दुनिया के सबसे बड़े रईसों में से एक वॉरेन बफेट ने हाल ही में कहा- "दौलतमंद पालकों को अपने बच्चों के लिए उतना ही पैसा छोड़ना चाहिए, जिससे कि वे अपनी योग्यता का कार्य अच्छे से कर सकें, मगर इतना नहीं छोड़ना चाहिए कि वे कुछ कार्य ही न करें।" बफेट के ही नजदीकी एक अन्य अमेरिकी कॉर्पोरेट बिल गेट्स ने भी हाल ही में घोषणा की है कि वे अपनी अथाह, अकूत दौलत में से सिर्फ उतना ही अपने बच्चों को देंगे जितने से उनका जीवन सुगम रहे, बाकी राशि वे दान कार्यों में लगाएँगे। वॉरेन बफेट और बिल गेट्स की ये बातें सिर्फ बातें नहीं हैं। ये लोग स्वयं सादगी से रहकर वंचितों और बीमारों के लिए बहुत कार्य कर रहे हैं। इनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं है, अतः ये जो कह रहे हैं वे करेंगे भी इसका भरोसा है।
भारत में यह दार्शनिक कथन सदियों से चल रहा है, "पूत कपूत तो क्यों धन संचय, पूत सपूत तो क्यों धन संचय।" भारतीय परंपरा में दान की महिमा भी काफी है। कुछ भारतीय रईस भी ऐसे हैं जो थोड़ी-बहुत या काफी कुछ चैरिटी करते हैं। मगर भारतीय रईसों का मुख्य लक्षण दिखावा है। चलिए ठीक है सादगी करने का माद्दा और सादगी का आत्मविश्वास भी हरेक के पास नहीं होता सो रईस अपनी सुख-सुविधा पर खर्च करते हैं। बात यहीं तक होती तो भी ठीक था। भारतीय अमीर व्यक्ति यह दिखाने पर बहुत खर्च करते हैं कि वे अमीर हैं! भारतीय और अप्रवासी भारतीय रईसों की जीवनशैली बेहद आडंबर मंडित है और वे अपनी संततियों को न सिर्फ अपनी सारी संपत्ति वैसी की वैसी देते हैं, बल्कि वे अपने राजकुमारों को फूहड़ दिखावा, दौलत का अहंकार, प्रदर्शन भी विरासत में देते हैं। अपनी कार्पोरेट गद्दी तो देते ही देते हैं। टाटा जैसे उदाहरण कम ही हैं, हालाँकि वे विवाहित नहीं हैं, उनकी संतानें भी नहीं हैं, मगर उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के चयन के लिए एक समिति बनाई है, जिसमें वे स्वयं नहीं हैं। यानी वे अपने उत्तराधिकारी के रूप में किसी को थोपना भी नहीं चाहते। इसके ठीक उलट हाल है देश के राजनेताओं का। कहने को तो देश में प्रजातंत्र है, नेता जनता द्वारा चुने हुए जनता के सेवक हैं, मगर जैसे हाल ही में लालूप्रसाद यादव ने अपने बेटे की "ताजपोशी" की है, वैसे ही तमाम राजनेता जो चाहे किसी भी दल के हों, उत्तराधिकार में देश की गद्दियाँ अपने-अपने परिजनों को पूरी बेशर्मी से सौंप रहे हैं। अब क्या आशा करें? स्वयं की संपत्ति तो छोड़िए, वे तो देश को ही अपनी निजी संपत्ति मानकर व्यवहार कर रहे हैं।
बेतहाशा दौलत वालों को तो छोड़िए हमारे यहाँ सामान्य रईस भी अपने धन के उपयोग से भी ज्यादा उसके फूहड़ प्रदर्शन में यकीन रखता है। ऐसे ही एक अच्छे पैसे वाले के यहाँ कृष्ण-जन्म उत्सव मनाया जा रहा था। बैंडबाजे, कृष्ण की मूर्ति के लिए रेशम के वस्त्र, चाँदी की बाँसुरी, असली रत्नों के गहने तो थे ही, उन्होंने उत्सव के बाद काजू वर्षा की। गृहस्वामी ने कृष्ण रूप में सजे अपने पाँच वर्षीय पुत्र को गोद में लिया, एक बड़े बर्तन में काजू, किशमिश, मखाने लिए और गोदी में चढ़े अपने पुत्र के हाथों व स्वयं मेवे उछाले और बिखेरे। वे मेवे आने-जाने वालों के पाँव में आते रहे। एक अतिथि ने ऐतराज किया पर वे माने नहीं। इन्हीं सज्जन की सदा हीरों से लदी रहने वाली धर्मपत्नी अपने घरेलू सेवक की बच्ची को कभी काजू का एक टुकड़ा नहीं देती। यह कैसा धर्म उत्सव है जिसमें मानव धर्म ही नहीं। लोगों को खाने को नहीं और बेशकीमती खाद्य पैरों तले कुचलने को फेंका गया, सिर्फ यह दिखाने के लिए कि देखो हमारे पास इतना है कि हम खा ही नहीं फेंक भी सकते हैं। गोद में चढ़े नन्हे पुत्र ने विरासत में क्या यही पारंपरिक दंभ और दिखावा नहीं लिया होगा?
- निर्मला भुराड़िया