पिछले दिनों दिल्ली
में हुई
बलात्कार की
घटना के
बाद माहौल
गरमाया और
देश में
शायद पहली
बार स्त्रियों
के प्रति
पुलिस, प्रशासन
और समाज
के रुख
को लेकर
इतनी चर्चाएं
हुईं, जो
कि अभी
जारी हैं।
इस मंथन
से स्त्री
के प्रति
समाज और
सत्ता के
व्यवहार और
अन्याय पूर्ण
रवैए से
जुड़ी कई
बातें खुलकर
सामने आईं।
मगर धार्मिक
और राजनीतिक
सत्ता से
जुड़ी कुछ
हस्तियों ने
ऐसे
बयान भी दिए जिनसे उनकी
बौखलाहट स्पष्ट
हुई। इन्हीं
में से
एक बयान
यह आया
कि यह
सारा आंदोलन
पुरुष विरोधी
है। जो
यह कहते
हैं स्त्रियों
के बचाव,
स्त्रियों की पहचान उनके सम्मान
की बात
करना पुरुष
विरोधी है,
वह सिर्फ
बांटों और
राज करो
की राजनीति
करना चाहते
हैं। पिछले
दिनों जो
चेतना की
किरण समाज
में पहली
बार दिखी
उसे पुरुष
विरोधी कहना
उन सैकड़ों-हजारों युवकों
का भी
अपमान है
जो युवतियों
के कंधे
से कंधा
मिलाकर न्याय
की मांग
करते दिखे,
उन पुरुषों
का भी
जिन्होंने तर्क और न्याय की
बात की।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के संपादक, एंकर,
वार्ताकार, अखबारों, पत्रिकाओं के लेखक-संपादक, कॉलेज
और कार्यालय
जाने वाले
लाखों-लाख
युवा और
भी कई
सामान्य बातचीत
में शामिल
होने वाले
पुरुष ऐसे
थे जिन्होंने
भारतीय समाज
में महिलाओं
से जुड़े
रूढ़िवाद, उनके
दमन वाली
सामाजिकता के विरोध में खुलकर
बात की।
यह लड़ाई
स्त्री बनाम
पुरुष की
लड़ाई नहीं
है, इंसानियत
बनाम हैवानियत
की है।
यह लड़ाई
पुरुषों के
खिलाफ नहीं,
उस व्यवस्था
के खिलाफ
है जो
न सुरक्षा
दे पा
रही है
न न्याय।
यह लड़ाई
उस समाज
के खिलाफ
है जो
ऊंचा-नीचा
है। लड़कों
और लड़कियों
में स्पष्ट,
दिखाई देने
वाला और
बेशरम भेदभाव
करता है।
यह लड़ाई
उस असंवेदनशील
समाज के
प्रति है
जो बलात्कार
जैसे भीषण
व हिंसक
अत्याचार का
दोष भी
स्त्री पर
ही थोप
देना चाहता
है। दोष
सीता का
नहीं था
कि उन्होंने
लक्ष्मण रेखा
लांघी। दोष
तो रावण
का था
जिसने साधु
वेश बनाया।
रूप बदलने
का यह
छल न
होता तो
क्या सीता
भिक्षा देतीं!
मगर हमने
आज तक
भी रामायण
से यह
सीख ग्रहण
नहीं की
कि साधु
वेश के
भीतर कपटी
हो सकता
है। इसलिए
आज तक
भी हमारे
यहां साधु
वेश के
पीछे दुराचारी
न सिर्फ
छुप कर
रह सकता
है, बल्कि
फलता-फूलता
और राज
करता है।
हम तो
सारा दोष
सीता के
लक्ष्मण रेखा
लांघने को
देकर खुश
हो जाते
हैं।
बात-बात में
भारतीय संस्कृति
और परंपरा
का हवाला
देने वालों
से यह
पूछने का
मन करता
है कि
पौराणिक काल
तो बहुत
पहले की
बात है,
उसमें क्या
जाना? थोड़ा
सा गर्दन
को कष्ट
दें, मुड़कर
देखें तो
बहुत ताजा
इतिहास में
ही भारत
में सती-परंपरा थी
उन्नाीसवीं सदी तक। इतनी जघन्य
परंपरा कि
पति के
न रहने
पर एक
इंसान को
ही जिंदा
जला दिया
जाए! उस
समय का
भारतीय समाज
इसमें नृशंसता
नहीं, एक
महान परंपरा
देखता था।
इसे खत्म
करने को
राजी नहीं
था। हम
रोज-रोज
संस्कृति का
हवाला देते
हैं तब
ये बातें
भी देख
लेना चाहिए।
स्त्री बनाम
पुरुष की
तो बात
ही कहां
है इसमें,
सती प्रथा
के खात्मे
में एक
पुरुष- राजा
राममोहन राय
की ही
सबसे बड़ी
भूमिका थी।
सुधारक एक
तार्किक, सुलझा
हुआ इंसान
होता/होती
है। वह
धर्म, जाति,
समुदाय, जेंडर
की नहीं
न्याय और
इंसानियत की
नजर से
चीजों को
देखता है।
अपने तात्कालिक
स्वार्थ और
वर्चस्व भावना
से ऊपर
उठकर सोचता
है।
आज भी भारत
में बलात्कार
की शिकार
स्त्री जीवन
भर नर्क
की आग
में जलती
है। इज्जत,
पवित्रता, कलंक जैसे शब्द उसका
पीछा करते
हैं। बलात्कार
के लिए
इज्जत लुटना
जैसे शब्द
क्यों? इज्जत
तो उसकी
जाना चाहिए
जो ऐसा
दुष्कर्म करता
है। बलात्कृता
को भारत
में लोग
ऐसी फुसफसाहटों
के साथ
देखते हैं,
'अरे वो
है, इसके
साथ ऐसा
हुआ था।"
जैसे दुर्घटना
होने से
वह कोई
अजूबा हो
गई हो।
घर वालों
को चिंता
हो जाती
है अब
उसके साथ
कोई विवाह
नहीं करेगा।
बलात्कार से
लड़की के
अपवित्र हो
जाने की
यह सामाजिक
अवधारणा उस
अपराध से
भी ज्यादा
जघन्य है।
बिना अपराध
ही लड़की
उन नृशंस
क्षणों को
जीवन भर
ढोती है,
असल अपराधी
छुट्टा घूमता
है, क्योंकि
शर्म उल्टा
शिकार ढोता
है इसलिए
रपट लिखवा
कर अपराधी
को सलाखों
के पीछे
भेजना मुश्किल
होता है।
तिस पर
भी अपराधी
यदि न्याय
को अपनी
मुट्ठी में
रखने वाला
महाबली हो
तब तो
बात समाने
आना ही
मुश्किल है।
दंड मिलता
ही नहीं
इसलिए अपराधियों
के हौंसले
बुलंद होते
हैं। महाबली
दुष्टों का
कुछ नहीं
बिगड़ता, व्यवस्था
अंधी-बहरी
है- विश्वास
का यही
संकट तो
इतने लोगों
को सड़क
पर ले
आया। अब
अपनी असंवेदनशीलता
अपनी सुरक्षा
संबंधी खामियों
को तरह-तरह के
बहानों से
दबाने से
क्या फायदा।
तालिबानी, खाप पंचायत, वर्चस्ववादी मानसिकता
कहती है
लड़कियों को
मोबाइल मत
दो। उनसे
पूछना चाहिए
उस दिन
उस लड़की
का मोबाइल
न छीना
जाता तो
क्या अच्छा
नहीं होता?
वह रिपोर्ट
तो कर
पाती। लड़कियों
के पास
तो मोबाइल
होना ही
चाहिए और
वे सारे
अस्त्र भी
जैसे, शिक्षा,
साहस, स्वतंत्रता,
आय के
स्रोत आदि।
वह दुराचारियों
के पैरों
में गिरकर
गिड़गिड़ाती जैसी अपेक्षाएं करके वर्चस्ववादी
लोग उसे
अबला जीवन
हाय तुम्हारी
यही कहानी
वाली दौर
में क्यों
लौटाना चाहते
हैं। इन
दिनों उठी
नई चेतना
की मांग
है कि
समाज से
स्त्री को
संवेदना, सम्मान
और न्याय
मिले।
निर्मला भुराड़िया
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