शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

हमें चाहिए, कुछ और सत्य-शोधक

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जैसा कि अधिकांश लोग जानते ही होंगे भारत के कुछ हिस्सों में देवदासी प्रथा है। इस प्रथा के तहत अपनी कन्या को लोग किसी मंदिर को दान कर देते हैं। दक्षिण भारत में ये लड़कियां देवी येलम्मा को समर्पित की जाती हैं। प्राचीनकाल में ये लड़कियां मंदिरों में पूजा-अर्चना में सहयोग नृत्य करती थीं। मगर धीरे-धीरे इनका यौन-शोषण चालू हो गया और कालांतर में तो देवदासी होने का छद्म अभिप्राय ही यौन कर्म हो गया। अब तो देवदासियां सीधे देह व्यापार में धकेल दी जाती है। अभिप्राय अब छद्म भी नहीं रहा। यह घृणित प्रक्रिया साफ, खुली और बेशर्म है। हालांकि देवदासी प्रथा निरोधक कानून 1988 में ही गया है मगर प्रथा जारी है। लोगों के अंधविश्वास ने इसे जिंदा रखा है। इन क्षेत्रों के एक खास आबादी में यदि घर में पुत्र जन्म नहीं होता तो वे अपनी पहली पुत्री को देवी येलम्मा को दे देते हैं ताकि येलम्मा प्रसन्ना होकर उन्हें पुत्र प्रदान करें। घर में कोई बीमार है, तो उसके ठीक होने की मानता लेकर भी घर की कन्या को मंदिर को दान कर दिया जाता है। कोई लड़की दो मुंहे बाल लेकर पैदा हो, तो उसे अपशगुनी मानकर मंदिर में चढ़ा दिया जाता है। समारोहपूर्वक नन्हीं, नौ-दस साल की बच्ची के गले में देवी येलम्मा की कंठी के दानों की माला पहना दी जाती है और बच्ची मंदिर को सौंप दी जाती है। इस नन्हीं अवस्था में ही उसका यौन शोषण शुरू हो जाता है। आजकल तो ये बच्चियां सीधे ही रेड लाइट एरिया में ही भेज दी जाती है। कुछ माता-पिता इस अंधविश्वास के तहत भी कुरीति निभाते रहते हैं कि प्रथा तोड़ने पर देवी के कोप का कहर परिवार पर पड़ेगा। इस तरह देह व्यापार चलाने और वासना पूर्ति करने वालों का काम चलता रहता है, क्योंकि कानून चाहे बन जाए पर अंधविश्वास के चलते प्रथा के विरोध में सामाजिक माहौल और जनमत नहीं बन पाता और धर्म की ढाल के पीछे घृणित कुकृत्यों के सौदागर अपना काम करते रहते हैं।
और भी कई अंधविश्वास हैं जिनके दूर हो पाने की वजह से अमानवीयता अपनी हदें लांघ जाती है। जैसे आज भी हिन्दुस्तान के कई गांवों में औरतें डायन बनाकर मार दी जाती हैं। ग्रामवासियों के अंधविश्वास का फायदा स्वार्थी तत्व उठाते हैं और अक्सर ऐसी अकेली, वृद्ध या विधवा स्त्री को डायन चिन्हित करके रास्ते से हटा देते है, जिसकी संपत्ति वे हड़प करना चाहते हैं। जनता भी अनजाने में शातिरों का साथ देती है, क्योंकि वह अपने अंधविश्वासों के चलते सच को पहचान ही नहीं पाती। इसी तरह अंधविश्वासों के ही चलते, छुटपुट ही सही, आज भी नरबलि के किस्से घटित हो जाते हैं। कभी-कभी ऐसी खबरें भी आती है कि फलां तांत्रिक का कहने पर फलां ने रिश्तेदार के बच्चे की बलि चढ़ा दी। ये खबरें आती हैं तो विश्वास नहीं होता कि हम इक्कीसवीं सदी में हैं। इस सदी में मनोरोग संबंधी चिकित्सा भी काफी विकसित हो चुकी है, मगर आज भी हमारे यहां बहुत बड़ा तबका ऐसा है जो अपनों की बीमारी को दबाए रखता है, इसे पकाता जाता है और झाड़-फूंक करवाता रहता है। दक्षिण के ही एक मंदिर में एक खास पेड़ के तने पर कीलें ठुकी हुई हैं। लोग अपने मनोरोगी अपनों को लेकर यहां आते हैं और कीलों पर उनका माथा ठुकवाते हैं, इस अंधविश्वास के चलते कि ऐसा करने से रोगी ठीक हो जाएगा। होता उल्टा है रोगी खून-झार होकर और मानसिक रूप से और बीमार होकर जाता है। मगर अंधविश्वासियों को कैसे समझाया जाए? तर्क की भाषा वे समझते ही कहां हैं। इन अंधविश्वासियों की नासमझी के सहारे जिनकी दुकान राजनीति चलती है वो इन तक चेतना का उजाला आने भी नहीं देना चाहते। ऐसा नहीं कि निहित स्वार्थी तत्व किसी एक समुदाय या एक राजनीतिक सेक्टर में हों। सबके अपने-अपने अंधविश्वास हैं। यदि '" में देवदासी प्रथा है तो '" में भी देवदूत की मूर्ति आंखों से खून बहाती है और '" में भी जिन्ना-जिन्नाात, ऊपर की हवा, झाड़-फूंक और स्त्रियों को बांधे रखने के लिए धर्म की स्वार्थी व्याख्याएं हैं।
सवाल यह है कि जन-जागरण हो तो कैसे? अंधविश्वास और विश्वास में एक महीन-सी रेखा का फर्क है और यह फर्क बहुत से लोग समझ नहीं पा रहे। अंधविश्वास का विरोध उन्हें अपने विश्वास, अपने धर्म का विरोध लगता है। हाल ही में अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष नरेन्द्र दाभोलकर की महाराष्ट्र में हत्या हो गई। स्वतंत्र विचारों के प्रति यह दमनकारी असहिष्णुता आज के युग में भी है। मगर फिर भी विचारकों और सुधारकों को अपना काम करते रहना चाहिए। इससे कहीं कुछ कुछ परिवर्तन अवश्य होता है, नया विचार भी बनता है। देश में यदि राजाराममोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर, ज्योतिबा फुळे, पंडिता रमाबाई, डॉ. अम्बेडकर आदि जैसे विचारक और सत्य-शोधक होते तो हम अपनी पीठ पर और भी कई कुप्रथाएं ढो रहे होते।
निर्मला भुराड़िया


रफ़्तार

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