समाज में अश्लीलता
बढ़ाने के
संदर्भ में
इन दिनों
हिन्दी फिल्मों
में भरे
जाने वाले
आइटम सॉन्ग्स
की काफी
आलोचना हो
रही है।
मगर आइटम
सॉन्ग्स तो
वो हैं
जो लाउड
होने की
वजह से
बहस के
लिए पकड़
में आ
रहे हैं।
औरत को
मात्र एक
वस्तु, औरत
को सिर्फ
एक देह
मानने वाली
मानसिकता का
असल उदाहरण
तो और
कहीं है।
हिन्दी फिल्मों
में हीरो-हीरोइन के
उम्र के
अंतर को
इसी रुप
में देखा
जाना चाहिए।
फिल्म देस
परदेस में
देवानंद 55 वर्ष के थे उनकी
हीरोइन टीना
मुनीम 21 की।
मेरा नाम
जोकर में
राजकपूर की
मां बनी
अचला सचदेव
उनसे सिर्फ
चार साल
बड़ी थी।
हिन्दी फिल्मों
में हीरोइन
के बाप
के बराबर,
कभी-कभी
तो दादा
के बराबर
का आदमी
भी सोलह
साल, बीस
साल की
कन्या के
साथ रोमांस
करता है।
हिन्दी फिल्में
इस पुराने
सामंती सोच
पर काम
करती हैं
जो कहता
था कि
आदमी कभी
बूढ़ा नहीं
होता। यही
वह सोच
है जो
मानता था
कि लड़की
सोलह की
पैदा हो
और तीस
की मर
जाए। यहां
तो पचास
के हीरो
के साथ
कई बार
तीस की
हीरोइन भी
नहीं होती।
तीस पर
भी उम्रदराज
मान ली
जाती है।
अधेड़ पांडेजी
कमसिन किशोरियों
के साथ
सीटी बजाते
रहते हैं।
अक्षय कुमार,
शाहरुख खान,
सलमान खान
रोमांस से
रिटायरमेंट लेने को तैयार नहीं।
इनके साथ
की जूही
चावला, उर्मिला
मातोंडकर, रवीना टंडन मुख्य हीरोइनों
की भूमिकाओं
से बाहर
हो चुकी
हैं। हीरो
के साथ
रोमांस करने
के लिए
अनुष्का शर्मा,
कैटरीना कैफ,
सोनाक्षी सिन्हा
आ चुकी
हैं। फिल्म
डर्टी पिक्चर,
जो कि
फिल्म इंडस्ट्री
की अंदर
की कहानी
पर आधारित
है, में
इस बात
पर व्यंग्य
करता हुआ
एक बहुत
बढ़िया सीन
है। शूटिंग
चल रही
है, बूढ़ा
एक्टर जो
कि युवा
रोमांटिक नायक
का रोल
कर रहा
है, उसे
एक शॉट
में अपनी
मां बनी
स्त्री की
गोद में
जाकर गिरना
है। नायक
मां बनी
जिस स्त्री
की गोद
में मां
कहकर गिरता
है उस
पर कैमरा
जाता है
तो पता
चलता है
वह सफेद
बालों का
बिग लगाए
एक युवती
है, जो
हीरो की
मां का
रोल कर
रही है!
कोई यह कहेगा
कि ये
फिल्में हिट
भी तो
हो रही
हैं यानी
दर्शक भी
यही चाहता
है। तो
दर्शक भी
तो उसी
सामंती मानसिकता
का शिकार
है जो
फिल्म इंडस्ट्री
में पसरी
है। बहुत
दिन नहीं
हुए जब
भारतीय समाज
में यह
आम बात
थी कि
स्त्री चाहे
बाल-विधवा
हो या
जवानी में
विधवा हो
जाए उसका
पुनर्विवाह सपने में भी संभव
नहीं था।
मगर पुरुष
की एक
पत्नी मर
जाए तो
दूसरी, वह
मरे तो
तीसरी-चौथी
भी संभव
थी। अधिकांश
पुरुष तो
पत्नी मरने
के बाद
साल भर
भी इंतजार
नहीं करते
थे। चूंकि
वे किसी
विधवा से
तो विवाह
करते नहीं
थे, कुंवारी
लड़की ही
चाहिए होती
थी अत:
कमसिन लड़कियों
का चालीस-पचास पार
अधेड़ दूजबर
से ब्याह
होना सामान्य
घटना थी,
जो इक्की-दुक्की नहीं
बहुतायत में
होती थी।
अपनी फिल्म
'दुनिया न
माने" में ऐसी ही एक
युवती का
विद्रोह वी.
शांताराम ने
बहुत साहस
के साथ
प्रदर्शित किया है। भारत में
एक समुदाय
में तो
व्यक्ति की
पत्नी की
अंतिम क्रिया
के समय
ही किसी
कन्या का
पिता उसके
कंधे पर
रखा तौलिया
निचौड़ दे
तो इसका
मतलब होता
था कि
ताजे-ताजे
विधुर हुए
व्यक्ति को
उसे अपनी
बेटी देना
है। फिर
चाहे उस
युवती के
लिए दांपत्य
का मतलब
जीवन भर
का बलात्कार
हो या
अतृप्ति से
उपजा हिस्टीरिया
इससे समाज
को मतलब
नहीं। क्योंकि
स्त्री तो
महज देह
है, इंसान
नहीं। आज
इन पुराने
संदर्भों के
हिसाब से
भारत में
बहुत सुधार
हुए हैं।
मगर उम्रदराज
हीरो का
कमसिन हीरोइन
के साथ
फिल्म करके
हिट होना
यह बताता
है कि
हमारा सामंती
मन ऐसी
बातों को
'माइंड" नहीं करता। आज माधुरी
दीक्षित की
जोड़ी रणबीर
कपूर, रवीना
टंडन की
जोड़ी इमरान
खान के
साथ लगातार
बनने लगे
तो? सोच
कर ही
अजीब लगता
है ना?
मगर पुरुषों
के बारे
में यह
अजीब नहीं
लगता। तो
यह सब
हमारी मानसिकता
का ही
सवाल है,
उसी का
खेल।
कुछ साल पहले
की बात
है राजस्थान
की ऐक
शादी देखने
का मौका
आया। शादी
के दिवसों
में एक
दिन एक
हॉल में
कुछ कार्यक्रम
चल रहा
था। महिलाओं
को बताया
गया कि
यह कार्यक्रम
सिर्फ पुरुषों
के लिए
है। यह
एक स्त्री
के नाच
का कार्यक्रम
था सिर्फ
पुरुष दर्शकों
के लिए!
महिलाओं ने
बताया कि
यहां शादियों
में यह
बात आम
है। आजकल
नेताओं की
सभाओं के
पहले भी
लड़कियों के
नाच का
कार्यक्रम होता है। गौर किया
जाए शास्त्रीय
नृत्य का
कार्यक्रम नहीं। कमसिन लड़कियों से
अश्लील ठुमके
लगवाए जाने
का कार्यक्रम।
सोच लीजिए
फिल्मों में
आयटम सॉन्ग
कहां से
आए।
हमारे यहां शादी
केा विज्ञापनों
में खुले
आम गोरी
और स्लिम
वधु की
मांग की
जाती है।
यह अलिखित
नियम है
कि लड़की
लड़के से
उम्र में
छोटी ही
होना चाहिए।
अब फिर
भी समवयस्क
लड़के-लड़कियां
विवाह करने
लगे हैं,
मगर कुछ
समय पहले
तक भी
हमारे यहां
पत्नी की
उम्र पति
से पांच
साल कम
होना एक
सहज सामान्य
अंतर माना
जाता रहा
है। यह
अपेक्षा रहती
थी कि
इतना अंतर
तो होना
ही चाहिए।
अरेंज शादियों
में भी,
मतलब जहां
प्रेम हो
जाना वर-वधु के
चुनाव का
बायस नहीं,
वहां भी
ढेरों पत्नियां
पति से
दस-बारह
साल छोटी
होती रही
हैं। इसके
पीछे यह
इच्छा रही
होगी कि
पत्नी का
यौवन अधिक
समय तक
पुरुष को
फायदा पहुंचाए!
जो भी
हो क्या
यह अश्लील
नहीं? क्या
इस तरह
पुरुष उम्र
की मर्यादा
का हनन
नहीं करता?
जिस लड़की
को आपके
पैर छूने
चाहिए और
जिसके सिर
पर आपका
हाथ होना
चाहिए उससे
वासना का
संबंध बना
लिया जाना
सबसे बड़ी
अश्लीलता है।
सारा दोष
फिल्मों और
पाश्चात्य संस्कृति को देकर हम
बरी नहीं
हो सकते।
फिल्में समाज
का ही
आईना हैं।
निर्मला भुराड़िया
साहसिक और तथा कथित सभ्य समाज को आईना दिखाता लेख ! हार्दिक साधुवाद !
जवाब देंहटाएंश्रीमति निर्मला भुराड़िया जी, आपको शायद पता न हो तो बता दूं कि, लड़कों के मुकाबले लड़कीयां कम उम्र में ही ज्यादा जवान हो जाती है, और ये प्रक्रिया कुदरती होती है। ईस में महिलाओं का मानभंग या अपमान किसी भी तरीके से नहीं हो रहा। और रही बात फिल्मों की तो फिल्मों के रॉल जिसके उपर ज्यादा जचते हैं या अच्छे लगतें हैं उसीको दिये जाते हैं, उसमें अपमान वाली बात कौनसी है? जेसे कि, फिल्म का कोई रॉल केटरीना कैफ से ज्यादा माधुरी पे अच्छा लगता है तो डिरेक्टर माधुरी को वो रॉल देता है, तो क्या ईसमें केटरीना कैफ का अपमान हो जायेगा? आपकी कुछ बातों से मैं भी सहमत हूं। लेकिन, उम्रदराज महिला का रॉल करने में माधुरी या जूही चावला को भी कोई प्रॉब्लम नहीं है तो भला आप बेवजह क्यों परेशान हो रहीं हैं? (गुलाब के फूल को लड़की के माथे पे लगाएंगे तो अच्छा लगेगा, लेकिन उसे कचरे के ढेर पे लगाएंगे तो क्या अच्छा लगेगा?)
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