पाकिस्तान में लेखक-फिल्मकार गुलजार का पुश्तैनी घर था। गुलजार उस घर को पुनः देखने जाने से बचते रहे। उनका कहना है उनकी स्मृति में उस घर का प्रवेश द्वार विशाल है। एक बच्चे के कद और नजरों ने वह आकार अंकित किया हुआ है। यदि वे अब वहाँ जाते हैं तो वह दरवाजा छोटा हो जाएगा। हाल ही में एक बाल मंदिर में पूर्व छात्रों का एक समारोह हुआ था। इसमें ऐसे छात्र-छात्राएँ भी थे, जो तीस-पैंतीस या चालीस साल बाद अपने बचपन के उस विद्यालय का नजारा कर रहे थे जिसमें वे पहली से पाँचवीं तक पढ़े थे। अधिकांश ने कहा हमें जो खिड़की-दरवाजे बड़े लगते थे वे अब छोटे-छोटे लग रहे हैं। हालाँकि उन्हें यह बात बुरी नहीं लग रही थी। वे तो पूरे स्कूल का मुआयना करना चाहते थे। अपनी नजर में बदले हुए स्कूल के आकार को देखना और उसे अपनी स्मृतियों से तौलना अच्छा लग रहा था। खैर, अपना-अपना तरीका है। यहाँ मुद्दा यह है कि उम्र के पड़ावों के परिवर्तित होने के साथ ही दृष्टि बदलती जाती है। चीजों के आकार देखने वाली भौतिक दृष्टि ही नहीं, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक दृष्टि भी।
हाल ही में एक फिल्म आई थी "टर्निंग थर्टी"। अभिनेत्री गुल पनाग ने इसमें मुख्य भूमिका अदा की थी। इसमें एक युवती के तीस साल की उम्र में प्रवेश करने पर उसकी प्राथमिकताएँ और जीवन के प्रति उसका नजरिया बदलने पर कहानी फोकस की गई है। युवती ही क्यों, स्त्री-पुरुष दोनों में ही उम्र के विभिन्ना पड़ावों पर मानसिकता बदलती है। और तीस ही क्यों चालीस-पचास पर भी दुनिया अलग चश्मे से दिखाई पड़ने लगती है। मतलब यह नहीं कि व्यक्ति के मूल स्वभाव में अंतर आता है या वह उम्र के साथ कम या ज्यादा आदर्शवादी अथवा कम या ज्यादा भ्रष्ट हो जाता है। अंतर आता है भावनात्मकता में और अपने ही जीवन को देखने की दृष्टि में। मसलन सत्रह साल की उम्र में किसी ने कोई किताब पढ़ी है उसे वह पैंतीस की उम्र में फिर पढ़ेगा तो उसे और गहरे अर्थ समझ आएँगे। बौद्घिक समझ के अनुसार उसने वह पुस्तक सौ प्रतिशत ग्रहण कर ली होगी तब भी परतों में छुपे दार्शनिक अर्थ बाद में पकड़ में आएँगे।
एक और परिवर्तन चालीस-पचास की देहरी पर खड़े स्त्री-पुरुषों में आने लगता है। वे अक्सर पलटकर देखते हैं। इसे कोरा नॉस्टल्जिया नहीं कहा जा सकता। कितनी दूर तक चलकर आए यह देखना एक मीठा एहसास भी होता है। इस उम्र में युवावस्था के हारमोन उत्तापे करना बंद कर देते हैं। तूफान गुजर जाने के बाद की शांति में घर का सुरक्षित टापू अच्छा लगने लगता है। अपने एंकर यानी पति या पत्नी की महत्ता बेहतरीन तौर पर समझ आती है। युवावस्था में पुरुष में टेस्टोस्टेरॉन और महिला में एस्ट्रोजन उफान पर होता है। चालीस के बिंदु पर ये ड्रॉप हो जाते हैं। वैसे भी कहा जाता है कि हर पुरुष में कुछ प्रतिशत स्त्रीत्व का और हर स्त्री में कुछ प्रतिशत पुरुष का होता है। पर चालीस पार पुरुषों में स्त्रियोचित कोमलता, भावनात्मकता बढ़ती दिखाई देने लगती है, स्त्रियों के हृदयाघात की आशंकाएँ बढ़ती हैं।
उम्र के इस मोड़ पर दोनों ही अपनी जड़ों को तलाशने लगते हैं। जवानी में करियर, बच्चों को बड़ा करने में व्यस्त अपनी युवा दुनिया में मस्त लोगों को बाद में अपने भाई-भतीजे, परिवार, माँ-बाप, पुरखों के घर, बचपन के मित्र-परिचित फिर याद आने लगते हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। जीवन की दौड़ में बिछुड़ों से मिलने का सुख इस मोड़ पर उठाया जा सकता है। अपनत्व और स्थायित्व का आभास इस उम्र का इनाम है। इसका आनंद उठा लिया जाना चाहिए। आखिर उम्र के इस मोड़ पर ही तो यह एहसास भी गाढ़ा होता है कि जिंदगी हमेशा के लिए नहीं है। तो क्यों न उसे थोड़ा जमकर जी लें।
- निर्मला भुराड़िया
fir badhiya lekhan.. kai baaten apne par likhi si lageen.
जवाब देंहटाएं