एक-दो साल पहले की बात होगी, इंदौर के पास के किसी कस्बे में रहने वाले एक व्यक्ति अपने लिखे एक खंड-काव्य की पाण्डुलिपि लेकर मेरे पास आए, इस आग्रह के साथ कि मैं उस पुस्तक की प्रस्तावना लिख दूं। मैंने उनसे उनके काव्य की विषयवस्तु के बारे में पूछा। तब उन्होंने जो बताया उसके बाद मैंने इंकार कर दिया कि मैं आपकी भावनाओं का आदर करती हूं पर विषयवस्तु से मैं सहमत नहीं हूं अत: मैं प्रस्तावना नहीं लिख पाऊंगी। इस साफ इंकार से उन्हें निश्चित ही बुरा लगा होगा। पर कभी-कभी स्पष्ट कह देना भी अच्छा होता है ताकि शरमा-शरमी में आप सामने वाले व्यक्ति के उस नजरिये को, जो आपको गलत लग रहा है, पुष्ट करने में सहयोग न दें। बल्कि हो सके तो साफ बात करके यह बता दें कि आपको इसमें क्या गलत लगा। इससे सामने वाले को भी दूसरे कोण से बात समझने में मदद मिलेगी। यह सज्जन जो खंड-काव्य लाए थे वह मेवाड़ की पन्नाा धाय की कहानी पर था।
हममें से अधिकांश लोग पन्नाा-धाय की कहानी जानते हैं। हममें से कुछ लोगों के कोर्स में 'दीपदान" नामक एकांकी भी था जो यह बताता था कि किस तरह एक बागी, मेवाड़ के राजकुमार उदय का कत्ल करना चाहता था, मगर पन्नाा धाय ने राजकुमार को जूठी पत्तलों के टोकरों में चुपके से रवाना कर दिया और राजकुमार की जगह अपने बेटे चंदन को सुला दिया। बागी आता है, तलवार उठाता है और राजकुमार समझकर धाय-पुत्र चंदन का सिर धड़ से अलग करके चला जाता है। एकांकी का यह दृश्य बेहद हृदय विदारक है, रोंगटे खड़े कर देने वाला है। हम लोगों ने अपने बचपन में इस एकांकी को स्कूली बाल-सभा में मंचित भी किया है। मगर अब बड़े होने पर बात एक भिन्ना कोण से समझ में आती है।
कोई एक बात एक समय-काल-परिस्थिति में प्रसंगवश हो सकती है, मगर जरूरी नहीं कि वह दूसरे समयकाल में जस की तस प्रासंगिक रह जाए। उस समय के मेवाड़ घराने के लिए उन स्थितियों में पन्नाा धाय का बलिदान बहुत महान रहा होगा, मगर आज हम उसका महिमामंडन नहीं कर सकते क्योंकि अब हम एक नई सदी के प्रजातांत्रिक समय में रह रहे हैं। अब कोई भी निष्ठा एक तरफा नहीं हो सकती। निष्ठा को जवाब निष्ठा से देना होगा। अब तो श्रेष्ठिजनों और सामंतों द्वारा पन्नाा धायों का बलिदान चुकाने का समय आ गया है। अब कोई पन्नाा किसी धनिक मालिक के लिए अपने पुत्र को कुर्बान क्यों करे? और हम ऐसी कुर्बानी को महिमा मंडित क्यों करें? माना कि वात्सल्य भेदभाव नहीं करता पन्नाा के लिए शायद राजकुमार जिसे उन्होंने दूध पिलाया होगा और अपना बेटा बराबर वात्सल्य का अधिकारी रहा होगा। मगर बेटे का बलिदान तो उन्होंने इसलिए किया कि राजा के खून की कीमत उनके खून से ज्यादा थी। राजवंश के खून को बचाना जो था।
अब हम नए समय में रह रहे हैं। एक का खून खून और दूसरे का खून पानी नहीं है। सबका खून एक है। निष्ठा एक अच्छा गुण है। मगर इस गुण की जरूरत तो सबको है श्रेष्ठिजनों को ही क्यों? एक-दूसरे की निष्ठा के सहारे ही हम मजबूत होते हैं। अत: अपने घरेलू मददगारों से निष्ठा की जितनी उम्मीद हमें हैं, उतनी ही निष्ठा उनके और उनके बच्चों के प्रति हमारी भी होना चाहिए। उनके बच्चे जिंदगी की बलि चढ़ जाएं और हम देखते रहें इससे अच्छा है कि हम जिंदगी के ऊंचे शिखरों पर जाने में उनकी मदद करें। सबको शिक्षा का अधिकार है, सबको अच्छे जीवन का अधिकार है। नमक का कर्ज जैसे मुहावरों की अब जरूरत नहीं है। नमक बहुत सस्ता है। अब तो रामू काका के उस स्नेह का कर्ज चुकाने का समय है जो उन्होंने आपको अपने कंधे पर बैठाकर दशहरा दिखाने के वक्त आप पर लुटाया था।
आपका लेख प्रेरणास्पद हे !
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