बुधवार, 1 सितंबर 2010

माँ


ब्रह्मांड सुंदरी प्रतियोगिता में भारतीय सुंदरी सुष्मिता सेन से एक सवाल ‍िकया गया था- जीवन का सार क्या है? उन्होंने कहा 'मातृत्व'। और इस जवाब ने उन्हें ताज पहनवा ‍िदया। क्योंकि जवाब सचमुच बहुत सटीक था। हालाँकि मातृत्व का संबंध ऐसे किसी भी तात्कालिक स्वार्थ से नहीं है। मातृत्व नि:स्वार्थता का चरम है। इसीलिए किसी भी इंसान के ‍िलए माँ का प्यार जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपहार है, तो मातृत्व स्वयं स्त्री के ‍िलए भी ईश्वरीय वरदान है, जिसमें वह प्रेम के आध्यात्मिक चरम को पा लेती है। माँ के ‍िलए बच्चा क्या है, अपने ही ‍िजस्म का ‍िहस्सा जो उसे सामने चलते-फिरते ‍िदखता है। अपने ही अस्तित्व का अंश जो उसके सामने है। बच्चे की भूख माँ को लगती है, बच्चे की व्यथा माँ को शूल बनकर चुभती है... यह स्थिति है दूसरे में स्वयं को समझने की। वृहद अर्थों में लागू होने पर यह मानसिकता समस्त इंसानियत को नया आयाम देती है। तब जगत करुणा से ओतप्रोत हो, स्त्री जगत-जननी हो जाती है। ओशो ने एक जगह कहा भी है- 'मातृत्व का कोई संबंध शारीरिक, जैविक उत्पत्ति से नहीं है वरन एक आध्यात्मिक प्रेम से है, एक भाव से है। जिस क्षण तुम किसी दूसरे को अपने जैसा अपना लो, जैसे तुमने उसे जन्म ‍िदया हो...।' सच तो यह है ‍िक ममता का यह बीज पुरुष में भी है। यह है ‍िपतृत्व में मातृत्व की भावना। संसार के असंख्य बच्चों ने अपने ‍िपता में भी यह निश्‍चित ही महसूस किया होगा।

फिलवक्त दुनियावी माँ पर लौटें तो माँ दुनिया का सबसे ‍िन:स्वार्थ रिश्ता है और सर्वाधिक बेतकल्लुफ भी। वह अपने बच्चों से प्रेम की उम्मीद जरूर रखती है लेकिन प्रतिदान की अपेक्षा कभी नहीं। बच्चे जो चाहे करें वह तो उनके ‍िलए करती चलती है। बच्चे भी इस तथ्य को जानते हैं ‍िक माँ के समक्ष उनके समस्त दोष क्षम्य हैं, वे जो भी करें माँ उनकी ही रहेगी। बच्चों की इस बात में माँ की उपेक्षा नहीं प्रेम की पराकाष्ठा है, सर्वाधिक सुरक्षित प्रेम का एहसास है। यह प्रेम प्रियत्व के खो जाने के भय से मुक्त है। इसी में इसकी अलौकिकता है। प्रस्तुत है चंद पंक्तियाँ माँ के बारे में क्योंकि इस ‍िवषय का अंत किसी भी ‍िनष्कर्ष पर नहीं हो सकता है। यह ‍िवषय अनंत है। शब्दों और अभिव्यक्ति की सीमाएँ इसके समक्ष छोटी हैं।

'वह तिल-तिल कर जलती रही
देने को मुझे प्रकाश,
चलती रही सलाइयों सी
बुनने को मेरा अस्तित्व।
तूफानों में डगमगाती कश्ती सम्हालकर
अजेय इच्छाशक्ति की पतवार बनाकर
मुझे पार लगाती रही,
स्वयं ‍िशथिल होकर भी चप्पू चलाती रही।
प्यार का दीपक जलाकर
रातों में जगती रही
देकर के छाँव मुझे
खुद धूप में चलती रही।
काँटों भरी राहों में भी, अँधेरे की बाँहों में भी
ढूँढकर लाती रही वह, मेरे लिए सूरज की ‍िकरण।

- निर्मला भुराड़िया

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