शनिवार, 23 नवंबर 2013

बू

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इत्र और फूल में खुशबू होती है, यह कोई सूचना नहीं। खुशबू खुद अपने होने की सूचना दे देती है। यह तो हुई सचमुच की खुशबुओं की बात, जो वस्तुत: होती है, हमारी नासिका भी जिसे पकड ही लेती है। मगर क्या विचारों, भावनाओं और आचरण की भी खुशबू होती है? भावनाओं की खुशबुओं को कवियों ने हमेशा से पकडा है भले वह पहले प्यार की खुशबू हो या बकौल गुलजार साहब आंखों की महकती खुशबू जिसे हमें हाथ से छूकर रिश्तों का इल्जाम नहीं देना है! ये वे खुशबुएं हैं जो नहीं होतीं, पर होती हैं, जिन्हें हमारे इंद्रिय तंत्र नहीं आत्मा की तरंगों द्वारा कैच किया जाता है। इसी प्रकार आचरण की भी गंध होती है जो नाक से नहीं पकडी जाती पर उसकी उपस्थिति महसूस हो ही जाती है। प्यार की खुशबू, मैत्री की खुशबू, अपनेपन की खुशबू होती है। उसी तरह मदद, न्यायप्रियता और अच्छाई की भी खुशबू होती है। जिसके पास अच्छाई को समझने, उसकी कद्र करने का एंटिना हो, वही इस खुशबू का आनंद ले पाता है। इंसानियत की खुशबू उस व्यक्ति को तो महकदार व्यक्तित्व का स्वामी अथवा स्वामिनी बनाती ही है उसके घेरे में आने वालों को भी मन: शांति का वरदान देती है।
यदि अच्छे आचरण की खुशबू हो सकती है तो बुरे आचरण की दुर्गन्ध भी होती ही होगी। नाजी जर्मनी के दौर को बताने वाली कई किताबें समय-समय पर आई हैं। ऐसी ही एक किताब है 'हिटलर्स फ्यूरीज : जर्मन विमन इन नाजी किलिंग फील्ड्स।" नाजियों ने यहूदियों के प्रति जातिवादी घृणा आम जर्मनों के मन में भी भर दी थी। अत: नाजी सैनिक, शासक तो छोड़िए आम जर्मन पुरुष और स्त्रियां भी यहूदी आबादी के प्रति क्रूर और हिंसक व्यवहार करने लगे थे। बहुत थोड़े जर्मन थे जो आत्मा से सोचते थे और जाति के आधार पर की जाने वाली इस अमानवीयता से बहुत दु:खी थे। इन्हीं में से एक एनट शकिंग ने दु:खी होकर अपने घर पर यह पत्र लिखा था, 'पापा सही कहते हैं कि जिन लोगों को कोई नैतिक संकोच नहीं होता वे अजीब प्रकार की दुर्गन्ध छोड़ते हैं। मुझे अब जल्दी ही पकड में जाता है कि मेरे आस-पास कौन है जो दुष्ट हैं, क्योंकि उनमें से खून की बू आती है।" इस किताब के जरिए वेंडी लोअर ने एक महत्वपूर्ण बात की ओर ध्यान दिलाया है जो बाकी इतिहासकार भी कहते आए हैं, वह यह कि आम जनता के शामिल हुए बगैर इतने बड़े पैमाने पर मास मर्डर किए जाना संभव नहीं था। भारत में भ्रष्टाचार के लिए भी हम यह कह सकते हैं। दूसरे यह किताब, यह भी याद दिलाती है कि यह मानना गलत होगा कि जर्मन औरतें दुष्टता की राजनीति से कोई संबंध नहीं रखती थीं। सच तो यह है कि इस जातिगत घृणा और हिंसा में उस समय की जर्मन स्त्रियां भी शामिल थीं। उन्होंने भी किसी भी प्रकार की मानवीय संवेदना और कोमलता का प्रदर्शन नहीं किया था। भ्रष्टाचार के संदर्भ में ही हमारे यहां के लिए भी हम यह कह सकते हैं कि स्त्रियां भी कोई दूध की धुली नहीं हैं। रोजमर्रा के सामाजिक जीवन में जो भ्रष्टाचार व्याप्त है उसमें पुरुषों के साथ स्त्रियां भी शामिल हैं। अत: सिर्फ राजनीति के बदलने से देश और समाज नहीं बदलेगा। हम सबके बदलने से बदलेगा।
हम सबको नैतिकता की खुशबू की जरूरत है ताकि हम सुख-शांति से अच्छा जीवन जिएं। अनैतिकता हमारा सबका ही जीना मुश्किल करती है। वैसे भी व्यक्ति कृत्य छुपा सकता है पर कृत्य की गंध नहीं! वह कभी कभी प्रकट हो ही जाती है।

रफ़्तार

3 टिप्‍पणियां:

  1. बिलकुल सही फरमाया आपने ... मुझे नरेन्द्र मोदी की बातों से और उसके चहरे से यही दुर्गन्ध आती हे !

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  2. आपके विचारों से सहमत हूँ।

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  3. आपके विचारों से सहमत हूँ।

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