बुधवार, 14 अगस्त 2013

लड़की सब अच्छी, लड़के सब खराब ऐसा नहीं होता

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हिंदी फिल्मों की अभिनेत्री जिया खान ने, आत्महत्या कर ली। वे खासी खूबसूरत थीं, युवा थीं जिनके आगे एक लंबा और संभावनाशील भविष्य रखा था। उन्होंने अमिताभ बच्चन और आमिर खान जैसे उन दिग्गजों के साथ काम किया था जिसका कि सपना हर छोटी-बड़ी अभिनेत्री रेखा करती होंगी। मगर जिया ने अपने गले में फांसी का फंदा डाल लिया। आखिर क्यों? इस क्यों के कई जवाब हो सकते हैं और कई अटकलें भी। सत्य तो जिया के साथ ही चला गया, पर जिया ने ऐसा क्यों किया होगा इसका विश्लेषण करना जरूरी है क्योंकि जिया ही नहीं बहुत से युवा ऐसे कदम उठा लेते हैं।
जिया का असली नाम नफीसा था। उनके पिता पाकिस्तानी थे, जो जिया के पैदा होने के पूर्व ही उनकी मां से अलग हो गए थे। जिया का अपने पिता से कोई संपर्क नहीं रहा। इसके बाद उनकी मां ने दो शादियां और कीं जिससे उन्हें दो और बेटियां हुईं जिनके नाम हैं कविता और करिश्मा। कहते हैं जिया की मां राबिया का भी असली नाम रेणुका है। चूंकि रेणुका को अली खान नामक व्यक्ति मुंबई लाए थे अत: उनकी बेटियां अपने नाम के आगे अली खान लगाती हैं, जैसे जिया का नाम था जिया अली खान। जिया अली खान का बचपन कई भावनात्मक बवंडरों से गुजरा। वे रिश्तों के रेगिस्तान में रहीं। कहा जाता है जिया के साथ चौदह वर्ष की उम्र में बलात्कार भी हुआ। सारे जटिल हालात के चलते वे भावनात्मक रुप से असुरक्षित व्यक्तित्व के रुप में विकसित हुईं। फिलहाल वे पारिवारिक दबावों से गुजर रही थीं, उन्हें फिल्में भी नहीं मिल रही थीं। वे डिप्रेशन में थीं और कुछ महीनों पहले भी मरने के लिए अपनी कलाई काट चुकी थीं।
इस सारे प्रकरण में दो बातों पर सभी का ध्यान जाए यह जरूरी है। पहला तो यह है कि डिप्रेशन को हल्के से नहीं लिया जाना चाहिए! क्लिनिकल डिप्रेशन एक शारीरिक सच्चाई है, जिसमें जरुरी रसायनों का संतुलन गड़बड़ होता है। जैसे सिर्फ पॉजिटिव सोचने भर से बुखार या मधुमेह नहीं चला जाता वैसे ही क्लिनिकल डिप्रेशन में भी चिकित्सकीय सहयोग से दवाइयां लेना होता हैं, परामर्श भी। अत: ही घरवालों को बीमारी दबाए रखना चाहिए, ही मरीज से डांट-डपट करना चाहिए कि वह फालतू बातें सोच रहा है, नाटक कर रहा है, धमकी दे रहा है वगैरह। ऐसे मामलों में आत्महत्या की बात करना धमकी नहीं सहायता की पुकार हो सकती है। बदकिस्मती से जिया ने जब पहली बार कलाई काटी तब उनकी मां ने कहा था यह हमेशा से ही अटेंशन सीकिंग बिहेवियर करती है। ऐसी उपेक्षा और मनोसमस्याओं के प्रति नासमझी अंतत: परिवार को महंगी पड़ सकती है।
इस प्रकरण में दूसरी ध्यान देने वाली घटना यह रही कि हालात का विश्लेषण पूरा हुए बगैर ही प्रथम दृष्टतया तो जिया के प्रेमी सूरज पंचोली को विलेन मान लिया गया, मीडिया में बयानबाजी भी चल पड़ी और सूरज को जेल में भी समय बिताना पड़ा। जबकि सूरज से मिलने से पहले भी जिया आत्महत्या का प्रयास कर चुकी थीं और वे डिप्रेशन में थीं। उन्हें इलाज और भावनात्मक सहारे की जरुरत थी जो उन्हें परिवार से मिलना चाहिए था। मगर इन दिनों हालात कुछ ऐसे बन गए हैं कि किसी लड़की को कुछ हो तो किसी लड़के को विलेन ठहराना मानो जरुरी होता है। भारतीय पितृ प्रधान समाज में लड़कियां तो जेंडर बायस से मुक्त हुई नहीं और इधर यह रिवर्स जेंडर बायस शुरू हो गया। लड़कियों के प्रति सदियों से हो रहे अन्याय का बदला है न्याय। उन्हें न्याय और बराबरी के हक मिलना चाहिए। मगर लड़कियों के प्रति अन्याय के बदले में लड़कों के प्रति अन्याय शुरू कर देना तो गलत है। इससे तो उल्टे स्त्री द्वेष और मुसीबत बढ़ेगी। आजकल एक और अजीब सा चलन हुआ है, भारतीय लोगों की बेलगाम पुत्रेष्णा पर लगाम लगाने के लिए लोग पुत्रों को खराब ठहराना फैशन समझते हैं। यह कहना उचित है कि बेटा हो या बेटी एक ही बात है। बेटियां भी अच्छी होती हैं। मगर बेटी होना अच्छी बात है यह साबित करने के लिए यह कहने लगना कि 'बेटियां अच्छी होती हैं और बेटे खराब", यह तो उचित नहीं है। भारतीय समाज में बेटे से मां-बाप की अपेक्षा बहुत रहती है वह जितना भी करे उन्हें कम लगता है। बेटियां मेहमान बनकर आती हैं वह दो बोल भी बोल ले तो दर्ज हो जाते हैं। ये भारतीय समाज की कटु सच्चाइयां हैं। इन पर गौर करने से विपरीत लिंग भेद का वातावरण पनपना अवश्यंभावी है। तराजू का कभी यह पलड़ा ऊपर जाए, कभी वह तो धरमकांटा किसी काम का नहीं होगा। दोनों पलड़ों में संतुलन जरुरी है। जब लड़कियां यह कहती हैं कि उन्हें पुरुषों के बराबर होना है तब भी इस बात को ऐसा मानकर गलत नहीं आंका जाना चाहिए कि वे मर्द बनना चाह रही हैं, या बराबरी कर रही है। बराबरी करना और बराबर होना दो अलग बातें हैं। स्त्रियां चाहती हैं कि उन्हें पुरुषों के बराबर हक, सम्मान अवसर मिलें। उनकी दुश्मनी पुरुषों से नहीं, पुरुष प्रधान समाज में व्याप्त भेदभाव से है।
- निर्मला भुराड़िया

रफ़्तार

3 टिप्‍पणियां:

  1. निर्मला जी, यह मुद्दा अभी के माहौल में उठाना कई लोगों को नागवार लग सकता है. लेकिन इस पर भी बहस होना जरूरी हो गया है. इस विषय को उचित महत्व देने के लिये साधुवाद.

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  2. मामला सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। जब भी मेरे पुलिसकर्मी मित्रों तथा वकील मित्रों से बात होती है तो वो कहते हैं की इन दिनों महिलाओं द्वारा पुरुषों के खिलाफ साज़िश के तहत पुलिस में रिपोर्ट लिखवाना एक आम बात हो गयी है, क्योंकि हमारी संसद ऐसे कानून पास कर रही है, जिसमें न्याय के बजाए महिलाओं के पक्ष में कार्यवाही करना ज़रूरी हो जाता है। अभी इन्दौर में एक मकान मालिक के खिलाफ झूठी शिकायत के मामले में आत्महत्या से इस तरह की घटनाओं का पता चलता है, तथा स्थिति को समझने के बजाए उसको ऊपरी लीपापोती से सुधरा हुआ दिखाने की कोशिश समझ में आती है।

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  3. भारतीय पितृ प्रधान समाज में लड़कियां तो जेंडर बायस से मुक्त हुई नहीं और इधर यह रिवर्स जेंडर बायस शुरू हो गया। लड़कियों के प्रति सदियों से हो रहे अन्याय का बदला है न्याय। उन्हें न्याय और बराबरी के हक मिलना चाहिए। मगर लड़कियों के प्रति अन्याय के बदले में लड़कों के प्रति अन्याय शुरू कर देना तो गलत है। * बिल्कुल यही बात सवर्ण एवं दलित के विषय मे भी उतनी ही सही है |
    जब लड़कियां यह कहती हैं कि उन्हें पुरुषों के बराबर होना है तब भी इस बात को ऐसा मानकर गलत नहीं आंका जाना चाहिए कि वे मर्द बनना चाह रही हैं, या बराबरी कर रही है। बराबरी करना और बराबर होना दो अलग बातें हैं। * लेकिन इस फ़र्क मे ही वे गढ़मढ़ कर रही है |
    पुरुषों के बराबर हक, सम्मान व अवसर मिलें * यह चाहने मे कोई बुराई नही है परन्तु ओशो का कहना है कि नारी नर बनना चाहती है यह भूलकर कि प्रकृति ने उसे नारी बनाया है नर नही ,सारी गड़बड़ यही से शुरू होती है जो संघर्ष का रुप लेती है |

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