता बढ़ जाती है, बल्कि यह अवयव बिल्ली की छठी इंद्री की तरह काम करता है। जेकबसन्स अवयव के जरिए बिल्लियाँ तूफान के पहले वातावरण में बिखरे ऑयन्स को पकड़ लेती है। बिल्ली की मूँछें हल्के से कंपन को भी नाप लेती है।

जानवरों की इन क्षमताओं को पारंपरिक ज्ञान में हमेशा स्थान मिला है और मनुष्य ने इसका विश्लेषण कर पशुओं की योग्यताओं का फायदा इंसानी समाज को भी दिया है। यह पारंपरिक बुद्धिमत्ता कहावतों और किस्सों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाई गई। कुछ बुद्धिमत्ता शगुन विचार के रूप में भी बता दी गई, ताकि आमजन भी इसका उपयोग कर लें, लेकिन बात जब बदलना शुरू होती है तो मूल बात कहीं की कहीं रह जाती है। बिगड़े हुए रूप में तर्क बगैर अपनाया गया पारंपरिक ज्ञान रूढ़िवाद और अंधविश्वास में तब्दील हो जाता है। जैसे कि बिल्ली की अद्वितीय क्षमताओं को समझने की बजाय यह मान्यताएँ चल पड़ीं कि बिल्ली यमराज को देख लेती है। उसका रोना अपशगुन है। बिल्ली रास्ता काट जाए तो काम नहीं होता वगैरह-वगैरह। अंधविश्वासी इंसान ने आपातकाल में बिल्ली को उसकी क्षमताओं के कारण मार्गदर्शक मानने की बजाय उसे भय और अपशगुन का प्रतीक मान लिया। अँधेरे में, पीली आँखें चमकाती काली बिल्ली किस्से-कहानियों की दुष्टात्मा बन गई।

दरअसल पशु, पक्षी, पेड़, प्रकृति के बगैर इंसान की कोई गति नहीं है। इनसे हेल-मेल रखना, इनको अपनी जीवनचर्या में शामिल करना, उनकी रक्षा करना, इंसान का कर्तव्य भी है और इसी में उसकी भलाई भी है। प्रकृति का चक्र टूटने पर इंसान कैसे बचेगा, मगर प्रकृति के साथ जुड़ने की प्रथाओं को इंसान कैसे रूढ़ि में परिवर्तित कर लेता है उसका एक उदाहरण। कटते वनों, बढ़ते मशीनीकरण, शहरीकरण की वजह से कौए लुप्त हो रहे हैं। अत: हरिद्वार में लोग मिट्‍टी के कौए बनाकर पिंडदान कर देते हैं और पुरखों को काग-कौर उस नकली-निर्जीव कौए के जरिए दे डालते हैं। यानी मिट्‍टी के कौए को खीर-पूड़ी खिलाकर रस्म निभा देते हैं! काश! ऐसा करने की बजया लोग पेड़ लगाएँ और प्रकृति की रक्षा करें, ताकि असली कौए न खत्म हो तभी कौओं को खिलाने की रस्म का कोई मतलब होगा। अन्यथा पारंपरिक बुद्धिमत्ता सिर्फ कर्मकांड और रूढ़ि बनकर रह जाएगी।

- निर्मला भुराड़िया

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