पिछले दिनों इंदौर
में एक
हत्याकांड हो गया। एक व्यक्ति
ने अपनी
पत्नी और
सास-ससुर
की हत्या
कर स्वयं
को फांसी
लगा ली।
पुरुष ने
एक सुसाइड
नोट भी
छोड़ा है
जिसके अनुसार,
उसकी पत्नी
ने छ:
माह की
पुत्री को
गला दबा
कर मार
डाला था।
इससे उपजे
गुस्से ने
बाकी हत्याएं
करवाईं। प्रकरण
की जांच
अभी जारी
है, अत:
पूरे तौर
पर कुछ
कहा नहीं
जा सकता
कि घटनाक्रम
वस्तुत: क्या
था। मगर
इस घटना
ने हमारी
परिवार-समाज
व्यवस्था पर
कई प्रश्न
उठाए हैं।
कहा जा
रहा है
कि चूंकि
पति-पत्नी
दोनों कामकाजी
थे अत:
बच्ची को
कौन रखे
इस पर
भी तनाव
था। कुछ
लोग यह
बात भी
कह रहे
हैं कि
संयुक्त परिवार
बेहतर होता
है क्योंकि
वह पति-पत्नी के
बीच बफर
का काम
करता है
अत: मामला
अक्सर ऐसे
विस्फोटक स्तर
पर नहीं
पहुंचता। संयुक्त
परिवार में
बच्चे की
परवरिश इतनी
बड़ी समस्या
नहीं होती।
वहीं दूसरी
तरफ यह
विचार भी
है कि
संयुक्त परिवार
स्त्री की
आजादी की
बलि लेते
हैं अत:
बहुएं इनमें
होने वाली
सुविधा के
बावजूद इन्हें
पसंद नहीं
करतीं। इनमें
से कौन
सही है?
दरअसल ये
दोनों ही
बातें सही
हैं। बहू
और परिवार
दोनों का
अपना-अपना
पक्ष है।
दोनों ही
देखें जाएं-
कुछ इधर की-
संयुक्त परिवार
में एक
दूसरे का
साथ मिल
जाता है।
हारी-बीमारी,
रोजमर्रा के
तनाव में
इंसान अकेला
नहीं पड़ता।
बच्चों का
लालन-पालन,
बुजुर्गों की देखभाल, टूर पर
जाना हो
तो घर
की जिम्मेदारी
हर चीज
हो जाती
है। मगर
हमारे संयुक्त
परिवारों में
बहुओं को
दबा कर
रखने का
इतिहास रहा
है। उन
पर तरह-तरह के
प्रतिबंध रहते
आए हैं।
सास-ससुर
के सामने
सिर पर
पल्लू लेना
आज भी
कई घरों
का कायदा
है। इसमें
जहां ढील
आई है
वहां भी
बहू का
साड़ी पहनना
आवश्यक है।
जहां इसमें
भी ढील
आई है
वहां भी
खास तरह
का सलवार-कुर्त्ता। यानी
किसी भी
रूप में
मनपसंद परिधान
पर प्रतिबंध
जारी है।
ससुराल वाले
यह भी
तय करते
हैं कि
बहू को
सुबह कितने
बजे उठना
चाहिए। देर
से उठने
वाली 'बुरी
बहू" मानी जाती है। भले
उम्र और
बुजुर्गियत के कारण सास-ससुर
की नींद
कम हो
गई हो,
मगर वे
अपने पैमाने
से ही
बहू का
सोना-उठना
तय करेंगे।
उसने क्या
खरीदा है,
वह कहां
जाती है,
उससे मिलने
कौन आता
है संयुक्त
परिवार में
हर वक्त
यह बातें
विवेचना का
विषय होती
है। पूजा-पाठ, उपवास
तक उसको
ससुराल वालों
की मर्जी
से ही
करने होते
हैं। निश्चित
ही संयुक्त
परिवार बहुओं
के लिए
प्रतिबंधों का इतनना बड़ा पुलिंदा
रहा है
कि आज
की लड़कियां
इसके नाम
से ही
घबराती हैं।
पति के
मां-बाप
और रिश्तेदारों
का जीवन
में हर
पल दखल
उन्हें खलता
है।
कुछ उधर की-
समाज व्यवस्था
बदली है।
अधिक लड़कियां
अब कामकाजी
हुई हैं।
इसमें कुछ
भी बुरा
नहीं है।
आखिर कोई
भी इंसान
अपनी योग्यता
के अनुकूल
विकास करेगा।
जेंडर के
हिसाब से
कार्य तय
क्यों हो।
फिर आर्थिक
सशक्तिकरण भी तो जरुरी है।
उसके बगैर
पारंपरिक भूमिका
में रहने
वाली स्त्रियों
ने बहुत
दमन और
दासता सही
है। अत:
कामकाजी या
स्वतंत्र विचारवान
होना गलत
नहीं है।
मगर स्वतंत्र
विचार वाला
होने का
मतलब पति
के परिवार
से घृणा
करना बिलकुल
नहीं है।
कुछ लड़कियां
पति के
परिवार के
प्रति पूर्वाग्रह
लेकर ही
विवाह संस्था
में प्रवेश
करती हैं।
ससुराल के
लोगों का
व्यवहार अच्छा
हो, तब
भी वे
अलगाववादी रुख ही रखती हैं।
वे हमेशा
अपने मां-बाप के
संपर्क में
रहती हैं
मगर सास-ससुर से
भावनात्मक जुड़ाव स्थापित करने का
प्रयास नहीं
करतीं। यदि
परिवार एकल
है तो
पत्नी के
मां-बाप
का दखल
बढ़ता चला
जाता है।
यहां तक
देखा गया
है कि
उनके बच्चे
पति के
मां-बाप
से घुलें-मिलें तो
उन्हें अच्छा
नहीं लगता।
दादा-दादी
को अपने
पोते-पोतियों
से कैसे
पेश आना
चाहिए इसका
लंबा पुलिंदा
वह थमाती
है, गोया
बच्चे दादा-दादी के
कुछ लगते
ही न
हों। वहीं
नाना-नानी
को अपने
ममत्व व
वात्सल्य को
कैसे भी
प्रकट करने
की छूट
होती है। तब उनका बच्चा
नहीं बिगड़ता
न ही
संक्रमित होता
है! इस
दूसरी वाली
स्थिति में
सास-ससुर
कई प्रतिबंधों
से गुजरते
हैं,बहू
नहीं। बहू
को कब
उनकी क्या
जीवनचर्या और कौन से दोस्त
अखरने लगेंगे
उन्हें पता
ही नहीं
चलता। साथ
रहती है
तो आजादी
में दखल
देती है,
दूर रहती
है तो
मिलने नहीं
फटकती न
अपने बच्चों
में दादा-दादी के
प्रति प्यार
पनपने देती
है।
इधर की हो
या उधर
की। दोनों
हीस्थितियां अत्यांतिक हैं। दोनों
ही पक्ष
अपनी-अपनी
गलतियां देखें
तभी संतुलन
संभव है।
यदि हम
एक दूसरे
को प्यार
करें, साथ
रहते हुए
भी एक
दूसरे को
स्पेस दें,
एक दूसरे
की स्वतंत्रता
का सम्मान
करें, एक
दूसरे की
भावनाओं का
आदर करें,
संयुक्त परिवार
का फायदा
तभी है।
शांतिपूर्ण सहअस्तित्व एक महान अवधारणा
है मगर
यह असंतुलन,
स्वार्थ, टुच्चेपन,रोक-टोक
आदि कारकों
के चलते
फलीभूत नहीं
हो पाती।
निर्मला भुराड़िया
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